Book Title: Arihantna Atishayo
Author(s): Tattvanandvijay
Publisher: Sangmarg Prakashan

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Page 259
________________ सातवां दृषण रति' है / जिसकी प्रीति पदार्थों के ऊपर होगी सो अवश्य सुंदर शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श, स्त्री आदि के ऊपर प्रीतिमान होगा, सो अवश्य उस पदार्थ की लालसावाला होगा, अरु जो लालसावाला हागा सा अवश्य उस पदार्थ की अप्राप्ति से दुःखी होगा / वह अर्हन्त परमेश्वर केस हो सकता है ? आठवां दूषण ‘अरति' है - जिसकी पदार्थों के उपर अप्रीति होगी सो तो आप ही अप्रीतिरूप दुःख करी दुःखी है / सो अर्हन्त परमेश्वर कैसे हो सके ? नववां दृषण भय' है - सा जिसने अपना ही भय दूर नहीं किया वह अर्हन्त परमेश्वर कैसे होवे ? दसवां दृषण 'जुगुप्सा' है - सो मलोन वस्तु को देख के घृणा करनी-नाक चढानी, सो परमेश्वर के ज्ञान में सर्व वस्तु का भासन होता है / जो परमेश्वर में जुगुप्सा होवे तो बडा दुःख होवे / इस कारण ते जुगुप्सामान अर्हन्त भगवंत कैसे होवे ? ग्यारवां दृषण ‘शोक' है - सो जो आप ही शोकवाला है सो परमेश्वर नहीं / बारवां दृषण ‘काम है -- सो जो आपही विषया है, स्त्रियों के साथ भोग करता है, तिस विषयाभिलाषी को कौन बुद्धिमान पुरुष परमेश्वर मान सकता है ? तेरवां दृषण मिथ्यात्व' है - सो जो दर्शन मोहकरी लिप्त है सो भगवंत नहीं / चोदवां दूषण 'अज्ञान' है - सो जो आपही मूढ है सो अर्हन्त भगवंत कैसे ? पंदरवां दृषण निद्रा' है - सो जो निद्रा में होता है, सो निद्रा में कुछ नहीं जानता और अर्हन्त भगवान तो सदा सर्वज्ञ है, सो निद्रावान् कैसे होवे ? सोलयां दृषण अप्रत्याख्यान' है - सो जो प्रत्याख्यान रहित है वोह सर्वाभिलाषी है / सो तृष्णावाला कसे अहन्त भगवन्त हो सके ? सतारगं और अठारवां - ए दोनों दृषण राग अरु द्वेष है / सा रागवान् द्वेषवान् मध्यस्थ नहा लाना / अरु जा रागो द्वषी होता है, रिसमें क्रोध, मान, माया का संभव है / भगवान तो वानगग मशमित्र. सब जागें पर सभा द्व, न किसी को दःखी और न किसी को सुखी कर है / लेकर दुःखो कर ता नीतराग, करुणासमुद्र कभी भी नदी हो सकता / इस कारण तें रागद्वेषवाला अहंन्त भगवंत परमेश्वर नहो / / पूर्वोक्त अठारह दूषण रहित अर्हन्त भगवंत परमेश्वर है, पर कई परमेघर नहो / अष्टादश दोष कमजन्य है, अत: जिस आत्मा में यह दोष उपलब्ध होंगे उसमें कर्ममल अवश्य ही विद्यमान होगा / और कममल स जा आत्मा लिप्त है वह जीव अथवा सामान्य आत्मा है, परमात्मा नहीं / क्यों कि कर्ममल से सर्वथा हित हाना ही परमात्मा को प्राप्ति अथवा आत्मा का संपूर्ण विकास है / इस लिये जो आत्मा कममल से सर्वथा रहित हा गया है परमात्मा है और उसमें यह दोष कभी नहीं रह सकते / अत: सामान्य आत्मा और पभान्मा की परीक्षा के लिए उक्त दोषों का जानना अत्यंत आवश्यक है / 246 અરહંતના અતિશયો

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