Book Title: Arhat Parshva aur Unki Parampara Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi View full book textPage 7
________________ [५] महावीर ने अपने प्रव्रज्या के समय एक वस्त्र ग्रहण किया था । 10 किन्तु यदि हम उनके वस्त्र - सम्बन्धी इस उल्लेख को प्रामाणिक मानें तो भी इतना स्पष्ट है कि वे अपनी प्रव्रज्या के एक वर्ष के पश्चात् नग्न या अचेल हो गये थे और उन्होंने मुख्य रूप से अचेल धर्म का ही प्रतिपादन किया था । " 1 यह भी सत्य है कि महावीर की परम्परा में जो सचेलता सम्बन्धी अपवाद प्रविष्ट हुए वे पाश्र्वापत्यों के प्रभाव के कारण हुए यह भी हो सकता है कि प्रथम पाश्र्वापत्यों की परम्परा का अनुसरण करके महावीर ने दीक्षा के समय एक वस्त्र ग्रहण किया हो । बाद में आजीवक परम्परा के अनुरूप अचेलता को स्वीकार कर लिया हो । जेकोबी ने The Sacred Books of the East, Vol XLV में ऐसी सम्भावना व्यक्त की है ।" उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से महावीर को अचेल धर्म का प्रतिपादक और पार्श्व को सचेलक धर्म का प्रतिपादक कहा गया है । 13 इन सब आधारों पर ऐसा लगता है कि पालि त्रिपिटक में बुद्ध के चाचा वप्पसाक्य तथा सच्चक के पिता के निर्ग्रन्थों के अनुयायी होने के तथा निग्रंथों के एक साटक होने के जौ उल्लेख हैं, वे महावीर की परम्परा की अपेक्षा पार्श्व की परम्परा से ही अधिक सम्बन्धित जान पड़ते हैं । बौद्धों को महावीर और पार्श्व की परम्परा का अन्तर स्पष्ट नहीं था, अतः उन्होंने पार्श्व की परम्परा की अनेक बातों को महावीर की परम्परा के साथ जोड़ दिया । उदाहरण के रूप में पालित्रिपिटक में महावीर को चातुर्याम का प्रतिपादक कहा गया है । 14 जबकि वास्तविकता यह है कि महावीर नहीं, पार्श्व ही चातुर्याम के प्रतिपादक हैं । सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती एवं अन्य आगम ग्रन्थों में पार्श्व को चातुर्याम धर्म का और महावीर को पञ्चमहाव्रत तथा सप्रतिक्रमण धर्म का प्रतिपादक कहा गया है । 15 इससे ऐसा लगता है कि बौद्ध परम्परा में निर्ग्रन्थों का जो उल्लेख है वह पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बन्धित है । सूत्रकृतांग, भगवती, 17 औपपातिक, 18 राजप्रश्नीय, १ निरयावलिका आदि आगम ग्रन्थों में पाये जाने वाले पारवपित्यों के उल्लेख इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि महावीर के समय के पार्खापत्यों का पूर्वोत्तर भारत में T6 19 व्यापक प्रभाव था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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