Book Title: Anusandhan 2017 07 SrNo 72
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 110
________________ जून - २०१७ १०३ मीमांसकों का कहना है कि जब वेद किसी की रचना है ही नहीं, चाहे वह ईश्वर हो या अन्य कोई प्राकृत पुरुष, तो उसमें प्रामाण्य किसी की वजह से है यह कहना गलत ही होगा । वेद प्रमाणभूत है तो वह इसलिए कि उन्हें किसीने बनाया नहीं है, वे अपौरुषेय हैं । वे दोषयुक्त पुरुष की रचनास्वरूप नहीं है यही उनका निर्दुष्टत्व है । उनमें जो प्रामाण्य मौजूद है वह स्वयं उपस्थित है, नित्य है । उस प्रामाण्य का ग्रहण - वेद वाक्यों से जन्य बोध में प्रमाणभूतता का ज्ञान भी स्वयं होता है, उसे अन्य किसी भी ज्ञान की अपेक्षा है ही नहीं, वह निरपेक्ष है । ईश्वर के वचनरूप में वेदों का प्रामाण्य स्वीकारने का मतलब यही होगा कि हम ईश्वर को वेद से भी ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं, जब कि वेद ही सर्वोपरि प्रमाण हैं, उनसे उपर कोई है ही नहीं। वास्तव में जब ईश्वर नाम का कोई व्यक्ति ही नहीं है, तो उसको वेदों का प्रणेता मानना व उसकी वजह से वेदों को प्रमाणभूत समझना कैसे सम्भव है ? । इस दृष्टि से देखें तो मीमांसादर्शन के वेदों का अपौरुषेयत्व एवं स्वतः प्रामाण्य - यह दोनों सिद्धान्त एकदूसरे पर अवलम्बित हैं । शब्द का नित्यत्व भी इसके पीछे पीछे ही चला आया है । इतनी प्रासङ्गिक चर्चा के बाद अब हम सन्मतितर्क की तत्त्वबोधविधायिनी वृत्ति में इस विषय पर जो चर्चा हुई है उसका सार देखेंगे - मीमांसक - किसी वाक्य में प्रामाण्य न हो तो वैसा उसमें रहे दोष के कारण हो सकता है, दोष न रहने पर वाक्य स्वतः प्रमाणभूत होता है। अब दोष का विरह गुण होने पर ही हो ऐसा कोई नियम तो नहीं है, क्योंकि वाक्य को अपौरुषेय मानने पर भी दोषविरह का पूर्ण सम्भव है। वस्तुतः पुरुषमात्र अज्ञानादि दोषों से युक्त ही होता है । अतः उसके द्वारा रचित कृतिओं में उन दोषों से प्रेरित दुष्टता-अप्रमाणभूतता अनायास ही चली आती है। यदि किसी वाक्यविशेष को सर्वथा प्रमाणभूत हम गिनना चाहे, तो यह तभी सम्भवित है कि हम उसे निर्दुष्ट समझे । और इसके लिए उस वाक्य को अपौरुषेय मानना जरूरी हो जाता है । यही वजह है कि हम वेदों को - जिन्हें सर्वथा प्रमाणभूत गिनना चाहिए उसे - अपौरुषेय स्वीकृत करते हैं ।

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