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अनुसन्धान-७२
न की हो और बाद में किसी ने उसका प्रथम प्रथम प्रारम्भ किया हो । तात्पर्य, सभी सज्जनों ने पूर्वकाल में जैसी अभिव्यक्ति चली आती थी ऐसी ही अभिव्यक्ति को अपनाया । स्वतन्त्ररूप से किसी ने भी वेदों की अभिव्यक्ति नहीं की। इस तरह अभिव्यक्ति नित्य न होने पर भी परम्परा की दृष्टि से तो वह नित्य एवं अनादि ही सिद्ध होती है । इस तरह पुरुष की स्वतन्त्रता के अभाव को ही हम अपौरुषेयत्व कहते हैं । कोई भी वक्ता ने स्वतन्त्ररूप से क्रम नहीं बनाया, यही वेदों का अपौरुषेयत्व है।
उत्तरपक्ष - इस तर्क से वेदों की अनादिता यद्यपि सिद्ध होती है, लेकिन उसकी अपौरुषेयता सिद्ध नहीं की जा सकती । वस्तुतः देखा जाय तो कितनी ही क्रियाएँ ऐसी हैं, कितने ही शिल्प ऐसे हैं जिनको एक व्यक्ति दूसरे को देखकर ही सीख पाता है । एक व्यक्ति जैसे उनको करता है, दूसरा उसका अनुसरण करके उसी तरह उन्हें प्रयोजित करता है। सामान्यतया स्वतन्त्ररूप से उन क्रिया, शिल्प इत्यादि का प्रवर्तन हो नहीं सकता । फिर भी अतिविशिष्ट प्रज्ञावान् व्यक्ति स्वतन्त्रता से उनका प्रवर्तन कर सकता है ऐसा हम स्वीकारते ही हैं । ऐसा न. भी माने तो भी उन क्रियादि को हम अनादि मानेंगे, नित्य मानेंगे, परन्तु अपौरुषेय तो नहीं मानेंगे । अन्यथा बालकों की पांशुक्रीडा को भी इस तरह अपौरुषेय मानने की आपत्ति आएगी। मतलब यह है कि इस तर्क से आप वेद की अपौरुषेयता सिद्ध नहीं कर सकते।
दूसरी बात, सम्पूर्ण वेदाध्ययन पूर्व पूर्व गुरुपरम्परागत अध्ययन का अनुगामी है, अत: कोई भी वेदाध्ययन स्वतन्त्ररूप से हो नहीं सकता, फलतः वेद अनादि एवं अपौरुषेय सिद्ध होंगे ऐसा स्वीकार यदि आप करना चाहे तो इस प्रकार का कथन तो अन्य ग्रन्थों के विषय में भी हो सकता है कि कादम्बरी आदि का अध्ययन पूर्व पूर्व परम्परागत अध्ययन का अनुगामी है। तब तो वे ग्रन्थ भी अनादि और अपौरुषेय सिद्ध होंगे । और उनको भी प्रमाणभूत गिनने का प्रसङ्ग उपस्थित होगा ।
मीमांसक - कादम्बरी आदि के कर्ता तो सुनिश्चित हैं । इसलिए वहाँ अपौरुषेयत्व की शङ्का उठने का कोई प्रश्न ही नहीं रहता ।
उत्तरपक्ष - वेद के कर्ता को भी याद किया जाता है । कोई