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अनुसन्धान-७२
अपौरुषेय मानकर भी क्या लाभ होता है ? ।
और वैसे भी वेद के अपौरुषेयत्व को सिद्ध करे ऐसी कोई दलील भी आपके पास नहीं है।
मीमांसक - ना जी, हमारे पास इसकी सिद्धि के लिए बहुत सारे तर्क हैं - १. अन्य बौद्धादि आगमों में, हम और आप - दोनों को रचयिता पुरुष
के अभाव का ज्ञान नहीं है, इसलिए उन आगमों को हम पौरुषेय समझ सकते हैं । जबकि वेद में आपको रचयिता पुरुष के अभाव का ज्ञान नहीं होने पर भी हमें तो वह ज्ञान है ही। यह दोनों में विशेष अन्तर
है । इसलिए वेद को हम अपौरुषेय गिनते हैं । २. वेद नित्य हैं, उनकी सत्ता अनादिकालीन है - इस बात को भी हम
वेदरचयिता पुरुष के अभावज्ञान की उत्थापक समझ सकते हैं । ३. वर्तमानकाल जैसे वेदकर्ता से शून्य है, उस तरह अतीत और अनागत ___ काल भी वेदकर्ता से शून्य ही होने चाहिए - इस अनुमान से भी वेद
को अपौरुषेय सिद्ध कर सकते हैं । ४. वेद पौरुषेय हैं, उनका कर्ता कोई पुरुषविशेष हैं - ऐसा उल्लेख भी
वेद में नहीं है। ५. वेद में ऐसे अर्थ दिखाये हैं जो अतीन्द्रिय हैं, यह बात भी उनकी
अपौरुषेयता की ही पोषक है । ., उत्तरपक्ष - गहराई से सोचने पर अपौरुषेयत्व की सिद्धिहेतु आपके द्वारा प्रस्तुत ये सभी तर्क मिथ्या प्रतीत होते हैं - १-२. आपको वेद में रचयिता पुरुष के अभाव का जो ज्ञान है, वह वास्तव
में अभाव है इस हेतु से नहीं हुआ है, किन्तु साङ्केतिक है । यानी आपको अपनी परम्परा के प्रति भक्ति से यह वासना बन गई है कि वेद में कर्ता पुरुष का अभाव है व वे नित्य हैं । वास्तव में मात्र ऐसी पारम्परिक वासना के बल पर हम कुछ भी सिद्ध नहीं कर सकते । क्योंकि हर वादी को अपने माने हुए सिद्धान्तों पर ऐसी भक्तिजन्य