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जून - २०१७
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द्वित्रिक्षणस्थायिरूपादिसमवायिकारणे एवेति न व्यभिचारः । तदुक्तं पूर्वपक्षव्याख्यायां बृहत्परिमाणस्याद्वादरहस्ये - घटादिकालीनसंयोगादिध्वंसे व्यभिचारवारणाय प्रतियोगितया इति ।"
आ टिप्पणीमां बे वात विचारणीय छ -
१. उपर जोयुं तेम परिष्कार कर्या पछी व्यभिचार नथी ज रहेतो अटले व्यभिचार- वारण करी ज शकाय छे. वारण अशक्य नथी. तेथी 'व्यभिचार- वारण करवू असम्भवित छे' ओवी आपत्ति बराबर नथी.
२. न्यायशास्त्रना सामान्य अभ्यासीने पण ख्यालमां होय ज के जे वस्तुनो नाश थाय ते ज वस्तु ते नाशनी प्रतियोगी गणाय. अने नाश प्रतियोगितासम्बन्धथी ते ज वस्तुमां रहे. पण भानुमतीकार घटरूपादिना नाशने प्रतियोगितासम्बन्धथी घटरूपादिमां नहि, पण घटरूपादिना समवायी कारण घटमां स्वीकारे छे. केम के तेओ कहे छे - "वस्तुतस्तत्र रूपादौ प्रतियोगितासम्बन्धेन ध्वंस एव नाऽभ्युपगम्यते, किन्तु द्वित्रिक्षणस्थायिरूपादिसमवायिकारणे एव ॥" आ विधान समजवं मुश्केल छे. कारण के जो घटरूपादिनाश प्रतियोगितासम्बन्धथी घटरूपादिमां नहीं, पण घटमां स्वीकारीओ, तो ओ नाशनो प्रतियोगी घट बने, घटरूपादि नहीं, अने तो ओ नाश घटरूपादिनो नाश गणाय ज कई रीते ? ।
वळी, भानुमतीकारे स्वमतना समर्थनमा बृहत्स्याद्वादरहस्यनो जे पाठ टांक्यो छे, ते पाठ पोते त्रुटित छे अने सम्पादननी क्षतिने लीधे अशुद्ध पण बन्यो छे. बृहत्स्यादवादरहस्य (कर्ता - उपाध्याय श्रीयशोविजयजी, सं. - श्रीजयसुन्दरसूरिजी)मां आ पाठ आम छपायो छे - "घटादिकालीन-संयोगादिध्वंसे व्यभिचारवारणाय 'प्रतियोगितया' । स्वप्रतियोगिसमवेतत्व-स्वाधिकरणत्वोभयसम्बन्धेन नाशवन्नाशत्वावच्छिन्नस्य हेतुत्वावश्यकतया..." आ पाठ अर्थसङ्गतिनी दृष्टिले देखीती रीते अशुद्ध छे. पूर्वे आपणे कार्यकारणभावनी जे चर्चा करी तेना आधारे आने सुधारवो होय तो आम सुधारी शकाय : "०वारणाय प्रतियोगितया स्वप्रतियोगिसमवेतत्वस्वाधिकरणत्वोभयसम्बन्धेन नाशवन्नाशत्वावच्छिन्न [एव स्वप्रतियोगिसमवेतत्वेन नाशत्वावच्छिन्न]स्य हेतुत्वावश्यकतया..." आ सुधारो फक्त अर्थसङ्गतिना आधारे पण शक्य छे ज. पण तेना माटे अन्य