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अनुसन्धान-७२
ही ऐसा कभी देखा नहीं जाता । यदि ऐसा नियम होता तो उक्त अस्मरण के बल पर वेद को अकर्तृक सिद्ध कर सकते, पर ऐसा नहीं है ।
इस तरह सोचने पर वेद उत्पत्तिशील एवं पौरुषेय ही प्रतीत होते हैं, नित्य व अपौरुषेय नहीं ।
सन्मतितर्क की तत्त्वबोधविधायिनी वृत्ति में हुई वेद के अपौरुषेयत्व की चर्चा का सार उपर प्रस्तुत किया गया है । मूल चर्चा अतिशय विस्तृत है एवं कठिन-गहन तर्कजाल से मण्डित है । सारल्य व सङ्क्षेप हेतु उसमें से बहुत कुछ यहाँ छोड दिया गया है । तर्कों के प्रस्तुतीकरण में भी कुछ भिन्न परिपाटी अपनाई गई है । लेकिन यह सब करते वक्त मूल चर्चा के हार्द को हानि न पहुचे इसका यथाशक्य ध्यान रखा गया है । प्रारम्भिक विद्यार्थी एवं जिज्ञासुगण लाभान्वित हो ऐसी दृष्टि मुख्यतया रखी गई है। अधिक गहराई से जानने हेतु मूल चर्चा अवलोकनीय है ।
वेद के अपौरुषेयत्व को विषय बनाकर जैन प्रमाणग्रन्थों में और अन्य अनेक जैनशास्त्रों में चर्चा का उपन्यास हुआ है । कहीं वह चर्चा अतिसक्षिप्त है, तो कहीं अतिविस्तृत । चर्चा के मुख्य पहेलू तो वहाँ वे ही हैं जो सन्मतितर्कवृत्ति में हम दिखते हैं। फिर भी हर ग्रन्थकर्ता की ओर से उसमें कुछ न कुछ तो संजोया गया ही है। एक ही बात शैलीवशात् कितने विभिन्न रूपों में परिवर्तित होती है यह हमें इन चर्चाओं से ज्ञात होता है । उसमें भी न्यायदर्शन की इस विषय की चर्चा में तो कुछ और ही निखार आया है । यद्यपि यह लेखश्रेणी तत्त्वबोधविधायिनी पर ही अवलम्बित है एवं सारल्य व सड्क्षेप को हानि न पहुंचाते हुए चर्चा प्रस्तुत करना यही इसका उद्देश्य है, इसलिए ग्रन्थान्तरगत चर्चाओं का सारदोहन यहाँ नहीं दिया गया; तथापि प्रारम्भिक स्तर पर इस विषय में जो जानकारी होनी चाहिए वह यहाँ मिले ऐसा प्रयास अवश्य किया गया है ।
बेङ्गलूरुनगर-स्थित 'संस्कृतभारती' संस्था से ई. २००१ में एक पुस्तिका प्रकाशित हुई है, जिसका नाम है – ऋणविमुक्तिः । एच्. वी.