Book Title: Anusandhan 2017 07 SrNo 72
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 114
________________ जून - २०१७ १०७ पारम्परिक वासना होती ही है। यदि हम उसको ही प्रमाणभूत मानने लगेंगे तो आपके मत से प्रतिकूल हो ऐसी बहुत सारी बातें सिद्ध होने की आपत्ति आएगी । ३. वेद से इतर बौद्धादि आगमों का भी वर्तमानकाल तो कर्तृशून्य ही देखा जाता है । इसलिए समान हेतु से अन्य आगम में भी अतीतानागतकालीन कर्तृशून्यता सिद्ध होने की आपत्ति आएगी । फलतः, वे आगम भी अपौरुषेय सिद्ध होंगे, और उन्हें भी प्रमाणभूत गिनने की आपको आपत्ति आएगी । इससे बचने के लिए आपको उक्त अनुमान छोडना ही होगा। ४. 'वेद पौरुषेय हैं' ऐसा कोई वेदवचन यदि नहीं है, तो 'वेद अपौरुषेय हैं' ऐसा वेदवचन है क्या ? यह भी उल्लेखनीय है कि आप वेद में भी जो विधिवाक्य हैं केवल उन्हीं. को प्रमाण मानते हैं, अनुवादपरक वेदवाक्यों को प्रमाण नहीं मानते । यदि उनको भी प्रमाण मान ले तब तो वेद पौरुषेय सिद्ध होंगे । जैसे कि - वेदकर्ता के सूचक अनेक वचन उपलब्ध होते हैं - * हिरण्यगर्भः समवर्तताऽग्रे । * तस्यैव चैतानि निःश्वसितानि । * याज्ञवल्क्य इति होवाच । ऐसे वेदवाक्यों से हिरण्यगर्भ, याज्ञवल्क्य आदि ऋषिमुनिओं की वेदकर्तृता स्पष्टतः सूचित होती है। अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रतिपादन तो अन्य आगमों में भी है, तो भी उनको आप अपौरुषेय नहीं मानते । तो वेदों में ही अतीन्द्रिय अर्थों के प्रतिपादन से उनको अपौरुषेय मानने में विनिगमक क्या है ? | अन्य वादी अतीन्द्रिय अर्थों के द्रष्टा पुरुष के द्वारा उनका प्रतिपादन स्वीकार करते ही हैं, तो आप क्यों वैसा नहीं कर सकते ? । मीमांसक - हमारा आशय आप समझ नहीं पाये । हम यह कहना चाहते हैं कि ऐसा कभी नहीं हुआ कि पहले किसी ने वेदों की अभिव्यक्ति

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