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तत्त्वबोधप्रवेशिका - ३ वेदों का अपौरुषेयत्व
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय यद्यपि भारतीय दर्शनधारा के साङ्ख्य-योग, न्याय-वैशेषिक तथा मीमांसा और वेदान्त ये सभी प्रस्थान वेद के चरम प्रामाण्य को स्वीकार करते हैं, तथापि इनमें वेद के पौरुषेयत्व (-पुरुषकर्तृकत्व) तथा अपौरुषेयत्व को लेकर मतभेद है । वेद के रचनाकार के रूप में किसी व्यक्ति का स्वीकार वेद का पौरुषेयत्व है। इससे विपरीत वेद के रचनाकार के रूप में किसी व्यक्ति को न मानना अपौरुषेयत्व है ।
वेद किसी प्राकृत पुरुष की रचना नहीं है, यह तथ्य सभी वैदिक प्रस्थानों में समान रूप से माना गया है। न्याय-वैशेषिक वेद को ईश्वर के वचन के रूप में मानकर ही उसके सर्वोपरि प्रामाण्य को स्वीकार करते हैं। इस सिद्धान्त में वेद का प्रामाण्य अभिमत होने पर भी उसका प्रामाण्य ईश्वरप्रणीतत्व पर ही अवलम्बित होने से तत्त्वतः ईश्वर का प्रामाण्य वेद से अधिक सिद्ध होता है।
___साङ्ख्य-योग दर्शन में वेद शब्दरूप हैं । शब्द तन्मात्रा है, यह अहङ्कार से उत्पन्न होता है । अतः इस मत में वेद को जन्य-अनित्य मानने पर भी किसी पुरुष की रचना न होने से अपौरुषेय माने गए हैं ।
मीमांसा के पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा (वेदान्त) सम्प्रदाय यद्यपि समान रूप से वेद को अपौरुषेय मानते हैं, तथापि दोनों की वेदविषयक मान्यता में अन्तर है। वेदान्त का अद्वैतवादी प्रस्थान "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" के सिद्धान्त के आधार पर ब्रह्मभिन्न वेद को ब्रह्म का विवर्त ही मानता है, मतलब कि वेद उत्पन्न होने से अनित्य ही है । जब कि पूर्वमीमांसा दर्शन में वेद को सर्वथा कारणरहित मानकर उनकी नित्यता स्वीकृत की गई है।
वेदों को पौरुषेय माननेवाले न्याय-वैशेषिकों एवं बौद्ध-जैन जैसे अवैदिकों के द्वारा वेदों के अपौरुषेयत्वपक्ष का प्रबल खण्डन किया गया