Book Title: Anusandhan 2017 07 SrNo 72
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 109
________________ १०२ अनुसन्धान-७२ है । सन्मतितर्क की तत्त्वबोधविधायिनी वृत्ति में प्रारम्भ में प्रामाण्यवाद की चर्चा करने के बाद वेदों के अपौरुषेयत्व पक्ष की कडी समालोचना की गई है। इस चर्चा में पूर्वपक्षी मीमांसक वेद के अपौरुषेयत्व का पक्षधर है, जब कि जैनमत की ओर से उत्तरपक्ष के रूप में वेदों का पौरुषेयत्व सिद्ध किया गया है। इस चर्चा का अवलोकन करने से पूर्व यह समझना जरूरी है कि मीमांसकों ने वेद को अपौरुषेय गिनना क्यों जरूरी समझा । मीमांसादर्शन की समग्र प्रक्रिया मूलतः वेदवाक्यों पर अवलम्बित है । अतः वेदों को सर्वथा प्रमाणभूत निरूपित करना उसके लिए अनिवार्य था । यह प्रमाणभूतता तभी सम्भवित थी कि जब वेदों को पूर्णतः निर्दोष सिद्ध किया जाय । दूसरी ओर मीमांसकों की दृष्टि में समूचे विश्व में त्रिकाल में भी न तो कोई पुरुष सर्वथा निर्दोष हो सकता है और नहीं कोई कृति भी, जो पुरुषजन्य हो वह, दोषमुक्त रह सकती है। वह भी इसलिए कि जब पुरुष दोषयुक्त हो तो उसकी रचना में भी उन दोषों की वजह से दुष्टता आए यह बिल्कुल स्वाभाविक बात है। इस समस्या से बचने के लिए मीमांसकों ने वेद को किसी पुरुषविशेष की रचना न मानकर अपौरुषेय ही स्वीकार किया । यद्यपि न्याय-वैशेषिक दर्शनकारों ने भी वेदों को किसी प्राकृत पुरुष की रचना न मानकर सर्वज्ञ ईश्वर के वचनों के रूप में ही उसका प्रामाण्य स्वीकृत किया है । तथापि मीमांसादर्शन अनीश्वरवादी होने से उसमें वेदप्रणेता के रूप में ईश्वर का स्वीकार कतई सम्भवित नहीं है । वह तो कोई भी पुरुष सर्वज्ञ हो सकता है व उस सर्वज्ञ के वचन स्वयं प्रमाणभूत हो सकते हें इस बात का ही कडा प्रतीकार करता है । और तब तो वेद सर्वज्ञप्रणीत हो यह बात सम्भवित ही नहीं हो सकती । तात्पर्यतः मीमांसकों ने वेदों को नित्य, अनुत्पत्तिशील, शाश्वत एवं स्वयं-प्रमाणभूत घोषित किये हैं ।। मीमांसकों का स्वतः प्रामाण्य का सिद्धान्त यहीं फलित होता है । वेदों में जो प्रामाण्य उत्पन्न होता है वह ईश्वरप्रणीत होने की वजह से है और उस प्रामाण्य का ग्रहण भी ईश्वरप्रणीतत्व के सापेक्ष रूप में होता है यह परतः प्रामाण्यवादी वैदिकों का पक्ष है । इसके विरुद्ध स्वतः प्रामाण्य के पक्षधर

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