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ओक्टोबर-२०१६
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स्वभाव से विकार रहित प्रशान्त सौम्य दृष्टि युक्त और पुष्ट कान्तिवाला मुनि का मुख कमल की तरह अतीव सुशोभित हो रहा है। ___ जैसे बौद्ध मातृचेट लेखकने २वीं शती में बुद्ध की आत्मीयता की प्रशंसा की है । सुन्दर है क्योंकि शान्तिपूर्व है ।
'उपशान्तं च कान्तं च... इदं रूपं कमिव नाक्षिपेत् ?' (अध्यर्धशतक ५२).
'बृहत्संहिता' के प्रतिमालक्षण अधिकार में ७वीं शती में वराहमिहिर ने बुद्ध और जिन की प्रतिमाओं का एक जैसा वर्णन किया है । बुद्ध को 'प्रसन्नमूर्ति' तथा जिन को 'प्रशान्तमूर्ति' कहा है।
'पद्माङ्कितकरचरणः प्रसन्नमूर्तिः सुनीचकेशश्च । पद्मासनोपविष्टः पितेव जगतो भवेत् बुद्धः । आजानुलम्बबाहुः श्रीवत्साङ्कः प्रशान्तमूर्तिश्च । दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽर्हतां देवः' ॥ (५८.४४-४५).
वास्तव में बौद्ध और जैन की प्राचीनकाल की मूर्तियाँ एक दूसरे से बहुत मिलती-जुलती हैं । जिनप्रतिमा के सौन्दर्य को लेखकों ने वर्णन किया है। देखनेवाले पर उसका गहरा प्रभाव पड़ता है। इसमें इतनी शक्ति होती है कि दार्शनिक सिद्धसेन ने अपनी 'दूसरी द्वात्रिंशिका' में रेखाङ्कित किया है कि जिन की प्रतिमा को देखना आत्मसिद्धि का प्रधान साधन उपाय है ।
"तिष्ठतु तावदतिसूक्ष्म-गभीर-गाधाः संसार-संस्थिति-भेदः श्रुतवाक्यमुद्राः पर्याप्तमेकमुपपत्तिसचेतनस्य रागार्चिषः शमयितुं तव रूपमेव (२.१५)
‘Never mind your profound and subtle doctrines that destroy the agonies of rebirth-Just the mere sight of your form alone is enough to still the fire of passion in a receptive soul.' (दे० Granoff २०१२)