Book Title: Anusandhan 2008 06 SrNo 44
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 5
________________ होवा छतां, साव बालिश कारणोसर ज, ते पोताने के कोई अभ्यासीने नहि मळतां होवानी फरियाद पण तेओ न करी शके; संशोधननी आ स्थिति छ, जे साबित करे छे के परम्परा साथेना विवादमा तेणे हारवार्नु ज होय छे. आम छतां, संशोधन हारतुं नथी; अर्थात्, पोतानी आगेकूचने थंभावी देतुं नथी. ते तो, विज्ञाननी जेम ज, संशोधनीय बाबतो परत्वे नवी नवी शोधो करतुं रहे छे, नवां नवां तारणो काढतुं ज रहे छ; अने ज्यारे पण ते बाबत परत्वे नवां अने वधु विश्वासार्ह के वधु वास्तविक प्रमाणो जडी आवे त्यारे, ते, पोतानां पूर्वनां तारणोमां फेरफारो पण करतुं रहे छे. संशोधन ए एक एवी विद्या छे के जे समाज के तेनी स्वीकृतिनी मोहताज नथी. तेनामां रहेली सत्यता ज तेने व्यापक प्रतिष्ठा अपावशे तेवी तेने श्रद्धा होय छे, अने तेथी ज निरांत पण. गुजरातनो नजीकनो भूतकाळ संशोधनक्षेत्रना धुरन्धरोथी छलकातो काळ हतो. विद्याना विविध विषयोने पोतानी प्रचण्ड मेधाशक्ति वडे आलोकित करनारा ए विद्वज्जनोनी एक आखी हारमाळा पसार थई गई. हवे ए माळाना बे चार अवशिष्ट मणका जेवा वृद्ध विद्वानो विद्यमान छे, अने ढळती उमरे पण ते लोको पोताना विषयो अंगे संशोधनात्मक अध्ययन करी ज रह्या छे. परन्तु बहु ज झडपथी, ए सहु पण काळना प्रवाहमां विलीन थशे त्यारे, त्यार पछी, ए विद्वद्-हारमाळाना स्मरण सिवाय, संशोधन-तज्ज्ञ जेवू, आपणी पासे कशुं बचशे के केम ? ए प्रश्न पण ओछो कठिन नथी ज. संशोधन अने संशोधकवर्गनी, समाज तथा परम्परा द्वारा, थती-थयेली अवगणनानुं ज आ परिणाम हशे ? - शी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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