Book Title: Anusandhan 2006 02 SrNo 35 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 9
________________ अनुसन्धान ३५ 'उपकारमां निरत होवा छतां दीनपणे प्रार्थना करता-याचता एवा मने निर्वृति नथी आपता? छेल्ले कवि कहे छे, नेत्ररूपी दलथी अने पक्ष्म (पांपण)रूपी केसरथी सुशोभित एवा आपना मुखकमलमां मारां लोचनरूपी बे भमरा सदा लावण्यरसने पीधा करो. अने हे नाथ ! आप ज मारा मात-तात-बन्धु-मित्र-स्वजन छो, शरण अने गति पण आप ज छो अने भवे भवे आप ज हो !" आ रीते दरेक गाथा भगवंत प्रत्येनी भक्ति तथा प्रार्थनानी भरेली छे. कविए अत्यन्त सुन्दर रीते व्यथा-याचना-दीनता-अधिकार-भक्ति वगेरे भावोने प्रगट कर्या छे. मूळे प्राकृत भाषा मधुर छे. तेमां कविनी शैली प्रासादिक छे. पदलालित्य पण मनोहर छे. महाकवि धनपालनी ऋषभपंचाशिकाने याद अपावे तेवी चमत्कृति पण जोवा मळे छे. आवी एक उत्तम कृति विद्वज्जनो समक्ष मूकतां हुं आनन्द अनुभवू वीतरागविनति ॥५०॥ जय भवतिमिरदिवायर ! गुणसायर ! सिद्धसासण ! जिणिंद ! । सिवपुरपत्थियसंदण ! दुहखंडण ! मुणिवइ ! नमो ते ॥१॥ अइभत्तिसमावेसेण नाह ! पुरओ ठियं व पिच्छंतो । पणइक्कवच्छल तुमं भवद्दुओ मं(ह)भव(?) किं पि पत्थेमि ॥२॥ जइ वि हु सोवालंभं साहिक्खेवं च किं पि जंपतो । बालो व्व तिलोव(य)पियामहस्स तुह विनवेमि अहं ॥३॥ तह वि पसीइज्ज जओ उव्वेयणिज्जा न हुति पियराणं । बालाण समुल्लावा विसेसओ विसमवडियाणं ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 98