Book Title: Anubhutsiddh Visa Yantra
Author(s): Meghvijay
Publisher: Mahavir Granthmala
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॥ श्रीरावण पार्श्वनाथस्तवम् ॥
अर्थः- जाणे ते सीताना वृत्तान्तथी प्रगट धयेला अन्यायथी हे भगवन् निश्चय आ नगरनो भंगज थशे ओम जाणीने तमो ते स्थळे न रह्या, तेथी तेणे सेवाने माटे पृथ्वीमां रावण नामनुं नगर वसाव्युं, अने तेनी पासे इन्द्रजीत नामना पुत्रे पोताना कर्म वडे ( पोतानी इच्छा वडे) इन्द्रप्रस्थ नामनुं नगर वसाव्यं ॥ ५ ॥
तत्तीर्थं प्रथितं पुराणकथितं त्वत्संज्ञयैव प्रभो ॥ लोकाभ्यर्थनयार्थसार्थयुगपद्दानेन देवार्चितम् ॥ श्रीवामेयममेयमेवभवताद्बुद्धिर्भवेत्सेवने ।
यस्याश्चक्रिरमा रसेन परमा वश्याभवेदाभवम् ॥ ६॥
अर्थ:- तेथी लोकनी प्रार्थना वडे लोकना वांछितार्थना समूहने समकाळे - शीघ्र पूर्ण करवाथी हे प्रभु ! देवोने पण पूजनीक अवुं ते नगर तारा नामवडेज तीर्थ रूपे प्रसिद्ध थयुं, अने पुराणमां - शास्त्रमां पण तेनुं वर्णन लखायुं. ओवा तीर्थमां रहेला ते श्री वामेय = पार्श्व प्रभु के जे अमेय = अपार महिमा वाळा छे तेमने सेववाथी बुद्धि-ज्ञान लक्ष्मी प्रगट थाय छे तेमज जे सेवा थी चक्रवर्तिनी पण उत्कृष्ट लक्ष्मी हर्ष सहित संपूर्ण भवपर्यन्त पोताने वशवर्ती थाय छे. ॥ ६ ॥
त्वज्जन्मन्यमृतं जगत्समभवद्दुः खोपशान्तेर्जने ।
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सा कल्याणमयी तदामृतरसैः वृष्टिः सुरैर्निमिता ॥ विस्तीर्ण जिनशाशनं तवगिरा यत्रामृतस्थापना । लोकेनामृतमस्ति तेनसुलभं देवप्रमादोदयात् ॥ ७ ॥
अर्थ:- जे वखते हे प्रभु ! तमारो जन्म थयो त्यारे लोकमां दुःखनी शान्ति थवाथी आ जगत अमृत ( मरणादि दुःख रहित ) थयुं ते वखते देवोओ पण कल्याणकारी ओवी ते अमृत रसनी वृष्टि करी, तेमज तारूं विस्तीर्ण अबुं जिनशासन के जेमां त्हारी वाणी वडे अमृतनी स्थापना थयेली छे ( अर्थात् जिनशासनमां तारी वाणी रुप अमृत सदा विद्यमान छे), तेथी लोकमां हे देव ! प्रमादना उदयथी अमृत मळवं सुलभ नथी. (कारण के अमृत तो सघकुं श्री जीनेन्द्रनी वाणीमांज बसेलुं छे [ तो लोकां बीजे क्या मळे ! ] ॥ ७॥
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