Book Title: Anubhutsiddh Visa Yantra
Author(s): Meghvijay
Publisher: Mahavir Granthmala

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Page 41
________________ ॥ श्रीअर्जुनपताका ॥ २७ यस्त्रिस्थानिका दिग् १ विदिग् २ परिधिसव्य ३ तदितर ४ गतया श्चतुस्थाने काद्वादशकयंत्रे काचिद्गति स्त्रिभिहैः काचिद्वाभ्या मेवगृहाभ्या मित्यादि विस्तरो गंगाप्रवाह ग्रंथाद्वेद्यः एवं दश समानानामिव दशांकानामपि सावयँ । ज्ञेयं तत एव चूडामाण शास्त्रे अक्षरेषु अंकन्यासः लिपिभेदे अंकै रेव वर्णभावणात् वक्त तस्क्त यंत्राणां गति वैचित्र्य भेवमत्वा संतोष्टव्यं न शास्त्र विरोध योधैर्भाव्यं अनन्यगतिकत्वात् ॥ इति नवग्रह यंत्रं विंशतवर्तमानाऽभयद जयद सेवा सक्तदेवानुषक्तम् ॥ विजयविधिनिधानं तर्जनं दुर्जनानाम् । भवतु विभवहेतुः केतु वार्जुनस्य ॥१॥ प्राचीनानूचान-स्त्रिभागदाना दिहैक शेषेपि॥ कृत ४ गुण ३ यंत्रं रचितं । ख वाणह यंत्रं द्वयशेषे ॥२॥ तन्मार्गानुगतधियो-पाध्यायपदस्थ मेघविजयेन ॥ विहरज्जिनयंत्रमिह । स्फुटीकृतं विजयकरं ॥३॥ अर्थः-अहिं [५ नो लोप करी ६ स्थापवामां] केटलाकनो अवो आग्रहरुप कलेश छे के अनुक्रमे प्राप्त थयेला अंकनो लोप कर्याथी पुनः कार्यसद्धि थाय अम न जाणवू, केमके-प्रसक्तादर्शनं लोपः = प्राप्त थयेलानुं अदर्शन-अदृश्यपणुं ते लोप, अने ते लोप थये छते पण जो ते लोप थयेला वडे अर्थ थतुं होय [ अटले लोप थयेलो अक्षर पण जो पोतानुं कार्य करी शकतो होय ] तो कानि सन्ति इत्यादि वाक्योमा * य् * सान्ति मां अस् धातु छे परन्तु अस् धातुने अन्ति प्रत्यय लागतां असूना अकार नो लोप थवाथी कानि सान्त वाक्य थयुं, जो असूना अ नो लोप न थात तो कानि+ असन्ति ओ बेनी संधि थात, अने संधि थती वखते नि मां रहेला इकारनो अग्रे आवेला अकार थी ) य् कार थात, जेथी कानि+असन्ति-कान्यसान्त अq वाक्य थात, परन्तु असूना अ नो लोप थवाथी इनो य कार थयो नहि.-इति तात्पर्यः Aho! Shrutgyanam

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