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या जानो हुई वात को वढा चढाकर वा स्वरूप देने की और सुनी हुई बात को, जैसे अपनी प्रांवो में देखी हो इस तरह विस्तृत स्वरूप देकर-कहने की मानव की आदत अनादिकाल मे चली आ रही है। इस वृन के पीछे अपना महत्त्व स्थापित करने की बहभाव जन्य इच्छा छिपी रहती है। ___जो मनुष्य मिर्फ 'भौतिक सुख की ही लालसा में मग्न रहता है वह ऐसे किसी न किमी अवधूत के पीछे अवश्य लगा रहता है। निद्ध माने जाने वाले के आगे-पीछे बडी सल्या मे मानव-समूह एकत्रित हो जाता है। यह समूह उम सिद्ध पुरुप की भक्ति, जो सिर्फ खुशामद का ही एक रूप होता है, करना शुरू कर देता है। अपनी गामद करते हुए मानव-समूह को देखकर अपन आपको सिद्ध मानने वाला 'अव अपना विकाम पूर्ण हो गया है और अब कुछ भी करना वाकी नहीं रहा' यो समझने लगता है। असीम बुद्धिगालो वर्ग, महान् योगी और वैज्ञानिको की जब ऐसी दशा हो तव भला माधारण जनसमुदाय का तो कहना ही क्या ?
हमारे देश मे, अध्यात्मिक तथ्य के विषय मे आज दो विभाग प्रतीत होते है। एक वर्ग 'जन्मजात श्रद्धा' को ही परंपरा से मानकर, पहले से जैसा चला आ रहा है उसे अपनाता है। दूसरा वर्ग 'बुद्धिप्रधान और आधुनिक शिक्षा प्राप्त किये हुए लोगो का है। विश्लेषण करने पर मालूमहोगा कि इन दोनो वर्गों के बीच कोई बडा भेद नही । _ 'जन्मजात श्रद्धावाले' वर्ग मे जिस तरह अनेक मतमतातर है ठीक उसी तरह इस सुरक्षित एव बुद्धिशाली माने जाने