Book Title: Anekant va Syadvada
Author(s): Chandulal C Shah
Publisher: Jain Marg Aradhak Samiti Belgaon

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Page 413
________________ ३६५ 'समुद्र ने नदियो को अपने मे समा लिया ।' स्यादवाद का सिद्धान्त ऐसा ही एक महासागर है, श्रुतसागर है । इसमे आकर मिल जाने वाले सत् के शो मे से इसका जन्म या निर्मारण नही हुा है | इसके विपरीत, स्वयं स्यादवाद ने ही सत् के भिन्न भिन्न अशो और स्वरूपो को खोल कर और पृथक् करके बताया है । सभव है कि, इनमें से एक एक अश को लेकर दूसरे दर्शन रचे गये हो । जैन दर्शन बाद मे श्राया या पहले ग्रर्थात् अन्य दर्शनो के उद्भवकाल के पूर्व भी था - यह लेखक इस प्रश्न को महत्त्वपूर्ण नही मानता। क्या इतना ही पर्याप्त नही है कि गुणवत्ता की दृष्टि से जैन तत्त्वज्ञान सर्वोत्कृष्ट है । फिर भी ऐतिहासिक सास्कृतिक एव सहित्य विपयक प्रमाण इतनी बडी सख्या मे ग्रन्यस्थ हुए है कि उन्हे देखकर इस विषय मे कोई मतभेद नही रहता कि जैन तत्त्वज्ञान प्रति प्राचीन तत्त्वज्ञान है | वेदात दर्शन के प्राचीन ग्रन्थो मे जैनो के प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव का जो उल्लेख मिलता है उससे इतना तो सिद्ध होता ही है कि श्री ऋषभदेव उन ग्रन्थो की रचना के पूर्व थे 1 फिर भी मेरा नम्र सुझाव है कि 'कौनसा दर्शन पुराना है और कौनसा नया ? कौनसा पहले था और कौनसा वाद मे आया ?" - ऐसे व्यर्थ के विवाद मे पडने के बदले 'पूर्ण सत्य क्या है, और वह कहाँ पडा है ?" इसकी खोज करना ही इष्ट. मार्ग है । हुए प्राचीनकाल मे जो दर्जन एकागी थे, ज्ञान के विकास के साथ वृद्धि होती गई है । उनमे से अनेक मे वेदात तथा बौद्ध

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