Book Title: Anekant va Syadvada
Author(s): Chandulal C Shah
Publisher: Jain Marg Aradhak Samiti Belgaon

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Page 414
________________ ६३६ आदि मतो ने बाद मे चलकर अपनी मान्यताएँ वदली हैं और ऐसा करने से वे अनेकातवाद के निकट पाये है। जब कि अति प्राचीन काल से जो अनेकातवादी जैन दर्शन चला आ रहा है उसमे कोई परिवर्तन या वृद्धि नहीं करनी पडी। पूर्व और पश्चिम के कुछ गण्यमान्य विद्वानो ने जैन दर्शन की मौलिकता को स्वीकार किया है जव कि अन्य मतो के विषय मे ऐसी निश्चित राय देखने को नहीं मिलती। अनेकान्तवाद का सिद्धान्त तथा उसका तत्त्व निरूपण मूल से ही पूर्ण होने के कारण अटल तथा निश्चल रहे है । इसमे किसी प्रकार का परिवर्तन करने की आवश्यकता ही उपस्थित नहीं हुई । इस तथ्य को देखते हुए, जिसे 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' कहा जाता है-वैसा पूर्ण सत्य दुनिया में एक मात्र अनेकान्त-तत्त्वज्ञान में ही है।

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