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ससार को सर्वथा मिथ्या ही माना जाय तो फिर, जिसे वास्तविक (सत्य) कहा जाता है, उस ब्रह्म के साथ उसका सम्बन्ध हम किस प्रकार से स्थापित कर सकते है, ठीक उसी तरह, जट और चेतन को एक दूसरे से बिलकुल भिन्न माना जाय तो फिर एक का प्रभाव दूसरे पर भला हम कैसे कर सकते है
पडेगा ऐसी उम्मीद
?
यदि जगत परिवर्तनशील है तो फिर वह ब्रह्म भी, जिसमें से वैदिक तत्त्वज्ञानियों के मतानुसार जगत उत्पन्न हुआ है, परिवर्तनशील होना चाहिये । यदि ऐसा न हो तो एक नित्य श्रीर अपरिवर्तनशील ब्रह्म से ग्रनित्य और परिवर्तनशील जगत की उत्पति भला कैसे हो सकती है ?
एकात नित्य से श्रनित्य या एकात श्रनित्य से नित्य का स्वतन्त्र उद्भव ग्रसभव है' जैन तत्त्वज्ञानियों ने इस बात पर वडा जोर देकर सदिग्धता से कहा है । यह बात बहुत समझने योग्य है । द्वैत अद्वैत और उसकी सभी शाखाओ से तथा क्षणिकवाद आदि सभी एकात तत्त्वज्ञानो मे हमे यह सव ज्ञान नही मिल सकता । क्योकि जैसे कि पहले कहा गया है, इन सबकी रचना एक लय (एकातज्ञान) के ग्राधार पर तथा ऐकातिक निर्णय द्वारा की गई है। उन सभी के सामने, मरोवरो के समूह के सामने गरजते हुए महासागर की भांति जैन तत्त्वज्ञान का श्रनेकातवाद खडा है । उसकी समझ हो सच्ची समझ है । इस बात को स्वीकार करने मे ग्रव भला कौन-सी आपत्ति है ? सच पूछा जाय तो किसी प्रकार की आपत्ति न होनी चाहिये ।