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३१४ लेती है, क्योकि "यदि 'जड' माने 'मैं' तो 'मैं' को भोगना क्या? हम अपने आत्मा को नहीं भोगते ।"--ऐसा ज्ञान होता है । तव जगत के सभी प्रात्मानो के साथ एकत्व अनुभव करने की जो बात जैन दार्गनिक कहते है, वह सापेक्ष है, और ऐकान्तिक नही है । 'आत्मसमदर्शिता' आत्मा के विकास का अनिवार्य साधन होने के कारण सभी आत्मानो मे अपनापन अनुभव करना निरपेक्ष अद्वैत नही है।
जिस जिस के विषय मे 'मेरेपन' के सस्कार उद्भूत होते है उन सव को 'मेरे' अर्थात् 'मै' मान कर चलने मे सापेक्ष दृष्टि से कोई उज्र नहीं है। 'ये सब मेरे नही है। ऐसा मान कर चलने की अपेक्षा 'ये सब मेरे ही हैं' ऐसा मान कर चलना मन का उच्च सस्कार है। कर्म के बन्धनो से मुक्त होने के लिये प्रात्मा के लिये प्रात्मा के पुरुपार्थ मे अपने प्रात्मा की तरह सव पर अपनेपन का-'अात्मसमदर्शिता' का भाव वडे महत्त्व का स्थान रखता है।
इस सापेक्ष अद्वैत की चर्चा को अब हम आगे बढाते है। एक बात निश्चित कर ले कि इस जगत मे जो चेतन-स्वरूप जीव है, वे सभी मेरे है अर्थात् वे सभी "मै""यात्मा" है।
'मेरा तेरा और उसका' इस भाव की अपेक्षा यदि हम 'सभी मेरा' अर्थात् 'सभी मै' ऐसा भाव प्रकट कर सके तो 'राग-द्वेप' नामक दो मुख्य प्रात्म-शत्रुनो मे से एक 'वैप' की पराजय तो हो ही जाएगी। __इसलिए सापेक्ष दृष्टि से आत्मा का परिचय प्राप्त करते हुए हम यहाँ इस नतीजे पर पहुँचते है कि 'यात्मा' माने 'मैं' और 'मैं' अर्थात् 'समग्र विश्व' ।