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व्यवहार में भी हमे इस प्रकार की परिस्थिति देखने को मिलती ही है। एक उदाहरण लेते है
'देवजी भाई नामक एक सज्जन को नागजी भाई नामक दूसरे सज्जन ने व्यापार के लिये अपनी पचास हजार रुपये की पूजी उधार दी, और इस पूजी से देवजी भाई ने व्यापार शुरु किया । व्यापार करते करते यह पूजी सुरक्षित रहेगी, बढेगी या नष्ट हो जाएगी, इसका निश्चित उत्तर तो कोई नहीं दे सकता। ___'अव, देवजी भाई के पास अपनी पूजी नहीं थी अत देवजी भाई पूजीहीन है, और परायी पूजी उनके पास आने से वे पूजी वाले है, तथा उनके व्यापार का परिणाम भविष्यकाल की उनकी धीरज, चतुराई, उन्हे प्राप्त सहयोग तथा उनके प्रारब्ध-आदि अनेक अपेक्षाओ पर निर्भर होने के कारण आज यह नहीं बताया जा सकता कि यह पूंजी उनके पास सुरक्षित रहेगी या वढेगी या नष्ट हो जायगी। इन परिस्थितियो मे हमे एक सम्पूर्ण बात इस तरह ही कहनी पडेगी-"देवजी भाई के पास पूजी है, नहीं है, और कुछ नहीं कहा जा सकता।" उनके पास से नागजी भाई कभी भी अपनी पूजी वापस माँग सकते है-यह सभावना रूपी एक अपेक्षा भी इसमे निहित ही है।
सब, दूसरी ओर हम नागजी भाई की बात ले । पूजी उनकी अपनी है, इसलिए 'है'। उन्होने पूजी देवजी भाई को व्यापार करने के लिए दे दी है, इस कारण अब वह उनके पास नहीं है, अत 'नही है ।' देवजी भाई के पास यह पूजी पुन प्राप्त होगी या नहीं, यह बात तो देवजी भाई के व्यवसाय के प्रकार, विकास, सफलता-असफलता के अतिरिक्त उनकी