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होता है कि आत्मा यह वात भूल जाता है कि 'इसमे से छूटना चाहिये योर छूटा जा सकता है।' किये हुए कर्मों को भोगते भोगते उसकी छिपी हुई स्मृति ग्रवश्य वापस ग्राती है, याने वाद फिर चली भी जाती है, फिर लीट ग्राती है । यह क्रम श्रात्मा और कर्म के बीच चलते हुए ग्रनादि सघर्ष मे गोल-गोल घूमता ही रहता है ।
कभी कभी आत्मा जो चाहता है सो नही पा सकता, प्रयत्न करने पर भी नही पा सकता। उदाहरणार्थ, एक ही गुरु के दो शिष्य एक सा परिश्रम करने पर भी एक विद्वान् बन जाता है और दूसरा मूर्ख बना रहता है । दूसरे का परिश्रम कम नही है, फिर भी वह ज्ञान प्राप्त नही कर सकता । यहाँ उसे ज्ञान प्राप्त करने मे जो कर्म वाधा डालता है उसे जैनतत्त्ववेत्ताओ ने 'ज्ञानावरणीय कर्म' नाम दिया है । फिर भी ऐसा नहीं होता कि यह कर्म सदा-सर्वदा वाधा डालता ही रहे । उसकी समय मर्यादा का आधार आत्मा के पुरुपार्थ पर है ।
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कर्म का जो वर्गीकरण - ( Classification ) - जैनतत्त्ववेत्ताओ ने किया है उसमे कर्म के मूल ग्राठ भेद बताये है । उसके उपभेद १५८ है, और उपभेदो के उपभेद असख्य है ।
कर्म के इन आठ मुख्य प्रकारो मे से 'ज्ञानावरणीय कर्म' आत्मा के ज्ञान गुरण को ढकता है, प्रकट नही होने देता । सूर्य की अनुपस्थिति मे जिस प्रकार अमावस्या की अधेरी रात पृथ्वी पर काजल -सी काली चादर विछा कर बैठ जाती है, उसी तरह यह ज्ञानावरणीय कर्म ग्रात्मा के ज्ञान गुण को चारो ओर से ढक कर बैठ जाता है । इस कर्म की मात्रा न्यूनाधिक होती है । कभी वह आत्मा को बिल्कुल ज्ञान और मूढ बना