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व इसमें समझने योग्य एक विशेष बात तो यह है कि वैज्ञानिक प्रयोगशालाओ मे जो भी प्रयोग अथवा अन्वेपण कार्य हो रहे है उन सभी के पीछे सिर्फ ग्राकाशकुसुमवत् कल्पना । । ही नही है । इन सब के पीछे 'कुछ' है । हम जो कुछ भी जानते
हैं इससे विशेप 'कुछ' है इस कार्य कर रही है । 'कुछ है' उत्पन्न हुई
?
प्रकार की श्रद्धा दृढ रूप से ऐसी यह श्रद्धा भला कैसे
इस बात पर हमे अधिक सोच-विचार करना होगा, इसमे कोई सन्देह नही । एक बात तो निश्चित है कि कही न कही से उसका उद्गम अवश्य हुआ होगा । इस से यह सिद्ध होता है कि 'जो न दिखता था न समझ मे ग्राता था ऐसा 'कुछ' अस्तित्व में अवश्य था' इन सभी सशोधन कार्यों के लिये जिस प्रेरणा की आवश्यकता है उसकी प्राप्ति हमे उपर्युक्त अस्तित्व सम्बन्धी श्रद्धा से ही हुई, यह मानना ही पडेगा ।
इस श्रद्धा के बल पर प्रयोगशाला में कार्य करने वाले वैज्ञानिको को प्रयोग करते समय 'तर्क का हो सहारा' लेना पडता है। झूठे तर्क पर आधारित कोई प्रयोग जव असफल हो जाता है तो फिर से नये तर्क की सहायता लेकर उन्हे अपना कार्य नये सिरे से पुन प्रारम्भ करना पडता है । और जब वे यह कार्य करते-करते अपने उस भौतिक क्षेत्र मे शुद्ध तर्क तक श्रा पहुँचते है तब उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है ।
यह तो हुई भौतिक विपय से सम्बन्धित बात । इसी तरह जीवन के समस्त क्षेत्रो में, मनुष्य को शुद्ध तर्क का ग्राश्रय लेना ही पडता है । अपने ही मन की प्रयगश 1
द्वारा इस