Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 147
________________ २४. ५ कि.४ चामर है, और दूसरे के हाथ में कलश । शेष चार मूर्तियों अंकन हुमा है। बीवस्स से युक्त बाहुबली की केश रचना में से एक स्थानीय साहू जैन संग्रहालय मे है। यह मूर्ति गुच्छकों के रूप में निर्मित है, जिसने मध्य में उष्णीष बना पहले मंदिर १२ में थी। अन्य तीन उदाहरणों, में से दो है एक उदाहरण में बाहुबली के वाम पाश्र्व में नमन को मंदिर २ में हैं और एक मदिर ११ मे है। मुदा में सम्भवतः उनके अग्रज भरत का निरूपण हुमा है। ___ साहू जैन संग्रहालय को मूर्ति मे बाहुबली सामान्य उपयुक्त दोनों मूर्तियों में से एक मे बाहुबली के साथ दो पीठिका पर कायोत्सर्ग मे खड़े है, और उनके पैरों एवं अन्य तीथंकरों (शीतलनाथ पौर अभिनंदन) को भी हाथों में माधवी को लताएं लिपटी है। पैरों पर वृश्चिक मूर्तियाँ उत्कीर्ण है। दो तीथंकरों के साथ बाहुबली का पौर छिपकली तथा उदर पर सर्प प्रदर्शित है। बाहबली अंकन पुनः हमारी उपयुक्त धारणा का ही समर्थक की के रचना पीछे को पोर संवारी गयी है, और कुछ प्रमाण है। जटाएं कन्धों पर लटक रही हैं। सिर के ऊपर एक छत्र मंदिर ११ की तीसरी मूति १२वीं शती ई० को है। है, और पीछे की ओर प्रभामण्डल भी उत्कीर्ण है। ज्ञातव्य यह मूर्ति देवगढ और साथ ही अन्यत्र को भी जात है कि तीर्थकर मूर्तियों में सिर के ऊपर एक छत्र के स्थान बाहुबलो मूर्तियों में प्रदर्शित लक्षणों के विकास की परा. पर विछत्र के प्रदर्शन की परम्परा रही है। हरिवंशपुराण काष्ठा दरशाती है। इस मूर्ति में मंदिर २ की ऊपर एवं मादिपुराण जैसे दिगबर परम्परा के ग्रथों के उल्लेख विवेचित मूर्तियों को ही विशेषताएं प्रदर्शित हैं। केवल के अनुरूप ही इस मूर्ति मे दोनो भोर विद्याधारियों को दो चामरधर सेवकों के स्थान पर विद्यापारियों का प्रकन माकृतिया खड़ी है, जिनके हाथो में माधवी की छोर हना है, जिन्हें बाहुबली के शरीर से लिपटी माधवी का प्रदशित है। छोर पकड़े हुए दिखाया गया है। इस मूर्ति की प्रमुख मंदिर-२ को दोनो भूतिया ११वी शती ई० की है। विशेषता सिंहासन के छोरो पर द्विभुज गोमुख यक्ष पौर इन मूर्तियों में बाहनी के लक्षणों में एक स्पष्ट विकास यक्षी का प्रकन है। यक्ष पोर यक्षो का अंकन तीर्थकर परिलक्षित होता है। विकास की इस प्रक्रिया में बाहुबली मूर्तियों की नियमित विशेषता रही है। यहाँ परम्परा के के साथ तीर्थकर मूर्तियों की कुछ अन्य विशेषतायें प्रदर्शित विरुद्ध बाहुबली के साथ यक्ष और यक्षी युगल का निरूपण हुई। इनमे सिंहासन, चामरधर सेवकों, त्रिछत्र, देवदुन्दुभि, स्थानीय कलाकारों या परम्परा को अपनी देन रही है। उड़ीयमान मालाघरों तथा उपासकों से वेष्टित धर्मचक्र इस प्रकार कलाकार ने देवगढ में बाहबली को पूरी तरह मरूप हैं। धर्मचक्र एव उपासको के अतिरिक्त अन्य तत्त्व तीर्थकरों के समान प्रतिष्ठा प्रदान करने का कार्य इस मूर्ति तीपंकर मूर्तियों में प्रदर्शित होने वाले प्रष्टप्रातिहार्यों का के माध्यम से पूरा किया था। प्रग है। एक पोर महत्वपूर्ण बात यह रही है कि इनमें उपर्युक्त अध्ययन से यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि बाहुबली के दोनों पोर परम्परासम्मत विद्याधारियों को बाहवली मतियों के विकास की दष्टि से देवगढ़ की मूर्तियों प्राकृतियां भी नही बनी है। विद्याधारियों के स्थान पर का विशेष महत्व है। ये मूर्तियां बाहुबली के लक्षणों में चामरधर सेवकों की मूर्तियां बनी है जो, तीर्थकर मूर्तियों एक क्रमिक विकास दरशाती हैं । इस विकास की प्रक्रिया को एक प्रमुख विशेषता रही है। यह तथ्य पुनः हमारी मे बाहुबली की मूर्तियों में तीर्थकर मतियों के तत्व जड़ते इसी धारणा को पुष्ट करता है कि देवगढ़ में बाहबली को गये जिसे १२वी शती ई० में बाहुबली के साप यक्ष पोर पूरी तरह तीर्थंकरों के समान प्रतिष्ठा प्रदान की गयी। यक्षी पुगल को सम्बद्ध करके पूर्णता प्रदान की गयी। इसी कारण बाहुबली की मूर्तियों में तीर्थकर मूर्तियों की 000 विशेषताएं प्रदर्शित हुई दोनों उदाहरणों में बाहुबली व्याख्याता, कला इतिहास विभाग, कला संकाय, निर्वस्त्र पौर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं। हाथों और पैरों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय पर मता-बल्लरियों, सो, वृश्षिकों एवं छिपकलियों का

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