Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 202
________________ षड्-द्रव्य में काल-द्रव्य मुनि श्री विजयमुनि शास्त्री पड़-मध्य में काल: परस्पर एक-दूसरे में नही मिलते, उसी प्रकार कालाण भी जैन-मागम-साहित्य मे लाक को षड-द्रव्यात्मक कहा एक-दूसरे में नही मिलते हैं। परन्तु रत्नों की तरह न तो है। षड्-द्रव्य-धर्म, मघम, प्राकाश, काल, जीव और उनका प्राकार ही होता है, और न उनमें वर्ण, गन्ध, रस पुद्गल में सम्पूर्ण लोक मे स्थित समस्त पदार्थ समाविष्ट प्रौर स्पर्श ही होता है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-उन हो जाते है। दुनिया में, विश्व मे ऐसा एक भी पदार्थ शेष पदार्थों में होता है, जो मतं हैं, पाकार प्रकार से युक्त हैं। नही रहता, जो षड्-द्रव्य से बाहर रहता हो। षड-द्रव्यों इस प्रकार काल, प्रदेशों के समूह से रहित है। प्रतः उसे मे से काल के प्रतिकिन पांच द्रव्यों के लिए प्रागमों में पागमों में प्रस्तिकाय नहीं कहा है। पंचस्तिकाय शब्द का भी प्रयोग मिलता है। प्राचार्य श्री जन-दर्शन मे द्रव्य को सत् कहा है और सत् वह हैउमास्वातिने तत्त्वार्थ सूत्र मे और प्राचार्य कुंदकुदने पचास्ति- जो उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और सदा स्थित भी कायसार मे उक्त पांच द्रव्यों को प्रस्तिकाय कहा है। अन्य रहता है। उत्पाद, पय एवं ध्रौव्य तीनों एक ही समय में प्राचार्यों ने भी इनके लिए अस्तिकाय कहा है। अस्तिकाय होते है। इस प्रकार लोक में स्थित सभी द्रव्यों के उत्पाका अर्थ है-प्रदेशों का समूह। पाँच द्रव्यों में धर्म, अधर्म दादि रूप परिणमन में अथवा उनके पर्यायान्तर होने में जो मौर जीव असंख्यात प्रदेशो से युक्त द्रव्य हैं। प्राकाश अनन्त द्रव्य सहायक होता है, उसे 'काल-द्रव्य' कहते हैं। यह स्वयं प्रदेशों से युक्त है । क्योंकि प्रलोक मे जो प्राकाश है, वह अपनी पर्यायों मे परिण मन करते हुए, अन्य द्रव्यो के मनन्त प्रदेशी है और लोक मे स्थित प्राकाश प्रसख्यात परिवर्तन या परिणमन में तथा उन द्रव्यों में होने वाले प्रदेशी है। इसलिए प्राकाश को साम्त भी कहा है और उत्पाद, व्यय पर स्थायित्व में सहायक होता है, निमित्त अनन्त भी। पुदगलों के स्कन्धों का प्राकार एक जैसा नही बनता है, माध्यम (Medium) बनता है और विश्व मे है, उनके विभिन्न प्रकार है। इसलिए उन में प्रदेशो की सकेंड, मिनिट, घण्टा, दिन-रात, सप्ताह, महीना, वर्ष, यम, संख्या भी एक-सी नही है। परन्तु इन पांच द्रव्यो की तरह शताब्दी भादि व्यवहार रूप काल में निमित्त बनता है। काल द्रव्य भी स्वतन्त्र है, परन्तु वह प्रदेशों के समूह रूप यह धर्म-प्रधर्म द्रव्यों की तरह लोक व्यापी एक प्रखण्ड नहीं है। अन्य द्रव्यो की तरह काल भी सम्पूर्ण लोक में द्रव्य नही है। क्योंकि समय-भेद की अपेक्षा से इसे प्रत्येक व्याप्त है और लोक के एक-एक प्राकाश प्रदेश पर एक. भाकाश प्रदेश पर एक कालाणु के रूप मे भनेक माने एक कालाणु रहे हुए हैं। ये कालाणु प्रदश्य (Invisible) बिना काल का व्यवहार हो नहीं सकता। क्योकि भारत हैं, माकार रहित हैं और निस्क्रिय (Inactive) हैं। और अमरीका में दिन-रात एवं तारीख मादि कामलगमागमों में एवं द्रव्यसंग्रह तथा तत्त्वार्थसार प्रादि ग्रथो में अलग व्यवहार उन-उन स्थानों के काल-भेद के कारण ही एक उपमा देकर बताया है कि कालाण रत्नों की राशि होता है। यदि काल एक प्रखण्ड द्रव्य होता, तो सर्वत्र की तरह प्रत्येक प्राकाश प्रदेश पर रहे हुए हैं, और सख्या सदा एक-सा ही समय रहता और दिन-रात भी सर्वत्र एक को दृष्टि से वे प्रसख्य (Countless in number) है। ही समय पर होते । एक और प्रखण्ड द्रव्य स्वीकार करने रत्नों की राशि की तरह की उपमा केवल समझाने के पर काल-भेद कथमपि संभव नही हो सकता। परतु लिए एवं यह बताने के लिए दी है कि जिस प्रकार रल काल-भेद स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। भारत में

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