Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 207
________________ ५०, पर्व ३३, कि०४ अनेकान्त उसका सीधा असर जीव पौर पुदगल पर होता है। है । प्रायु-कर्म के क्षय होते ही उस भव की पर्याय का व्यवहार काल का प्रभाव जीवों और प्रगलो पर ही नाश हो जाता है और दूसरे भव के बान्धे हुए पाय-कर्म पड़ता है। इसलिए महान् वैज्ञानिक पाइन्स्टीन ने कहा के अनुरूप उस भव की पर्याय उत्पन्न होती है। इसी को है-"यदि विश्व में पदार्थ (Matter) नहीं होता, तो लोक-भाषा में मृत्यु कहते है और व्यक्ति सदा इससे भय. माकाश पौर काल-दोनों नष्ट हो जाते । पदार्थ के भीत बना रहता है। रात-दिन व्यक्ति काल से, मृत्यु से प्रभाव में हम काल और प्राकाश को स्वीकार नहीं करते। बचने का प्रयत्न करता है। वैज्ञानिक भी व्यक्ति को यह पदार्थ है, जिसमें से (Space) प्रकाश प्रौर (Time) मृत्यु से बचाने के लिए प्रयत्नशील । फिर भी वे अब काल प्रारम्भ होते हैं । और हमें इनसे विश्व (Universe) तक उसमे सफल नहीं हो सके हैं। परन्तु जिस व्यक्ति ने का बोध होता है। जैन-दर्शन इस बात को नही मानता अपने स्वरू, को जान लिया और जिसे स्व-रूप पर कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को उत्पन्न करता है। पदार्थ, जो विश्वास है, वह मृत्यु से या काल से भयभीत नहीं होता। कि मूतं है, अपने से भिन्न काल एवं प्राकाष द्रव्यो को क्योकि काल, पुद्गल के आकार में ही परिवर्तन करता कथमपि उत्पन्न नहीं कर सकता, जो कि प्रमूर्त है। भार है। प्रात्मा के प्रस्तित्व का नाश करने की ताकत काल मे तीय-दर्शन और उसमें विशेष रूप से जन-दर्शन यह भी नही है । वीतराग एवं प्रबुद्ध-साधक यह भली-भांति जानते नही मानता कि काल एवं ग्राकाश का अस्तित्व एवं मूल्य है हैं कि काल अपनी गति से चलता रहा है और चलना पदार्थ (Matter) के कारण है। सभी द्रव्यो का अपना रहेगा। वह न तो कभी समाप्त हुमा है और न कभी स्वतन्त्र मूल्य एव महत्त्व है। यदि विश्व में किसी को समाप्त होगा । वह अपने स्वभाव के अनुरूप अपना कार्य सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया जाए, तो वह जीव है, जो अपने करता है । परन्तु इसके निमित्त को पाकर जो मुझे भवज्ञान के द्वारा अपने से भिन्न द्रव्यो के स्वरूप का यथार्थ भ्रमण करना पड़ता है, उसका मूल कारण काल नही, रूप से जानने का प्रयत्न करता है और उन्हें जान भी प्रत्युत राग-द्वष प्रादि वंभाविक भावो में होने वाली मेरी लेता है। परन्तु विज्ञान की इस बात से जन-दर्शन सहमत परिणति ही है। विभाव से हटकर स्वभाव में स्थिर है कि पदार्थ का अस्तित्व होने के कारण काल का स्वरूप हो जाऊँ, स्वरूप म रमण करता रहूं, तो उससे कभी भी क्या है, उसकी शक्ति क्या है ? यह स्पष्ट रूप से ज्ञात बन्ध नहीं होगा और नये कमों के बन्ध के प्रभाव के हो जाता है। कारण वर्तमान भव के प्रायु-कर्म का क्षय होने के बाद जीव-द्रव्य प्रमूर्त है और वह अपनी पर्यायो मे ही मन्य भवों को पर्याय भी उत्पन्न नहीं होगी। प्रतः परिपरिणमन करता है। उस परिणमन में काल सहायक है णाम स्वरूप मृत्यु का स्वतः ही अन्त हो जायेगा। माध्यम मात्र है । परन्तु ससार अवस्था में राग-द्वेष प्रादि वस्तुत: राग-द्वेष एव कषाय प्रादि विकारों के कारण वभाविक-भावों में परिणति होने के कारण प्रात्मा कर्मों मात्मा का पुद्गलों के साथ संयोग सम्बन्ध होने के कारण से भाबद्ध होकर चार गति एव चौरासी लाख योनियों में ही उसे ससार मे जन्म-मरण के प्रवाह मे प्रवाहमान होना परिभ्रमण करता है। जब कार्माण-वर्गणा के पुद्गलों का पड़ता है। प्रतः काल को नष्ट करने का नहीं,प्रत्युत रागबन्ध होता है, उस समय प्रकृति, अनुभाग एवं प्रदेश बन्ध द्वेष को हटाकर वीतराग-भाव जो पास्मा का स्वभाव हैं के साथ स्थिति-बध भी होता है और जितने काल की पौर प्रात्मा का निज गुण है, उसमें स्थिर होने का प्रयत्न स्थिति का बध होता है, उसी के अनुरूप कर्म उदय में करे। जितनी-जितनी राग-द्वेष की परिणति कम होगी, माकर अपना फल देकर फिर प्रारम-प्रदेशो से अलग हो पात्मा उतनी ही जल्दी भव-भ्रमण के चक्र से मुक्त हो जाता है। इसी प्रकार जिस भव का जितने समय का सकेगा। प्रतः काल के कारण मूर्त पुद्गलों के प्राकारमायु-कर्म का बध होता है, उतने समय तक पायु-कर्म का प्रकार में परिवर्तन होता है। पूगल की स्थूलता एवं भोग करने के बाद उस भव का जीवन समाप्त हो जाता (शेष पृ० ६७ पर)

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