Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

Previous | Next

Page 253
________________ पा १२६३३०४ (भाइयो के पुत्र भरत का प्राचिपत्य स्वीकार कर नत हो गए। उनको भरत ने छीना हुम्रा पैतृक राज्य पुनः सौंप दिया। क्योंकि उत्तम व्यक्तियों के कोच की अवधि प्रणाम न करने तक और प्रथम व्यक्तियों के कोष की अवधि जीवन पर्यन्त होती है।) इसी प्रकार उपमा उत्प्रेक्षा, पोष दृष्टान्त पाटि अलंकारों का यथास्थान प्रतिमनोहर प्रयोग हुआ है । छन्द - प्रस्तुत काव्य में वर्ण विषय के अनुसार कवि ने छन्दों का प्रयोग किया है। इसमें १८ सगं और १५३५ श्लोक है । स मे मुख्य रूप से प्रयुक्त छन्द पाठ हैं :वंशस्थ, उपजाति, धनुष्टुप, वियोगिनी, द्रुतविलम्बित, स्वागता, रथोद्धता और प्रहर्षिणी उपजाति का सबसे अधिक प्रयोग है। सर्ग के अन्त में प्रयुक्त छन्द बड़े है । जैसे:-मालिनी, वसन्ततिलका हरिणी, पुष्पिताया, शार्दूलविक्रीड़ित, शिखरिणी मन्दकांता पोर गधरा इनमें वसन्ततिलका का प्रयोग सबसे अधिक है। भाषा और शैली भाषा - काव्य में भाषा की जटिलता नहीं है । ललित पदावली में सरलता से गुम्फित अर्थ पाठक के मन को मोह लेता है । पद- लालित्य और अर्थ - गाम्भीर्य, ये दोनों काव्य की भाषा की विशेषताएं है। शेली -- काव्य में तीन गुण मुख्य माने जाते हैमाधुर्य प्रसाद और भोज माधुर्य धौर प्रसाद वाली रचना में समासान्त पदों का प्रयोग नहीं होता। भोज गुण वाली रचना में समास बहुल पद प्रयुक्त होते हैं । प्रस्तुत काव्य में प्रसाद और माधुर्य, दोनों गुणों की प्रधानता है। कहीं-कही युद्ध यादि के प्रसंग में घोज गुण भी परिलक्षित होता है । रीति या शैली की दृष्टि से प्रस्तुत रचना वैदर्भी मोर पाचाली तो की है। कहीं-कहीं गोणी शैली फा भी प्रयोग है । दोष नीरसता – कथानक के संक्षिप्त होने का कारण काव्य के कलेवर को बढ़ाने के लिए वर्णनों, वार्तालापों मादि का इतना अधिक विस्तार कर दिया है कि कहीं कहीं पर नीरसता प्रतीत होने लगती है। मनोचित्य - नेक देश के राजा-महाराजाओंों की सेना के साथ युद्ध के लिए प्रस्थान करने के पश्चात् षष्ठ एवं सप्तम सर्ग मे महाराज भरत का उपवन में प्रवेश कर, धन्तःपुर की रानियों के साथ वन विहार और जल फोड़ा के प्रसंग मे सेलियों का वर्णन रम-निवेश की दृष्टि से अनुचित प्रतीत होता है। " पूर्व कवियों का प्रभाव प्रस्तुत काव्य पर दो महाकवियों का अत्यधिक प्रभाव परिलक्षित होता है- प्रथम भारवि और द्वितीय कालि दास | काव्य में भारवि के किरातार्जुनीयम्' से घनेक बातें प्रादर्श रूप में ग्रहण की गई है काव्य का प्रारम्भ दूत प्रेषण से प्रत्येक सर्ग के अन्त मे किसी विशेष शब्द का पुनः पुनः प्रयोग ( 'लक्ष्मी' शब्द का किरातार्जुनीयम् मे तथा 'पुण्योदय' शब्द का भरत बाहु० महा० मे) भादि । इसी प्रकार कालिदास में रघुवंश से भी प्रस्तुत काव्य में अनेक बातों की समानता है घुदिग्विजय (रघुवंश चतुर्थ सर्ग) से भरत के दिग्विजय (भरत वा० महा० द्वितीय सर्ग) की, मगध, अङ्ग प्रादि देशों के राजाओं के वर्णन ( रघुवंश षष्ठ सर्ग) से, श्रवन्ति, मगध, कुरु प्रादि देशों के राजी के वर्णन (भरत बा०] महा० द्वादश सर्ग) को, प्रादि । निष्कर्ष : प्रस्तुत महाकाव्य संस्कृत साहित्य को एक पूर्व निधि है। यह प्रावधि विद्वानों से अपरिचित है। 'बृहत्त्रयी' किरातार्जुनीयम् से इसकी समानता है। मारवि अर्थ गौरव के लिए प्रसिद्ध हैं । प्रस्तुत काव्य में पद-पद पर उपलब्ध सूक्तियों के कारण यह काव्य भी धयं गौरव का अच्छा निदर्शन बन गया है । यह महाकाव्य रस, अलंकार, ध्वनि सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है के महाकाव्यों की श्रेणी में महती योग्य है । रीति, भाषा, भाव, प्रतएव यह संस्कृत प्रतिष्ठा प्राप्त करने के विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन

Loading...

Page Navigation
1 ... 251 252 253 254 255 256 257 258