Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 252
________________ मी पुण्य पुल मनि और उनका 'भरत बाहुबलि महाकाव्यम्' १२५ करने की धमकी दी और बाहुबली रोष से मुष्टि प्रहार इस संबंध में मेरा मत है कि यद्यपि इसमें नायक के करने के लिए भरत को भोर दौड़ पड़े। किन्तु देवतामों जीवन का सर्वाङ्गीण चित्रण न होकर केवल युद्ध का द्वारा प्रतिबद्ध होने पर उन्होंने अपनी मष्टि का प्रयोग केश- प्रसप्रधान रूप से वणित है, फिर भी य खंचन के लिए किया, और वे महाव्रतधारी मुनि बन गए। धारी शिव और अर्जुन के युद्ध को एकाङ्ग-घटना के होने यह देख सम्राट् भरत भी उनके चरणों में विनत हो गए। पर भी, 'किरातार्जुनीयम्' को महाकाव्य के प्रन्य उपादानों तपः संख्द बाहुबली के मन में 'मह' का अंकुर के कारण सर्वसम्मत महाकाव्य माना जाता है तो फिर विद्यमान था। प्रतः कठोर तप करने पर भी एक वर्ष तक उसके ही समान 'भरत बाहुबलि-महाकाव्यम्' को महाउन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। भगवान् ऋषभ द्वारा काव्य माने जाने में कोई मापत्ति नही होना चाहिए । प्रेरित प्रवजित वाह्मी पौर सुन्दरी (नामक वहिनों) के रस, अलङ्कार और छन्दोयोजना : द्वारा प्रतिबद्ध बाहुबली को 'अहं' का त्याग करते ही रस-यद्यपि काव्य मे 'वीर' और 'श्रृंगार' रस सर्वत्र निराबरण ज्ञान की उपलब्धि हुई। अन्त में भरत को भी दिखाई पड़ते हैं, फिर भी इन दोनों रसों का समापन, वैराग्य हपा और उन्होंने दीक्षा धारण कर केवलज्ञान को बाहबली भोर भरत के द्वारा तपः साधना कर कैवल्यप्राप्त किया। प्राप्ति के रूप में होता है, प्रतः 'शान्त' ही इस काव्य का महाकाव्यत्व: मङ्गी रस माना जाना उपयुक्त है। सर्वत्र वणित होकर 'भरत बाहुबलि महाकाव्यम्' शास्त्रीय-दृष्टि से एक भी 'बार' मार शृङ्गार' अङ्ग रस के रूप में समझना चाहिए। महत्त्वपूर्ण महाकाव्य है । दण्डी (काव्यादर्श-१.१४-१९), प्रलंकार-प्रस्तुत काव्य में कवि ने शब्दालंकार और विश्वनाथ कविराज (साहित्य दर्पण-६.१५-२५), हेमचन्द्र मलकार का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। उपमा (काव्यानुशासन-८.६) मादि पालंकारिकों ने महाकाव्य पौर उत्प्रेक्षा की अपेक्षा प्रान्तरन्यास का अधिक मात्रा की जो परिभाषाएँ दी हैं. तदनुसार प्रस्तुत काव्य महा- में प्रयोग है। काव्य की कसौटी पर खरा उतरता है। शब्दालंकारों में यद्यपि अनुप्रास, इलेष मादि मलकार इसकी रचना पठारह सगों में की गई है। क्षत्रिय- सर्वत्र दिखाई देते हैं, फिर भी यमकालकार पर कवि का कूल के धीर-प्रशान्त पौर वीर शिरोमणि, बाहुबली इसके विशेष प्राग्रह प्रतीत होता है। पूरा पंचम सर्ग यमकानायक है। इसका मुख्य रस 'शान्त' है। 'वीर' एवं लकार से भरा है। इस सर्ग के ७५ इलोकों में यमका. 'श्रृंगार' इसके गौण रस हैं। प्रत्येक सर्ग के मत में छन्द लंकार प्रयुक्त है। जैसे :लकार प्रयुक्त है। जस: "इति चमूमवलोक्य चम्पतिः, का परिवर्तन किया गया है। वृत्त को अलंकृत करने के लिए प्रकृति वर्णन, चन्द्रोदय, वन विहार, जल कोडा, ऋतु प्रगणित गणितांतक विग्रहाम् । वर्णन, वन, पर्वत, समुद्र, रात्रि, प्रदोष, अन्धकार मादि नपतिमेवमुवाच तनूभवबसमय: समयः शरवस्त्वयम् ॥" का मनोहारी वर्णन है। वीर रस के प्रसंग में दिग्विजय, यहां पर, चमू गुणितां तथा समयः, विभिन्न प्रों युद्ध, मन्त्रणा, शत्रु पर चढ़ाई प्रादि विषयों का साङ्गोंपाङ्ग वाले इन तीन शब्दों की प्रावृति होने से यमकालकार है। यर्णन है। काव्य का मुख्य उद्देश्य धर्म की विजय है। पर्थालंकारों में प्रर्थान्तरन्यास कवि का प्रतिप्रिय कुछ पालोचक (मुनि श्री नथमल-भरत बाहुबलि अलंकार है। इसमें सामान्य-विशेष कपनों का विशेषमहाकाव्यम'-प्रस्तुति, पृ० १३.१४) इसे न तो महा. सामान्य कथनों के द्वारा समर्थन होता है। विशेष सामान्य काव्यम्' प्रस्तुति, पृ०१३-१४) इसे न तो महाकाव्य मानते द्वारा समर्थन का सुन्दर उदाहरण देखिए । मौर व खण्डकाव्य, किन्तु वे इसे दोनों काव्यों के लक्षणों "तात्मजेन्यो विहितानतिभ्यः प्रत्यपि पत्र भरतेन राज्यम् से समन्वित काव्य की किसी तुतीय विधा में रखने कोप:प्रणामात होसमानामनसमाना बननावविहि।" पक्षपाती है। (म० वा. म०२-८०)

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