Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 250
________________ हिन्दी कवि उदयशंकर भट्ट को काव्य-सृष्टि में बाहुबलि अपने अनुज को दंड नहीं देंगे तो कर्तव्यच्युत होंगे प्रतः "युद्ध-soft ही शुद्ध मंत्रणा " दी। जब भरत ने इस पर इति भर दी, तो युद्ध की तैयारियां शुरू हो गई। इस प्रसंग पर भट्ट जी ने लिखा है इस प्रकार विवेकशून्य, भूपति ने रथ की हामी । भ्रातृभाव की हुई हानि विजयी सलामी ॥ परिणाम यह हुआ कि चक्रवर्ती की प्रगणित सेना प्रश्व पक्तियाँ, गजालियाँ सैन्य सागा-सी तक्षशिला की ओर चल पड़ीं कवि के कथानक के अनुसार देवता यह देख कर घबरा गए और उन्होंने भरत से निवेदन किया कि आप देवपति सम हैं और आप का कोई प्रतिस्पद्ध नहीं हैं और प्राप जरा यह विचार तो करते कि दो भाइयों के इस युद्ध में "विनाश जीव का होगा" किन्तु भरत ने कहा कि अभिमानी का मान तोड़ना भी तो राजा का कर्तव्य है । इस पर देवों ने प्रस्ताव रखा कि यदि युद्ध प्रावश्यक ही है तो दोनों भाई ही आपस में लड़ से मोर इस बात के लिए वे बाहुबलि को भी राजी कर लेंगे भरत ने जब यह प्रस्ताव मान लिया, तो भरत की सेना बड़ी निराश हो गई मगर बाहुबलि ने उत्तर दिया"विनय, नीति, मति, शुद्ध न्याय से किंचित भी न टरूंगा जंसी इच्छा हो भाई की मैं भी वही करूंगा" क्योंकि "मनुजनाश से यही भला है ।" इस प्रकार तक्षशिला शासक बाहुबलि ने संसार के सामने एक हिंसक युद्ध का प्रथम उदाहरण प्रस्तुत किया । एक रम्य अखाड़े मे दोनो भाई अनगिनत दर्शकों के समक्ष इन्द्र युद्ध के लिए उतर पड़े। इस महल युद्ध का वर्णन करते हुए कवि ने लिखा हैहुई युद्ध की वृष्टि-सी गर्जना, महाताल-सी ताल की तर्जना । fear वज्रनिर्घोष यो लक्ष ने नंग स्फोट जाना प्रजापक्ष ने ।। - किन्तु इस मल्ल युद्ध में विजयश्री बाहुबलि को मिली और भरत भूमि पर गिर पड़े ( कवि के अनुसार ) पौर चारों तरफ हाहाकार मच गया। यहाँ यह उल्लेख कर देना उचित होगा कि कवि ने जल बुद्ध, दृष्टि युद्ध और भरत द्वारा बाहुबलि पर पक चलाए जाने की घटनाओं को छोड़ दिया है। इसी प्रकार इस वर्णन में वह भी परिवर्तन है कि बाहुबलि ने अपने बड़े भाई को जमीन पर नहीं गिराया था भवितु उन्हें अपने दोनों हाथों में कार - १२३ उठा लिया था प्रौर भरत को नीचे गिराने का भाव प्राते ही उन्हें वैराग्य हो गया था और वे इस प्रकार अपने बड़े भाई का अपमान करने के दोष से बच गए थे जो मो हो, कवि ने बाहुबलि की उस समय की मनःस्थिति का संक्षिप्त किन्तु सशक्त वर्णन किया है जो निम्न प्रकार है"विस्मृत हुई विजय की इच्छा वंश रक्त गरमाया । मोती से ] a [लके, भ्रातृप्रेम अकुराया ॥ हाय वहां विषरस घोला, इस कुल की परम्परा में । यौवन, राज्य विजय को, इच्छा है ये पाप घरा में || जग विश्रुत ऋषभस्वामी का मैं कुपुत्र सुप्रतापी । भ्रातृहनन को हुआ व्यय हा प्रत्युत्कृष्ट नशा पो । वनजन्य उपचारों द्वारा मूर्च्छा से वे जागे । विह्वल हृदय निरस भ्राता को स्वयं प्रेम गाढ भुजग से प्रालिंगन कर अपनी निन्दा लज्जा व विनय रस साने, स्नेह सुपा से भरके ।। प्रभु-बिंदु से चरण कमल घो, बाहुबलि यो बोले । भ्रान्ति हुई मम दूर ज्ञान ने चक्षु-पटलचई खोले । सब कुछ सौंप भरत भूपति को मिया विराग सभी से निस्पृह, निर्मम निभय हो सब त्यागा जग निज जी से ।। समाधिस्थ हो सत्पथ देखा, परब्रह्म पद पाया । जीवनभूति ज्वलन्त निरख सबजनेश भुकाया ।। से पायें | करके । ।। यह ऊपर कहा जा चुका है कि उदयशंकर भट्ट ने अपना कथानक हेमचंद्राचार्य के त्रिशष्टिशलाका पुरुषचरित्र से लिया है किन्तु उसमे अंतिम प्रकरण इस प्रकार दिया गया है। बाहुबली ने जब रुष्ट होकर भरत पर प्रहार करने के लिए मुष्टि उठाई तब सहसा दर्शको के दिल कांप गए मौर सब एक स्वर में कहने लगे "- क्षमा कीजिए, सामर्थ्यं होकर क्षमा करने वाला बड़ा होता है। भूल का प्रतिकार भूल से नहीं होता। बाहुबली शान्त मन से सोचने लगे"ऋषभ की सन्तानों की परम्परा हिंसा की नहीं, ि महिसा की हैं। प्रेम ही मेरी कुल परम्परा है किन्तु उठा हुमा हाथ खाली कैसे जाए ?" उन्होंने विवेक से काम लिया। अपने उठे हुए हाथ को अपने ही सिर पर ना घोर वालों का लुंचन कर वे भ्रमण बन गए। उन्हो ऋषभदेव के चरणो मे बड़ी से भावपूर्वक नमन किया और कृत अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना की।" इस प्रकार कवि ने कथा के प्रतिम भाग में भी किंचित परिवर्तन किया है। 000

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