Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 238
________________ बाहुबली की कहानी : उनकी ही जुबानी 0 डा० शिवकुमार नामदेव, होशंगाबाद "स जयति हिमकाले यो हिमानी परोतं, भरत से संघर्ष : वपुश्चल इवोपविभ्रवार्वभूव । भरत पौर मेरे मध्य हुए संघर्ष की कहानी पुराणों मवषनसलिलोपर्यश्च घौतोऽम्ब काले, मे वणित है। भरत ने चक्रवर्ती पद प्राप्त हेतु दिग्विजय खरणिकिरणानय्यष्ण काले विषेहे ॥ किया । दिग्विजय-यात्रा यद्यपि सकुशल सम्पन्न हुई, परन्तु मेरे पिता का नाम ऋषभदेव तथा माता का नाम चक्र-रत्न अयोध्या के द्वार पर प्राकर रुक गया। चारों सुनन्दा था। जब मेरे पिता प्रयोध्या के राजसिंहासन पर पोर प्राश्चर्य का वातावरण व्याप्त हो गया। अनेकों प्रकार प्रारूढ़ हुए तब उन्होंने अपने राज्यकाल मे अनेक जनो. के तर्क-वितर्क होने लगे। तब भरत ने इस कारण की पयोग कार्यों के साथ ही साथ प्रजा को प्रसि, ममि, कृषि, खोज-बीन करने के लिए मन्त्रियो को नियुक्त किया। विद्या, वाणिज्य एवं शिल्प इन षट्कर्मों से प्राजीविका कारण शीघ्र ही ज्ञात हो गया मन्त्रियों ने भरत से इसका करना सिखाया । उन्हें प्रजापति, ब्रह्मा, विधाता कारण बताते हुए कहा कि चक्र-रत्न अयोध्या के द्वार पर पुरुष प्रादि नामो से भी स्मरण किया जाता है। मेरा भाकर इस कारण स्थिर हो गया है कि अभी प्रापके शारीरिक गठन अति सुन्दर था, लोग मेरे रूप को भाइयों ने अधीनता स्वीकार नहीं की है। भरत संतुष्ट कामदेव से भी सुन्दर कहते थे। मेरी भुजाएं बलिष्ट एव हो गए। उन्हें यह पाशा थी कि मेरे लघु-म्राता मेरी प्रसाधारण थीं। गुणानुरूप ही मेरा नामकरण बाहुबली प्राशा की अवहेलना नही करेंगे। उन्होंने अपने समस्त रखा गया। भ्रातामों के पास अधीनता स्वीकार करने के लिए प्रस्ताव भेजा । उनका राजदूत मेरे पास भी पाया। इस प्रस्ताव जब पिताजी ने प्रव्रज्या ग्रहण की: को सुनकर मेरे अन्य भाइयों को तो संसार की स्वार्थचंत्र कृष्ण नवमी का दिन था मेरे पिता ऋषभदेव परता देख कर वैराग्य हो गया और उन्होंने पिताजी के सैकड़ों नरेशों सहित अपने राजसिंहासन पर विराजमान पास दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली, किन्तु मझे भरत थे, अप्सरा नीलांगना का नृत्य चल रहा था। सभी मंत्र का उक्त प्रस्ताव रुचिकर नही प्रतीत हमा। पिताजी मग्ध से उस नत्य का मानन्द ले रहे थे, तभी देवांगना द्वारा प्रदत्त मेरी इस अल्प भूमि पर भी भरत, जो महान को प्रायु पूर्ण हो गई। उसके दिवंगत होते ही इन्द्र ने साम्राज्य का भोक्ता है, अपना वर्चस्व चाहता है। मेरा तत्काल उसी के अनुरूप अन्य देवांगना से नृत्य प्रारम्भ अन्तःकरण भरत के प्रस्ताव को स्वीकार न कर सका। करा दिया। इन्द्र का यह कृत्य मेरे सूक्ष्मदर्शी पिता की मैंने राजदूत के द्वारा भरत को यह सन्देश भेजा कि यद्यपि दष्टि से भोझल न हो सका। उन्हें इहलोक की क्षण- भरत मुझसे ज्येष्ठ है, तथापि यदि मस्तक पर खड्ग भंगुरता एवं नश्वरता का स्मरण पाया मोर उन्हें वैराग्य रखकर बात करना पसन्द करते हैं, तब उन्हें प्रणाम उत्पन्न हुमा। उन्होंने अपना समस्त राज-पाट अपने पुत्रो करना क्षत्रियोचित शोल के प्रतिकूल है। में विभाजित कर प्रवज्या ग्रहण कर ली। मेरे ज्येष्ठ भरत को मेरा जब उक्त सन्देश प्राप्त हुप्रा तब उन्होंने माता भरत को प्रयोध्या का और मुझे पोदनपुर का राज्य चतुरंगिणी सेना के साथ मेरे दमन के लिए तक्षशिला को प्राप्त हुमा । मुझे अपनी पैतृक सम्पति से संतोष था, किन्तु प्रस्थान किया। मैंने भी अपनी सेना के साथ भरत से भरत की लौकिक लालसा अभी भी प्रतृप्त थी। युद्धार्थ रणभूमि की पौर प्रस्थान किया। समरांगण में

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