Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 242
________________ यहाँ पर 'ग्रहलाघव के अनुसार महगंण ४७८ हैं तथा चक्र ४९ है, करणकुतूहलीय महर्गण १२३५-६२ मकरन्दीय १६८८३२६ और सूर्य सिद्धान्तीय ७१४४०३६८४६५६ है । परन्तु इस लेख में ग्रहलाघव के महगंण पर से ही ग्रह बनाए गए हैं घोर तिथि नक्षत्रादिक के घटघादि भी इसीके मनुसार हैं । राहु १ शक्र उस समय की लग्न कुण्डली रवि १२ १० भौम ३ गुरु २ चन्द्र ४ बुध ११ ء उस समय की चन्द्र- कुण्डली भौम ३ गुरु २ चंद्रमा राहु १ शुक ११ ९ गोम्मट मूर्ति की कुण्डली बुध शनि ७ कत १२ रवि १० ११५ प्रतिष्ठाकर्त्ता के लिए लग्नकुण्डली का फल सूर्य जिस प्रतिष्ठापक के प्रतिष्ठा समय द्वितीय स्थान में सूर्य रहता है वह पुरुष बड़ा भाग्यवान् होता है। गो, घोड़ा प्रोर हाथां प्रादि चौपाये पशुत्रों का पूर्ण सुख उसे होता है । उसका धन उत्तम कार्यों में खर्च होता है। लाभ के लिए उसे अधिक चेष्टा नहीं करनी पड़ती है। वायु और पित्त से उसके शरीर में पीड़ा होती है । चन्द्रमा का फल यह लग्न से चतुर्थ है इसलिए केन्द्र में है साथ-ही-साथ उच्च राशि का तथा शुक्लपक्षीय है। इसलिए इसका फल इस प्रकार हुधा होगा । चतुर्थ स्थान में चन्द्रमा रहने से पुरुष राजा के यहाँ सबसे बड़ा अधिकारी रहता है। पुत्र मोर स्त्रियों का सुख उसे पूर्व मिलता है । परन्तु यह फल वृद्धावस्था में बहुत ठीक घटता है। कहा है " यदा बन्धुगोबान्धवं रत्रिजन्मा नवद्वारि सर्वाधिकारी सदैव" इत्यादि भौम का फल यह लग्न से पंचम है इसलिए त्रिकोण में है और पंचम मंगल होने से पेट की प्रग्नि बहुत तेज हो जाती है। उसका मन पाप से बिलकुल हट जाता है और यात्रा करने मे उसका मन प्रसन्न रहता है । परन्तु वह चिन्तित रहता है और बहुत समय तक पुण्य का फल भोग कर धमर कीर्ति संसार में फैलाता है । बुधफल यह लग्न में है । इसका फल प्रतिष्ठा कारक को इस प्रकार रहा होगा लग्नस्थ बुध कुम्भ राशि का होकर अन्य ग्रहों के अरिष्टो को नाश करता है और बुद्धि को श्रेष्ठ बनाता है, उसका शरीर सुवर्ण के समान दिव्य होता है और उस पुरुष को वैद्य, शिल्प प्रादि विद्याओंों में दक्ष बनाता है । प्रतिष्ठा के वें वर्ष में शनि और केतु से रोग प्रादि जो पीड़ाएं होती है उनको विनाश करता है ।' शनि केतु १. "बुधो मूर्तिगो मार्जयेदम्यरिष्ट गरिष्ठा षियो वैखरीवृत्तिभाजः । जना दिव्यचामीकरीभूतदेह विकित्सावि दो दुश्चिकित्स्या भवन्ति ।।" "लग्ने स्थिताः जीवेन्दु मार्ग वबुधाः सुखका सदाः स्युः ।"

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