Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 239
________________ ११२, वर्ष ३३, कि०४ अनेकान्त हम दोनों भाइयों की सेनाएं जब प्रामने-सामने तैयार मदोन्मत हस्ति से नीचे उतरो। इसने ही तुम्हारी खड़ी थी तब मस्त्रियों ने हमसे प्राग्रह किया कि द्वन्द्व युद्ध तपश्चर्या को निरर्थक बना दिया है। इतना श्रवण करते द्वारा जय-पराजय का निर्णय कर लें तो निरापराध ही मुझे ज्योति मार्ग प्राप्त हो गया तथा मुझे केवल ज्ञान सैनिकों का रक्तपात होने से बच जाए। यह उनका प्राग्रह की प्राप्ति हो गई। केवल ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त तर्कसंगत था, जिसे हम लोगों ने स्वीकार कर लिया। मैं विहार करते हुए अपने पिता के दर्शनार्थ कैलाश पर्वत जय-पराजय के निर्णय के हेतु हमारे लिए तीन प्रकार की पर पहुंचा। और इसी स्थान पर ही मैंने अपने देह को प्रतियोगिताएं-दृष्टि युद्ध, मल्ल युद्ध एवं जल यद त्याग कर मोक्ष को प्राप्त किया। निश्चित की गई। मैंने तीनो प्रतियोगितामों में भरत को देवालय एवं प्रतिमायें : पराजित कर विजय श्री प्राप्ति की। भरत इस पराजय मैंन घोर तपस्या के द्वारा मोक्ष को प्राप्त किया था। को सहन न कर सका। और अपनी पराजय को जय में मेरी इस तपस्या का वर्णन जिनसेन कृत 'महापुराण' एव परवर्तित करने के लिए युद्ध-मर्यादा का उल्लघन कर मेरे रविषणाचार्य ने पद्मपुराण में किया है। यद्यपि मेरी गणना ऊपर प्रमोध-प्रस्त्र चक्र चला दिया। इस पर भी मेरा तीर्थंकरों मे नही होती है, पर मध्यकालीन जैन परंपरामों कोई अहित न हुमा। में मुझे बड़ा सम्मान प्राप्त हुप्रा है। मेरे मनेक देवालय सम्पदा का त्याग एवं दीक्षा : एवं मूर्तियो का निर्माण भी हुप्रा है। दक्षिण भारत के अपने ज्येष्ठ भ्राता भरत के कर-कृत्य से मेरे मन मे तीर्थहल्लि के समीप हवच के पादिनाथ मंदिर के समीप ही विराग रूपी ज्ञान सूर्य का उन्मेष हुप्रा । मैंने नश्वर पार्थिव पहाडी पर मेग एक मदिर विद्यमान है। गर्भगह में मेरी सम्पदा को भरत के लिए त्याग कर अपने पिता ऋषभदेव | ऋषभदव एक सुन्दर-सी मूर्ति है । देवगढ की पहाडी मे मेरी एक के पास जाने का निश्चय किया। वहा जाने के पूर्व मेरे मन्दर मति के मन में यह जिज्ञामा जागृत हुई कि क्यों न मैं पहले केवल- वादामी मे ७वी सदी मे निमित मेरी ७॥ फुट ऊंची ज्ञान की प्राप्ति कर लूं। इस हेतु मैं तप में लीन हो प्रतिमा विद्यमान है। एलोरा के छोटे कैलास नामक जैन गया। एक वर्ष से अधिक व्यतीत हो गया, मैं मूर्तिवत् शिला मंदिर की इन्द्र सभा की दक्षिणी दीवार पर, तथा सीधा खड़ा हा ध्यान में लीन रहा, वृक्षों में लिपटी हुई देवगढ के शातिनाथ मंदिर में भी मेरी प्रतिमायें उत्कीर्ण लताएं मेरे देह से लिपट गई, वे अपने वितान से मेरे सिर की गई। यद्यपि मेरी प्रतिमायें एलोरा, बादामी, मध्यपर छत्र सा बना दिया। पैरों के मध्य कुश उग पाए जो प्रदेश तथा अन्य स्थानों में है, किन्तु इन सबसे विशाल देखने मे बाल्मीक जैसे लगते थे। केश बढ़ गए. जिनमें और सुप्रसिद्ध मेरी मति कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में है। पक्षी नीड बनाकर रहने लगे। घुटनो तक मिट्टी के यह विश्व की सबसे लबो प्रतिमा है, जिसका निर्माण वल्मीक चढ़ गए जिनमे विषधर सर्प निवास करने लगे। एक वृहदाकार शिला को काट कर किया गया है। एक वर्ष की कठोर तपस्या के उपरांत भी मैं केवल. कायोत्सर्ग मुद्रा में ५७ फुट लंबो तपोरत मेरी यह प्रतिमा शान से वंचित रहा। इसका कारण मेरा अपना मोह था, दूर से ही दर्शक को अपनी मोर माकृष्ट कर लेती है। अज्ञानता थी। मेरे मानस-पटल में यह भावना घर कर इसका निर्माण गंग नरेश राजमल्ल (राचमल्ल) चतुर्थ गई थी कि मुझे अपने पिताजी के पास जाकर अपने छोटे भाइयों की वन्दना करनी होगी। मेरा मोह था, यही (६७४.८४ ई.) के मंत्री एवं सेनापति चामुण्डराय ने मेरी प्रज्ञानता थी, जिसने मुझे ज्ञान प्राप्ति के मार्ग मे कराया था। चामुण्डराय ने 'चामुण्डराय पुराण' की कन्नड भाषा में रचना भी की थी। मेरी इस प्रतिमा का बाधा पहुंचाई थी। इस प्रज्ञानता को दूर करने के लिए मेरी बहने-बुमा एव सुन्दरी मेरे पास प्राई । निर्माता शिल्पी मरिष्टनेमि है। उसने मूर्ति निर्माण में बब मुझे केवल ज्ञान प्राप्त हुमा: अंगों का विन्यास ऐसे नपे तुले ढंग से किया है कि उसमें दोनों बहनें मेरे निकट पाकर बोली "भैया मोह के किसी प्रकार का दोष निकाल पाना किसी के लिए संभव

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