Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 206
________________ षड़-तम्य में काल-व्य ऐसा है कि वह अपने स्वरूप में स्थित रहते हए अपनी हो कान नियमानमार है।" ज्योतिष-विज्ञानवेता रोयल पर्यायों में द्रवित होता रहता है। उममें प्रतिक्षण परिवर्तन का कहना है --"Time i. Time de-facto) काल कार्य होता रहता है, उसकी पुरातन पर्याय का नाश होता है से प्रथवा यथार्थ में काल है।" महान वैज्ञानिक पाइन्स्टीन और नयी पर्याय उत्पन्न होती है। परिणमन द्रव्य का भी काल को वास्तविक स्वीकार करता है और वह उसके स्वभाव है और समय के माध्यम के बिना वह कथमपि अस्तित्व को सम्पूर्ण लोक मे मानता है। काल के सम्बन्ध संभव नहीं है। प्रतः समय सर्वत्र व्याप्त है। में प्राइस्टीन को मान्यता यह है-"Time and spaca जैन-दर्शन इस बात को स्वीकार करता है कि समय are mixed up in a rather strange way"-काल रूप कालाण प्रसंरूपात प्रदेश वाले लोक-आकाश के एक. प्रोर माकाश वास्तव में प्राश्चर्यजनक रास्ते से एक-दूसरे एक प्रदेश पर स्थित है, सभी कलाण स्वतन्त्र है, वे एक- मे मिल गए है।" वास्तव में कोई भी द्रव्य अपने मे दूसरे मे मिलते नहीं है। यदि एक कालाण दूसरे कालाणु मे भिन्न दूसरे द्रव्य मे नही मिलता है। जेन-दर्शने की अथवा एक समय दूसरे समय में मिल जाए, तो फिर वे मान्यता के अनुसार एकद्रव्य को प्रनम्त-मनन्त पर्यायें भी एक ही हो जाएंगे, उनमे अनेकत्व नही रहेगा। प्रतः अपने से भिन्न दूसरी पर्याय में नही मिलती। ससार प्रव. स्वभाव से वे एक-दूसरे से अलग है। मम्पूर्ण विश्व स्था में प्रात्मा और पुद्गल का संयोग सम्बन्ध एक-सा कालाणम्रो से परिपूर्ण है, लोक-प्राकाश का एक भी ऐसा दिखाई देता है, फिर भी प्रारमा का एक भी प्रदेश, एक प्रदेश नही, जो इससे शन्य हो। पदार्थ-विज्ञान की दृष्टि भी गुण पोर एक भी पर्याय पुद्गल के परमाणनों, उसके से (In a static condition) ये कालाण दष्टिगत नही गुणा और उसके पर्याय में नही मिलते है। पतः पाकाशहोते है, प्राकार रहित है, निष्क्रिय है और सख्या मे गिन द्रप न तो काल के रूप में परिणत होना है और न काल. नही जा सकते (Countless) है। इस प्रकार निश्चय द्रव्य आकाश के रूप में। दोनो का परिणमन अपनी-अपनो काल सर्वत्र है और वह अनन्त है। क्योकि पर्यायो में परि- पर्याया में ही होता है। फिर भी प्राकाश का एक भी णमन मनन्त काल से होता पा रहा है, वर्तमान समय म ऐसा प्रदेश नही है, जो कालाणु से शुन्य हो। इस दष्टि हो रहा है और अनन्त अनागत काल में होता रहगा। से काल प्राकाश में मिला हुमा-सा परिलक्षित होता है। पर्यावों में होने वाला परिवर्तन प्रनादि-अनन्त है, इस इस अपेक्षा से माना जाए, तो जैन-दर्शन भी इसे स्वीकार अपेक्षा से समय भी अनन्त है। समय का अस्तित्व अथवा करता है कि ग्राकार का एक-एक प्रदेश न तो भूत काल में कालाण से शून्य रहा है, न वर्तमान में वह कालाणु से काल-द्रव्य का अस्तित्व लोक में ही है. प्रलोक में नही । प्रलोक में केवल शुद्ध प्राकाश (Only purespace) है, शून्य शुन्य है और न भविष्य में वह कालाण से शून्य होगा। फिर भी चारों पोर से लोक को घेरे हुए है, अतः उमके काल, पुदगल और जीव : लिए भी यह प्रयोग किया जाता है कि प्रलोक में स्थित मैं प्रापका पहले बता चुका है कि षड-नयों में जीर पाकाश त्रिकालवर्ती है अनन्त ममय से वह है और अनन्त और अजीव, चेतन पोर जड़-दो द्रव्य मुख्य है। जीव के समय तक रहेगा। अतिरिक्त पांचो द्रव्य अजीब है, प्रचेतन हैं। प्रागम में जानिक वृष्टि में-काल : प्रजीव को दो प्रकार का बताया है-रूपी मोर प्ररूपी जैन-दर्शन की तरह विज्ञान भी इस बात को स्वीकार या मूर्त और अमूर्त । धर्म, अधर्म, प्राकाश और कालकरता है कि प्रत्यक्ष या व्यवहार-काल (Apparent- ये चारों द्रव्य प्ररूपी हैं, प्रमूर्त है। केवल पुद्गल-द्रव्य हो time) के पीछे निश्चय अथवा यथार्थ-काल (Real- रूपी एवं मूर्त हैं। मैं प्रमी पापको काल के सम्बन्ध में Time) भी है। प्रो० एडिनाटन का कहना है- बता रहा था कि परूपी एवं अमूर्त द्रव्यों की पर्यायों में "Whatever may be time dedure)--जो कुछ भी जो परिणमन होता है, उसमें काल-द्रव्य सहायक है. परंत 1. The Nature of the Physical world P. 36.

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