Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 225
________________ बाहुबलि-चरित्-विकास एवं तद्विषयक वाङ्मय D डा० राजाराम जैन, पारा भगवान् बाहुबलि प्राच्य भारतीय संस्कृति के पनन्य सम्बद्ध थे, तो उन्हें धवल यश एवं प्रतिष्ठा मिली दक्षिणप्रतीक है। उनके चरित के माध्यम से संस्कृत, प्राकृत, भारत मे । उत्तर भारतीय उस महापुरु अपभ्रंश, कब, राजस्थानी एव हिन्दी के कवियों ने सम• अंकन, चाहे वह साहित्यिक हो पौर चाहे शिल्पकलात्मक, कालीन राजनैतिक, सामाजिक एव पारिवारिक विविध उसे प्रथमतः एवं अधिकांशत: दक्षिण भारतीयों ने ही पक्षों को मार्मिक-शैली मे मुखरित किया है। राजनैतिक विशेष स्पेण किया है। उनकी लेखनी एवं छनी से ही दृष्टि से पोदनपुर में उनकी प्रादर्श राज्य-व्यवस्था, सामन्ती उनका काव्यात्मक, कलात्मक, पाकर्षक एवं धवल रूप युग में भी प्रजातन्त्रीय विचारधारा तथा शत्रु राजामों के इतना भव्य बन सका कि उनको देखते, सुनते एवं पढ़ते समक्ष बल, वीर्य, पुरुषार्थ एवं पराक्रम का प्रदर्शन अपना ही भावुक हृदय पाठक भाव विभोर हो उठता है। पाठवीं विशेष महत्त्व रखता है। सामाजिक दृष्टि से ब्राह्मी एवं सदी के गंग नरेश राचमल्ल के परम विश्वस्त मन्त्रो महासुन्दरी नाम की अपनी बहिनों के साथ उनका ७२ कलामो मति चामुण्डराय प्रथम महापुरुष थे, जिन्होने अपनी का प्रहण वस्तुतः उनको स्वस्थ, बलिष्ठ, सुरुचि सम्पन्न तीर्थस्वरूपा माता की कल्पना को साकार बनाने हेतु सवेएवं समृद्ध समाज की परिकल्पना को प्रतीक है। इसी प्रथम ५७ फीट ऊँची बाहुबलि की भव्य मूर्ति का निर्माण प्रकार उनका पारिवारिक जीवन भी बड़ों के प्रति प्रादर- श्रमणबेलगोल (कर्नाटक) में करवाया। कला के क्षेत्र मे सम्मान की भावना के साथ-साथ स्वतन्त्र एवं स्वाभिमानी यह युक्ति सुप्रसिद्ध है कि- "मति जब बहुत विशाल होती जीवन जीने का एक पादशं उदाहरण प्रस्तुत करता है। है, तब उसमे सौन्दर्य प्राय: नहीं हो मा पाता है। यदि अध्यात्म-साधना की दृष्टि से भी उनका विषम-उपसर्ग- विशाल मति में सौन्दर्य मा भी गया तो उसमें देवीसहन तथा कठोर तपश्चरण करने का उदाहरण अन्यत्र चमत्कार का प्रभाव रह सकता है, किन्तु गोम्मटेश्वर खोजे नहीं मिलता। विश्व में इस प्रकार के उदात्त एवं बाहुबलि की मति मे तीनों तत्वों के मिश्रण से उसमे अपूर्व सर्वागीण जीवन बिरले ही मिलते है। जो होंगे भी, उनमे छटा उत्पन्न हो गई है।" (दे० श्रवणवेल्लोल शिलालेख बाहुबलि का स्थान निस्सन्देह ही सर्वोपरि है। यही कारण सं० २३४)। है कि एक पोर जहाँ युगों-युगों से साहित्यकार अपनी हमारा जहाँ तक अध्ययन है, बाहुबलि की (मर्थात् साहित्यिक कृतियों में उन्हे महानायक के रूप में चित्रित गोम्मटेश्वर की) यही सर्व प्रथम निर्मित एवं उत्तुंगकाय कर अपनी भावभीनी श्रद्धाञ्जलिया व्यक्त करते रहे, तो सन्दरतम प्राचीन मूर्ति है। इससे प्रेरित होकर धीरे-धीरे दूसरी मोर शिल्पकार भी अपने शिल्प-चातुर्य पूर्ण विशाल. पन्यत्र भी बाहुबलि की मूर्तियों का निर्माण होने लगा। मतियो का निर्माण कर उनके चरणों में निरन्तर अपनी दक्षिण भारत को इस परम्परा ने उत्तर-भारत को भी पूज्य बुद्धि व्यक्त करते रहे। पर्याप्त प्रेरित प्रभावित किया है और अब यत्र-तत्र बाहुबलि पानिक भाषा मे कह सकते है कि भ. बाहलि की मर्तियों का निर्माण होने लगा है। प्रारम्भ में ये भारतीय भावात्मक एकता के प्रतीक रहे हैं। यदि वे मूर्तिया पाषाण से निर्मित होती थी किन्तु अब पातु की उत्तर भारत के अयोध्या में जन्मे पोर पोखमपूर, जो कि भी प्रतिमाएं बनने लगी हैं। वर्तमान में सम्भवतः पाक्स्तिान में कहीं पर स्थित है,से बाहुबलि-चरित के लेखन के प्रमाण ईस्वी की प्रथम

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