Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 234
________________ गोम्मटेइबर बाहुबली स्वामी पोर उनसे संबंधित साहित्य मूति देवगढ़ के शातिनाव मन्दिर में है, जिसकी विशेषता दृश्य भी शिल्प-चित्रों में दिखाए गए है। यह है कि इसमें बामी, कुमकुट, सर्प व लतामों के अतिरिक्त बाहबली स्वामी के उदात्त चरित्र को लेकर साहित्यमूर्ति पर रेंगते हुए विच्छ, छिपकली प्रादि जीव-जन्तु मी रचना भी हुई है। कई कवियों पोर लेखको ने उनके मंकित किए गए हैं और इन उपसर्गकारी जीवों का चरित्र को अपनी रचनामों का माध्यम बनाया है। श्री निवारण करते हुए एक देव युगल भी दिखाया गया है।' लालचंद भगवान गांधी ने अब तक भरत-बाहुबली पर सबसे विशाल मोर सुप्रसिद्ध मैसूर राज्य के श्रवण- प्राधारित साहित्य पर विस्तार से विचार किया है। सक्षेप बेलगोला'विष्यगिरि पर विराजमान वह पाषाण मूर्ति है,' मे यह साहित्य इस प्रकार है . जिसको दक्षिण के गंग नरेश के महामात्य चामुण्डराय ने (१) विमलसूरि कृत 'पउम चरिउ' के चौथे उद्देश्य १०.. वर्ष पूर्व उस्कोणित करवाया था। एक ही शिला में ऋषभ चरित के साथ भरत और बाहुबली के अधिकार को काट कर इसका निर्माण किया गया था। यह मनोज की सक्षेप मे सूचना मिलती है। प्रतिमा ५७ फुट ऊंची है और उस पर्वत पर दूर से दिखाई (२) घनेश्वर सूरि के ग्रथ 'शत्रुजय महावलभी' के देती है। मूर्ति की सुडौलता, मनोज्ञता तथा शांत मुखमुद्रा तृतीय सर्ग में दोनो के युद्ध का वर्णन है। देखते ही बनती है। यह 'गोम्मटेश्वर' भी कहलाती है। (३) वि० स० ७३३ मे जिनदास गाणी की प्राकृतदूसरे अंगों का संतुलन, मुख का शान्त पौर प्रसन्नभांव, भाषा मे चूर्णि नामक व्यख्या में दोनों का चरित्र वर्णित है। वल्मीक व माधवी लता की लपेटने इतनी सुन्दरता को लिए (४) रविषेणचार्य रचित पपचरित पुराण में दोनों हुए हैं कि जिनकी तुलना अन्यत्र कही नहीं पाई जाती। का युद्ध वर्णन है। सीलिए इसके वीतराग अंग-सौष्ठव और मनोज्ञता को (५) दिगम्बर कवि जिनसेन के 'मादि पूरा कवि भारतीय तथा पाश्चात्य सभी विद्वानो ने सराहा है। पुष्पदंत के 'त्रिसद्धि महापुरिस-गुणाल कार' तथा हेमचन्द्र के इसके महामस्तकाभिषेक का मंगलानुष्ठान प्रायोजित कर 'त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र' के प्रथम पर्व भो इस सबध धर्मानुरागी जन-व्याषियों को पराभूत करने में समर्थ होते में उल्लेखनीय है। यह मतिं विश्व का माठवां पाश्चर्य मानी जाती है। (६) सोमप्रभाचार्य के 'कुमारपाल प्रतिबोध', (१२४१) समति के अनुकरण पर कारकल में एक पर्वत पर विनय चन्द्रसूरिकृत 'प्रादिनाथ चरित'; जिनेन्द्र रचित सन १४३२ ई० मे ४२ फुट ऊंची तथा बेणूर में १६०४ 'पद्मनन्त महाकाव्य', मेरुतुंग रचित (१४०१) 'स्तमनेन्द्र ई० में ३५ फुट ऊंची प्रन्य दो विशाल पाषाण प्रतिमाएं प्रबंध'; जयशेखर सूरि कृत (१४३६) 'उपदेश चिन्ताप्रतिष्ठित की गई थीं। कारीगरी की दृष्टि से ये भी मणि' को टीका; (१४वी शती) गुणरत्नमूरि (१५३०) दर्शनीय हैं। बीरे-धीरे बाहबली जी की मूर्तियो का प्रचार के 'ऋषभ चरित्र' तथा 'भरतश्वर बाहुबली पवाड़ा'; उत्तर भारत में भी होता जा रहा है।" श्रावक ऋषभदास (१६७८) के 'भरतेश्वर रास' तथा उपर्युक्त मूर्तियों के अतिरिक्त पाबू को सं० १०८८ जिनहर्षगणि (१७५५) के 'शत्रुजय रास' मे भरत-बाहबली को विमल सही की शिल्पकला में भरत बाइबली-युद्ध के चरित वर्णित हैं।। १.दे.डॉ.हीरालाल जन का 'जैन मूर्ति कला' शीर्षक लेख। ५.३० श्री लालचद भगवान गांधी द्वारा सपादित २. यह कन्नड़ी शब्द है। विन्ध्यगिरि पौर चन्द्रगिरि भरतश्वर वाहुबली राम, प्रस्तावना पृ० ५७-५८ । पर्वतों के मध्य एक चौकोर तालाब है, जहाँ श्रमण ६. उपर्यस्त रचनापो के विशेष विस्तार के लिए दे. ठहरा करते थे। इसी से यह नाम पड़ गया। श्री लालचंद भगवान गांधी द्वारा सपादित-भरतेश्वर ३. जिस पर्वत पर यह मूर्ति है, उसे विविध तीर्थ कल्प मे बाहुबली राम को प्रस्तावना, पृ. ५३-५६ । वस्तुतः ___ 'अष्टापद गिरि कहा गया है । (३० पृ० ६६,२०८ । इन दोनो चरितनायकों पर ख्यातक्त लिखने की ४... मतिं का शीर्षक लेख, वर्षमान, पृ. १०३। परम्परा क्रमशः १८वीं शती तक सुरक्षित मिलती है।

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