Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

Previous | Next

Page 203
________________ ७६, बर्ष ३३, कि०४ अनेकान्त जिस समय दिन होता है, उस समय अमरीका में रात असंख्यात समय बीत जाते हैं। दूसरा उदाहरण यह भी होती है, और जिस समय भारत में रात होती है, दे सकते हैं-कमल के हजार पत्तों को क्रमश: एक-दूसरे के तब अमरीका में सूर्य चमकता है। २२ जून को जब ऊपर रखकर एक तीक्षण नोक वाली बड़ी सुई को उन भारत में चौदह घन्टे का दिन और दश घण्टे पर रखकर जोर से दबाएं तो पलक झपकते ही या क्षण की रात होती है, तब ना देश के पोखलो प्रदेश मे भर में वह सुई हजारो कमल-पत्रों को छेद कर एक सिरे चौबीस घण्टे सयं की मुनहली धूप नजर पाती है, से दूसरे मिरे पर पहुंच जाती है। परन्तु जैन-दर्शन की और २२ दिसम्बर को जब भारत मे पौदह घण्टे को मान्यता के अनुसार इस प्रक्रिया में एक दो या दस-बीस रात और दस घण्टे का दिन होता है, तब पोखलो चौबीस नहीं, असंख्यात समय लगते है। समय इतना सूक्ष्म है कि ही घण्टे रात्रि के अन्धकार में दुबा रहता है। जब वायु- हम उसे देख नही सकते । परमाण रूपी है. मूर्त है,वर्ण, यान एवं पानी के जहाज यूरोप से भारत की ओर भाते गंध, रस एवं स्पर्श से युक्त है, फिर भी हम उसे पांखो हैं या भारत से यूरोप की यात्रा पर जाते है, तब जिस से देख नही सकते । तब समय, जो कि मरूपी है, प्रमूर्त है समय वे भूमध्य रेखा पर पहुंचते हैं, उस समय तुरन्त वे मौर वर्णादि से रहित है, उसे तो हम तब तक देख नहीं अपनी-अपनी घड़ियों के समय और केलेण्डर की तारीख सकते, जब तक सर्वज्ञ नहीं बन जासे । केवल ज्ञान में को बदल लेते है । इस प्रकार का भेद प्रधान व्यवहार कोई भी पदार्थ एवं द्रव्य-भले ही वह कितना ही सूक्ष्म काल को प्रखण्ड न मानकर खण्ड रूप मानने पर ही हो । क्यो न हो, प्रज्ञात नहीं रहता अदृश्य नहीं रहता प्रतः पाता है। समय को हम देख नहीं सकते, पर सर्वज्ञ देख सकते है । कालोर समय: पागम-साहित्य में काल के लिए दो शब्दों का प्रयोग काल का लक्षण : मिलता है-काल मौर समय । काल स्थूल है और समय प्रागम मे काल का लक्षण 'वर्तना' कहा है। जीव, सूक्ष्म है। काल प्रवाह रूप है, समय प्रवाह से रहित है। पुदगल प्रादि द्रव्यों के परिणमन में, परिवर्तन मे काल काल अनन्त है और समय उसका सबसे छोटा हिस्सा है, सहायक (Helper) द्रव्य है । प्राचार्य उमास्वाति ने जिसके दो भाग नहीं हो सकते । प्रतीत की अपेक्षा से तत्वार्थ सूत्र मे कहा है कि जीव और पुद्गल पर वर्तना, मनन्त-काल व्यतीत हो चुका और अनागत की दृष्टि में परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व भादि मे काल का उपमनन्त-काल धीरे-धीरे क्रमशः पाने वाला है । परन्तु समय कार है।' द्रव्य में परिवर्तन, परिणमन प्रादि जो कार्य में भूत और भविष्य अथवा अतीत और अनागत के भेद होते है वे सब काल के निमित्त से होते हैं । गोम्मटसार में को अवकाश ही नही है । समय, वर्तमान काल का बोधक भी लिखा है कि द्रव्य काल के कारण ही निरन्तर अपने है। वर्तमान काल मात्र एक समय का होता है। प्रागमो स्वरूप मे रहते हुए द्रवित होते है, प्रवाहमान रहते हैं। में समय का माप इस प्रकार बताया है-एक परमाणु को विश्व मे स्थित षड्-द्रव्यो में जो सत् हैं, उनका सतत एक प्रकाश प्रदेश पर से दूसरे पाकाश-प्रदेश पर जाने में प्रवाह रूप में रहते हुए भी अपने स्वरूप में स्थित रहना जितना समय (Time) लगता है, वह एक समय है। और सभी द्रव्यो में निरंतर परिवर्तन होना-जो परिलक्षित इसे समझाने के लिए प्राचार्यों ने यह उदाहरण भी दिया होता है, वह काल के कारण हो होता है। यह काल द्रव्य है कि हमारी प्रांखो की पलकें झपकती रहती हैं, वे खुलती का ही गण है कि उसके कारण अन्य द्रव्यों में परिवर्तन पौर बन्द होती रहती हैं। प्रांख के झपकने में प्रथवा (Change) होता है । परन्तु यह ध्यान रखना खलने और बाद होने में जो समय लगता है, उसमें चाहिए कि काल (Time) कभी भी अन्य द्रव्यो में १. वत्तना लक्खड़ो कालो। -उत्तराध्ययन सूत्र, २८.१०. २. तत्वार्थ सूत्र, ५ २२. ३. गोमट्टहार, जीवकाण्ड ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258