Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 197
________________ ७०, ३३, किरण ४ अनेकान्त होती हैं। दूसरे शब्दों में जैन सन्त समन्वय पोर समता प्रात्मा की स्वच्छता का विकार है। किन्तु मोह के निमित्त के मादर्श होते हैं। उनमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र का से यह जैसा-जसा परिणमन करती है, वैसी वैसी परिणति समन्वय तथा सुख-दुःखादि परिस्थितियों मे समताभाव पाई जाती है। जिस प्रकार स्फटिक मणि श्वेत तथा स्वच्छ लक्षित होता है। उनका चारित्र गग-द्वेष, मोह से रहित होती है, किन्तु उसके नीचे रखा हुप्रा कागज लाल या होता है इस प्रकार अन्तरग और बहिरग-दोनो से हरा होने से वह मणि भी लाल या हरी दिखलाई पड़ती पाराधना करते हुए जो वीतराग चारित्र के अविनाभूत है, इसी प्रकार प्रात्मा अपने स्वभाव में शुद्ध, निरञ्जन निश शुद्धात्मा की भावना करते है उन्हे साधु कहते है। चैतन्यस्वरूप होने पर भी मिथ्यादर्शन, प्रज्ञान और उत्तम साधु स्वसंवेदनगम्य परम निर्विकल्प समाधि में निरत प्रव्रत-इन तीन उपयोग रूपों मे अनादि काल से परिणत रहते हैं। जानानन्द स्वरूप का साधक माघ प्रात्मानन्द को हो रही है। ऐसा नही है कि पहले इसका स्वरूप शुद्ध प्राप्त करता ही है । प्रतः सर्व क्रियानों से रहित साधु को था, कालान्तर में प्रशुद्ध हो गया हो। इस प्रकार मिथ्याज्ञान का प्राश्रय ही शरणभूत होता है। कहा भी है--- दर्शन, अज्ञान और प्रविरति तीन प्रकार के परिणामजो परमार्थ स्वरूप ज्ञानभाव में स्थित नही है, वे भले ही विकार समझना चाहिए'। इनसे युक्त होने पर जीव जिस. व्रत, संयम रूप तप आदि का प्राचरण करते रहे. किन्तु जिस भाव को करता है, उस उस भाव का कर्ता कहा यथार्थ मोक्षमार्ग उनसे दूर है। क्योंकि पुण्य-पाप रूप जाता है। किन्तु प्रवृत्त मे चेतन-प्रवेतन भिन्न-भिन्न हैं। शुभाशुभ क्रियानों का निषेष कर देने पर कर्मरहित शुद्धो- इसलिए इन दोनों को एक मानना प्रज्ञान है और जो इन्हें पयोग की प्रवृत्ति होने पर साधु प्राश्रयहीन नहीं होते। (पर पदार्थों को) अपना मानते हैं, वे ही ममत्व बुद्धि कर निष्कर्म अवस्था में भी स्वभाव रूप निविकल्प ज्ञान ही महकार-ममकार करते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि उनके लिए मात्र शरण है। प्रत: उस निर्विकल्प ज्ञान मे कर्तत्व तथा अहंकार के मून मे भोले प्राणियों का प्रज्ञान तल्लीन साधु-सन्न स्वयं ही परम सुख का अनुलव करते हो है। इसलिये जो ज्ञानी है, वह यह जाने कि पर द्रव्य है। दुःख का कारण पाकुलता है और सुख का कारण मे प्रापा मानना ही प्रज्ञान है। ऐसा निश्चय कर सर्व है.-निराकूलता। प्रश्न यह है कि प्राकुलता क्यों होती कतत्व का त्याग कर दे" । वास्तव मे जैन साधु किसी का है? समाधान यह है कि उपयोग के निमित्त से प्राकुलता. भी, यहाँ तक कि भगवान को भी अपना कर्ता नहीं मानता निराकलता होती है। उपयोग क्या है ? ज्ञान-दर्शन रूप है। कर्म की धारा को बदलने वाला वह परम पुरुषार्षी ध्यापार उपयोग है। यह चेतन मे ही पाया जाता है, होता है। सतत ज्ञान-धारा में लीन होकर वह अपने प्रचेतन मे नही क्योंकि चेतना शक्ति ही उपयोग का कारण प्रात्म-पुरुषार्थ के बल पर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। प्रनादि काल से उपयोग के तीन प्रकार के परिणाम है। प्रात्म-स्वभाव का वेदन करता हुमा जो अपने में ही १. "माभ्यन्स निश्चयचतुर्विधाराधनाबलेन च बाह्या- तदा ज्ञाने ज्ञान प्रतिचारतमेषा हि शरणम् भ्यन्तर मोक्षमार्गद्वितीयनामाभिधेयेन कृत्वा यः कर्ता स्वय विन्दन्नेते परममृत तत्र विरत ॥ वीतरागचारित्राविनाभूतं स्मशुद्धात्मानं साधयति भाव समयसारकलश श्लोक १-४। यति स साधर्भवति ।" ३. उवभोगस प्रणाइं परिणामा तिष्णिमोहजुत्तस्स । -वृहद्रव्यसंग्रह, गा० ५४ की व्याख्या मिच्छत्तं अण्णाण अविरदिभावो य णायबो॥ तपा-- दसणणाणसमग्गं मम्मं मोक्खस्स जोह चारित्त । समयसार, गा० ८६ साधयदि णिच्चसुदं साह स मणी णमो तस्स ।। ४. एदेण दु सो कत्ता मादा णिच्छयविहि पारिकहिदो। २. निषिद्ध सर्वस्नि सुकृतदुरिते कर्मणि किल एवं खलु जो जाणदि सो मुंचदि सम्बकत्तित्तं ॥ प्रवृत्ते नष्क न खलु मुनयः सन्स्यशरणाः। वही, गा०६७

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