Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 196
________________ जैन-परम्परा में सन्त मोर उमको पापना-पाति व्यवहार-दोनों प्रकार से किया गया है। ये ही दोनों पर अग्रसर हो सकता है। अनेकान्त के मूल है। जैनधर्म की मूलधारा वीतरागता से उपलक्षित साधना : क्रम व भेद वीतराग परिणति है। उसे लक्षकर जिस साधना-पद्धति जिस प्रकार ज्ञान, ज्ञप्ति, ज्ञाता पोर ज्ञेय का प्रतिपादन का निर्वचन किया गया है, वह एकान्तत: न तो ज्ञानप्रधान किया जाता है, उसी प्रकार से साधन, साधना, साधक भौर है, न चारित्रवान पोर न केवल मुक्ति-प्रधान । वास्तव साध्य का भी विचार किया गया है। साधन से ही साधना मे इसमे तीनों का सम्यक् समन्वय है। दूसरे शब्दों में यह का क्रम निश्चित होता है। साधना का निश्चय साध्य-साधक कहा जा स ता है कि यह सम्यक दर्शन-ज्ञानमूलक चारित्र सबंध से किया जाता है। सबध द्र०, क्षेत्र, काल और प्रधान साधन-पद्धति है। यथार्थ मे चारित्र पुरुष का दर्पण भाव के प्राधार पर निश्चित किया जाता है। जहाँ पर है। चरित्र के निर्मल दर्पण मे ही पुरुष का व्यक्तित्व अभेद प्रधान होता है और भेद गौण अथवा द्रव्य, क्षेत्र, सम्यक प्रकार प्रतिविम्बित होता है। वास्तव में चारित्र काल तथा भाव की प्रत्यासत्ति होती है, उसे संबध कहते ही धर्म है। जो धर्म है वह साम्य है-ऐसा जिनागम मे हैं। स्वभाव मात्र स्वस्वामित्वमयी संबंध शक्ति कही जाती कहा गया है। मोह, राग-द्वेष से रहित मात्मा का परिणाम है। साधना के मूल में यही परिणमनशील लक्षित होती साम्य है। जिस गुण के निर्मल होने पर अन्य द्रव्यों से है। जैन दर्शन के अनुसार मनुष्य मात्र का साध्य कर्म क्लेश भिन्न सच्चिदानन्द विज्ञानघनस्वभावी कालिक ध्रुव प्रात्मसे मुक्ति या प्रात्मोपलब्धि है। अपने ममाघारण गुण से चैतन्य को प्रतीति हो, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । सम्यग्दर्शन युक्त स्व-पर प्रकाशक प्रात्मा स्वयसाधक है। दूसरे शब्दो से के साथ प्रविनाभाव रूप से भेद-विज्ञान युक्त जो है, वही शुद्ध पात्मा को स्वतः उपलब्धि साध्य है पोर शुद्ध प्रात्मा सम्यग्ज्ञान है तथा राग-द्वेष योगों की निवृत्ति पूर्वक साधक है । प्रात्मद्रव्य निर्मल ज्ञानमय है जो परमात्मा रूप स्वात्म स्वभाव में संलीन होना सभ्याचारित्र है । ये तीनों है'। इस प्रकार साध्य को सिद्ध करने के लिए जिन अंतरग साधन क्रम से पूर्ण होते है। सर्वप्रथम सभ्यग्दर्शन की और बहिरंग निमित्तों का पालम्बन लिया जाता है, उनको पूर्णता होती है, तदनन्तर सम्यग्ज्ञान को अन्त में सम्यकसाधन कहा जाता है और तद्रूप प्रवृत्ति को साधना कहते चारित्र में पूर्णता होती है। प्रतएव इन तीनो की पूर्णता हैं। जैनधर्म को मूलधुरी वीतरागता की परिणति में जो होने पर ही प्रास्मा विभाव-भावो तथा कर्म-बन्धनों से मुक्त निमित्त होता है, उसे ही लोक मे मावन या कारण कहा होकर पूर्ण विशुद्धता को उपलब्ध होता है। यही कारण जाता है। वीतरागता की प्राप्ति मे सम्यग्ज्ञान प्रौर है कि ये तीनो मिल कर मोक्ष के साधन माने गए हैं। सम्यकचारित्र व तप साधन कहे जाते हैं। इनको ही इनमे से किसी एक के भी प्रपूर्ण रहने पर मोक्ष नहीं हो जिनागम में प्राराधना नाम दिया गया है। माराधना का सकता । मूल सूत्र है-वस्तु-स्वरूप की वास्तविक पहचान । जिसे जैनधर्म विशुद्ध प्राध्यात्मिक है। प्रतः जैन साधु-सन्तों मात्मा की पहचान नहीं है, वह वर्तमान तथा अनुभूयमान की चर्या भी प्राध्यात्मिक है। किन्तु प्राय सन्तों से इनकी शद दशा का बोध नहीं कर सकता। प्रतएव सकर्मा तथा विलक्षणता यह है कि इनका प्रध्यात्म चरित्र निरपेक्ष नहो प्रबध-दोनों ही दशाओं का वास्तविक परिज्ञान कर है। जन सन्तों का जीवन पथ से इति तक परमार्थ चारित्र साधक भेद-विज्ञान के बल पर मुक्ति की प्राराधना के मार्ग से भरपूर है। उनकी मभी प्रवृत्तियाँ व्यवहार चारित्र १. जेहउ णिम्मल भाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ । दंस तवाणमाराहणा भणिवा ।। तेहउ णिवसह बंभु पर देहहं म करि भेउ ।। भगवती पाराधना, ०१, गा० २ ३. चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिहिट्रो। परमात्मकप्रकाश,१,२६ । मोहनखोह विहीणो परिणामो अपणो हु समो॥ २. उज्जोवणमुज्जवणं णिन्वहणं साहणं च णिच्छरणं । प्रवचनसार, गा०७

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