Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

Previous | Next

Page 177
________________ किया। प्रमोषवर्ष प्रथम के समय में राष्ट्रकर की राज- उसकी बहुत सहायता की थी। विष्णवद्धन की रानी पानी में 'हरिबशपुराण', 'पादिपुराण' पोर उत्तर पुराण, शान्तलादेवी जैनाचार्य प्रभाचन्द्र की शिष्या यी पौर पकलंक चरित, जयघवला टीका मादि ग्रंथों की रचना विष्णुवर्द्धन के मत्री गगराज पोर हल्ला ने जैनधर्म का जयपवला टीका दिगम्बर जैन सिद्धांत का एक बहुत प्रचार किया प्रत: इसमे कोई सन्देह नही है कि पहले है। यहीं पर वीराचार्य ने गणित शास्त्र का होयसल नरेश जैन थे। विष्णबद्धंन अपरनाम 'विट्रो' मारपर' नाम का एक प्रथ रचा। प्रमोघवर्ष ने स्वय रामानुजाचार्य के प्रभाव मे पाकर वैष्णव हो गये। विट्रो निसार एक प्रश्नोतर रत्नमालिका' बनाई । वैष्णव होने से पहले कदर जैन था और वैष्णव शास्त्रों मे संप मे, प्रमोषवर्ष (प्रथम) के समय में यह कहा जाता उसका वैष्णव हो जाना एक पाश्चर्यजनक घटना कही है कि उसने दिगम्बर जैनधर्म स्वीकार किया था पोर वह जाती है। इस कहावत पर विश्वास नही किया जाता कि नने समय में दिगम्बर जैनधर्म का सर्वश्रेष्ठ संरक्षक था। उसने रामानुज का पाना स जैनो को सन्ताप दिया: जातीय) के राज्यकाल में उसकी प्रजा पोर सर- क्योकि उसकी रानी शान्तलादेवी जैन रही मोर विष्णवद्धन होने या तो स्वय मन्दिर बनवाये, या बने हुए मन्दिरों को प्रनमति में जनता किया। क सवत ८२० मे गुणभद्राचार्य के शिष्य के मंत्री गगराज की सवाएँ जैनघम के लिए प्रस्य त है। लोकसेन ने महापुराण की पूजा की। विष्णवद्धन ने वैष्णव हो जान के पश्चात स्वय जैन मंदिरो यपि कल्याणी के चालुक्य जैन नही थे, तथापि हमारे को दान दिया, उनकी मरम्मत कराई मोर उनकी मतियो पास सोमेश्वर (प्रथम) १०४२ से १०६८ ई० का उत्तम भोर पुजारियो की रक्षा की। विष्णुवर्द्धन के सम्बन्ध में उदाहरण है, जिन्होंने प्रवणबेल्गोल के शिलालेखानुसार यह कहा जा सकता है कि उस समय प्रभा को धर्म सेवन जैनाचार्य को 'शम्बचतुर्मुस' की उपाधि से विभूषित की स्वतत्रता था। विष्णवद्धन के उत्तराधिकारी यद्यपि कियावास शिलालेख मे सोमेश्वर को 'पाहबमल्ल' वैष्णव थे तो भी उन्होन जैन मदिर बनाये मोर नाचार्यों की रक्षा की। उदाहरण के तौर पर नरसिंह (प्रथम) तामिल देश के चोल राजापों के सम्बन्ध में यह राज्यकाल ११४३ से ११७३, वीरवल्लभ (द्वितीय) निराधार है कि उन्होंने जैनधर्म का विरोध किया। राज्यकाल ११७३ से १२२० और नरसिंह (तृतीय) जिनकांची के शिलालेखों से यह बात भली प्रकार विदित राज्यकाल १२५४ से १२६१। होती है कि उन्होंने प्राचार्य चन्द्रकीति पोर भनवस्यवीर्य विजयनगर के राजाप्रो की जनधर्म के प्रति भारी बर्मन की रचनामो की प्रशसा की। चोल राजापो द्वारा महि सहिष्णता रही है। अतः वे भी जैनधर्म के सरक्षक थे। जिनकाची के मन्दिरो को पर्याप्त सहायता मिलती रही है। बुक्का (प्रथम) राज्यकाल १३५७ स १३७८ ने अपने कलचूरि वंश के संस्थापक त्रिभुवनमाल विज्जल समय में जनो भीर बंष्णवो का समझौता कराया। इससे राज्यकाल ११५६ से ११६७ ई.के तमाम दान-पत्रो मे यह सिद्ध है कि विजयनगर के राजामा की जैनधर्म पर एक बन तीर्थंकर का चित्र मकित बा। वह स्वयं जन अनुकम्पा रही है। देवराय प्रथम को सनी विम्मादेवी पा। प्रनंतर वह अपने मत्री वासव के दुप्रयत्न से मारा जैनाचार्य अभिनवचारुकीति पहिताचार्य को शिष्या रही है गया; क्योकि उसने वासव के कहने से नियों को संताप चोर उसोन श्रवणबेलगोल मे शातिनाथ की मूर्ति स्थापित देने से इनकार कर दिया था। बासव लिंगायत सम्प्रदाय कराई। का संस्थापक था। बुक्का (द्वितीय) राज्यकाल १३८५ से १४०६ के मैसर केहोरयल शासक जैन रहे हैं। विनयादिश्य सेनापति इरुगुप्पा ने एक सांची के शिलालेखानुसार सन् (द्वितीय) राज्यकाल १०४७ से ११.०० तक इस वंश १३८५ ईस्वी मे जिनकाची मे १७वं तीपंकर भगवान् का ऐतिहासिक व्यक्ति रहा है। बंगाचा शान्तिदेव ने बनाय का मन्दिर और संगीतालय बनवाया। इसी

Loading...

Page Navigation
1 ... 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258