Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 150
________________ भगवान् बाहुबली को शल्य नहीं थी प्रायिकारल ज्ञानमती माताजी भगवज्जिसेनाचार्य ने महापुराण में भगवान् बाहुबली किसी-न-किसी ऋद्धि से समन्वित मुनि केही होता है।" के ध्यान के बारे में जैसा वर्णन किया है, उसके माधार माने भगवान जिनसेन सभी प्रकार की ऋद्धियों की से उनके शल्य मानना उनका प्रवर्णवाद है। सोही प्रगटता मानते हुए कहते हैंदेखिये "उनके तप के प्रभाव से पाठ प्रकार की विकयऋषि "एकल विहारी अवस्था को प्राप्त बाहुबली ने एक प्रगट हो गई थी भामर्शोषषि, जल्लोषषि, वेलोषधि वर्ष तक के लिये प्रतिमायोग धारण किया।" वे रस मादि मौषषियों के हो जाने से उन मुनिराज की समीपता गौरव, शब्द गौरव और ऋद्धि गौरव इन तीनों से रहित जगत का उपकार करने वाली थी यद्यपि वे भोजन नहीं थे, अत्यन्त निःशल्य थे' पोर दश धर्मों के द्वारा उन्हें करते थे तथापि शक्तिमात्र से ही उनके रसऋधि प्रगट मोक्षमार्ग में प्रत्यन्त दृढ़ता प्राप्त हो गई थी। हई थी। उनके शरीर पर लतायें चढ़ गई थीं। सो में ___ "तपश्चरण का बल पाकर उन मुनिराज के योग के बामियां बना ली थी और वे निर्मीक हो कीड़ा किया निमित्त से होने वाली ऐसी अनेक ऋद्धियां प्रगट हर्दबी, करते थे। परस्पर विरोधी तिथंच भी करभाव को छोर जिससे कि उनके तीनों लोकों में क्षोभ पैदा करने की करवातपित्त हो गए थे। विद्याधर लोग गतिभंग हो शक्ति प्रगट हो गई थी। मसिज्ञान को वृद्धि से कोष्ठबुद्धि जाने से उनका सदभाव जान लेते थे और विमान से पादि ऋद्धियां एवं श्रुतज्ञान की वृद्धि से समस्त मंगपूर्वी उतरकर ध्यान में स्थित उन मनिराज को बार-बार पूजा के जानने की शक्ति का विस्तार हो गया था। वे प्रषि करते थे। तप की शक्ति के प्रभाव से देवों के पासन भी ज्ञान में परमावषि को उल्लंघन कर सर्वावषि को पौर बार-बार कम्पित हो जाते थे जिससे ये मस्तक झुकाकर मनः पर्यय में विपुलमति मनः पर्यायज्ञान को प्राप्त नमस्कार करते रहते थे। कभी-कभी कीड़ा के लिये पाई हुई विद्यापारियां उनके सवं शरीर पर लगीहईलतामों सिद्धान्त अन्य का बह नियम है कि भावलिपीव को हटा जाती थीं। वृद्धिगत चरित्र वाले मुनि के ही सर्वावषिशान होता है "इस प्रकार धारण किये समीचीन धर्मध्यान के बल तया "विपुलमति मनः पर्यय तो वर्षमान परित्र वाले एव से जिनके तप की शक्ति उत्पन्न हुई है ऐसे में मुनि लेश्या १. प्रतिमायोगमावर्षमातस्थे किल संवृतः। ५. विक्रियाष्टतयी चित्रं प्रादुरासीतपोबलात् । महापुराण ३६.१०६ प्राप्तोष रस्यासीत् संनिधिजंगते हितः ।। २. गौरतस्विमिसन्मुक्तः परा निःशल्यतां गतः।वही, १३७ पामर्शवेल बल्लाः प्राणिनामुपकारिणः। ३. मतिज्ञानसमुत्कर्षात् कोष्ठबुद्धयादयोरमबम् । पनाशुषोपपि तसयासीद, रविशक्तिमात्रतः ।। श्रुतज्ञानेन विश्रयागपूर्वाविम्स्वादि विस्तारः॥ तपोबल समझता बलविरपि पप्रथे। परमावधिमुल्लंध्य स सर्वावषिमासरत् । -महापुराण ३६.१५२-५४ मनः पर्यय बोधेव संप्रापत् विपुला मतिम् ।। ६. विद्यापर्यः कदाधिबीगहेतोपागता।। पही, १४.४७ पम्मीलावेष्टयामासुर्मुनेः सर्वांगसंगिनीः ।। ४.तरवार्य रामपातिक, १.२५ -महापु०, ३६.१८१

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