Book Title: Anekant 1941 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 8
________________ १२६ अनेकान्त [र्ष ४ टिप्पणम् अज्ञपातभीतेन श्रीमद्बला [त्का] रगणश्री- ही न्यायकुमुदचंद्रकी रचना की है । मुद्रित प्रमेयकमसंघाचार्यसत्कविशिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना निजदोर्दण्डा- लमार्तण्डके अंतमें "श्री भाजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिभिभूत रिपुगज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य ।।१०२॥ इति वासिना परापरपरमेष्ठिपदप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिउत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्य (?) विरचितं राकृतनिखिलमलकलङ्केन श्रीमत्प्रभाचंद्रपण्डितेन निसमाप्तम् ।" खिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योतिपरीक्षामुम्बपदमिदं विवृप्रभाचन्द्रकृत टिप्पण जयसिंहदेवके गज्यमें लिखा तमिति ।" यह पुष्पिकालेग्य पाया जाता है। न्यायगया है। इसकी प्रशस्तिकं श्लोक रत्नकरण्डश्रावका- कुमुदचंद्रकी कुछ प्रतियोंमें उक्त पुष्पिकालेग्य 'श्री चारकी प्रस्तावनासे न्यायकुमुदचंद्र प्रथम भागकी भोजदेवगज्ये' की जगह 'श्रीजयसिंहदेवराज्य' पदके प्ररतावना (पृ० १२०) में उद्धत किये गये हैं। श्लोकों साथ जैसाका तैसा उपलब्ध है। अतः इस स्पष्ट लेख के अनन्तर-"श्रीजयसिंहदेवगज्ये श्रीमद्भागनिवासिना से प्रभाचंद्रका समय जयसिंहदेवकं राज्यके कुछ वर्षों परापरपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृताग्विल - तक, अन्ततः सन् १०६५ तक माना जा सकता है। मलकलङ्केन श्रीप्रभाचंद्रपण्डितेन महापुराणटिप्पणके और यदि प्रभाचंद्रने ८५ वर्षकी आयु पाई हो तो शतत्र्यधिकसहस्रत्रयपरिमाणं कृतमिति ।" यह पुष्पि उनकी पूर्वावधि सन् ९८० मानी जानी चाहिए | का लेख है । इस तरह महापुराण पर दोनों आचार्यों श्रीमान मुख्तारसा० तथा पं० कैलाशचंद्रजी प्रमेयके पृथक् पृथक् टिप्पण हैं । इसका खुलासा प्रेमीजीके कमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचंद्र के अंतमें पाए जान लेख'से स्पष्ट हो ही जाता है। पर टिप्पणलेखकने वाले उक्त 'श्रीभोजदेवराज्य और 'श्रीजयसिंहदेवराज्य' श्रीचंद्रकृत टिप्पणके 'श्रीविक्रमादित्य' वाले प्रशस्ति- आदि प्रशस्तिलेखोंको स्वयं प्रभाचंद्रकृत नहीं मानते । लेखके अंतमें भ्रमवश · इति उत्तरपुराणटिप्पणकं मुख्तारसा० इस प्रशस्तिवाक्यको टीकाटिप्पणकार प्रभाचंद्राचार्यविरचितं समाप्तम्' लिख दिया है। इसी द्वितीय प्रभाचंद्रका मानते हैं तथा पं० कैलाशचंद्र जी लिए डी० पी० एल० वैद्य, प्रो० हीरालालजी तथा इस पीछेके किसी व्यक्तिर्क करतूत बताते हैं। पर पं० कैलाशचंदजीने भ्रमवश प्रभाचंद्रकृत टिप्पणका प्रशस्तिवाक्यको प्रभाचंद्रकृत नहीं मानने में दोनोंके रचना काल संवत् १०८० समझ लिया है। अतः इस आधार जुदे जुदे हैं । मुख्तारसाहब प्रभाचंद्रका जिनभ्रांत आधारसे प्रभाचंद्रके समयकी उत्तरावधि सन् सनक पहिलेका विद्वान मानते हैं, इसलिए भोजदेव१०२० नहीं ठहराई जा सकती। अब हम प्रभाचंद्रकं राज्य' आदिवाक्य वे स्वयं उन्हीं प्रभाचंद्रका नहीं समयकी निश्चित अवधिक साधक कुछ प्रमाण उप- मानते । पं० कैलाशचंद्र जी प्रभाचंद्र को ईमाकी १० वीं स्थित करते हैं और ११वीं शताब्दीका विद्वान मानकर भी महापुराण १-प्रभाचंद्रने पहिले प्रमेयकमलमार्तण्ड बनाकर के टिप्पणकार श्रीचंद्रके टिप्पण के अंतिमवाक्यको १ देखो, पं० नाथूरामजी प्रेमी लिखित 'श्रीचन्द्र और . भ्रमवश प्रभाचंद्रकृत टिप्पणका अंतमवाक्य समझ प्रभाचन्द्र' शीर्षक लेख, अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ तथा २ रत्नकरण्डप्रस्तवना पृ० ५६-६० । महापुराण की प्रस्तावना पृ० xiv ३ न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भागकी प्रस्तावना पृ० १२२। -

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