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चाला अभी मिल सकता है, कहिए दूँ ?"
'ऐं ! बिल्कुल भर गया ?”
'हो ! कभी का! म्यूथियेटर्सका चित्र-पट है न ? 'क्या, स्टार्ट हो गया ?"
'अभी नहीं होने ही वाला है!'
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'तो'...! लाइए, देखता ही जाऊँ !' - श्रठनी जेब में डालकर एक रुपया और एस दुधी उनकी ओर बढ़ाई ! उन्होंने रुपया तख्ते पर मारा, और बोले'मिहरवान् ! दूसरा दीजिए !'
'क्यों ? क्या खराब है साहब, यह रुपया ?" 'आप बहस क्यों करते हैं, दूसरा दे दीजिए न ?” आखिर रुपया बदलना पड़ा, खराब न होते हुए और तब मैं टिकिट लेकर भीतर जा सका !
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अनेकान्त
भी !
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रातको लौटा तो ग्यारह बज रहे थे ! सिनेमा - गृहसे निकलने वाला जन-समूह समुद्रकी तरह उमड़ रहा था! उसीमें कोई गा रहाथा - 'बाबा, मनकी आँखें खोल !'
गाने वाला इस प्रयत्न में था कि अभी देखे हुए खेलमै गाने वाले की तरह गाले ! मगर ? - फिर भी वह गा रहा था। और अपनी समझमें - बड़ा सुन्दर !
मैं भी गुनगुनाने लगा 'बाबा, मनकी आँखें खोल ! 'हँय! यह मनकी शायें क्या होती है-भाई ?--
[ वर्ष ४
सोचने लगा- 'क्या देखा जाता है— उनसे - क्या मन...?”
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'पानी'...! पानी....!! आ! पानी !!! हे भगवान् ! मेरी सुधलो...! कोई मुझे''''पा'' ''नी''''!''
मैं किंकर रुक गया !
देखा तो वही परिचित भिखारी यंत्रणाओंसे घिरा हुआ, तड़प रहा है ! मेरे हृदयने एक साथ गाया-'बाबा, मनकी श्राँखें खोल !”
मैं ग्लानिको दूर हटाकर, उसके मुँह परसे कपड़ा हटाया। देखा तो चौंककर पीछे हट गया !
मन जाने कैसा होने लगा !
'ओह ! बेचारा प्यासा ही सो गया, और 'हाय ! सदाके लिये....!'.
ओठ खुले हुए थे--हाथ फैले हुए ! शायद मोन भाषा में कह रहा था -- 'एक पैसेके चने खाकर पानी पी लूँगाबाबूजी !
जी मैं श्राया—इसकी खुली हथेलियों में कुछ रख दूं ! पर, हृदयमें आन्दोलन चल रहा था— एक पैसा देकर इसकी जान न बचाई गई अठारह खाने! वहां
बाहरे, मनुष्य !
उफ़ !!!
रह-रह कर यह लाइन मनके भीतर उतरती चली गई. 'बाबा, मनकी आँखें खोल !'
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