Book Title: Anekant 1941 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनकान्त एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्धाननेत्रमिव गोपी॥ गुणमुख्य-कल्पा विधि-दृष्टि उभयानुभय-हाट अनकान्तात्मिका निपगडनुभय-हाष्ट स्याद्वादरुपिणी सापेक्षवादिनी विधेय उभयानुभयो तत्व उनका Pita निषेध्यानुभय/स्यात. अनेकान्तात्मक स्यात् LE,निषेध्य तत्त्व तत्त्व वस्तुतत्त्व पनुभयष्टि Pla Piket उभय-दृष्टि (क्रमार्थिता स्यात् अनुभय-दृष्टि (सहार्पिता) थातत्त्वप्ररुपिका उभयतत्त्व वावधनयापक्षा विधेयानुभय तत्त्व सत्तभगरुपा अनुभय तत्त्व Shukla सम्यग्वस्त-ग्राहिका वर्ष किरण २ विधेयं वार्य चाऽनुभयमुभयं मिश्रमपि तद्विशेषैः प्रत्येकं नियमविषयैश्वाऽपरिमितैः । सदाऽन्योऽन्यापेक्षैः सकलभुवनज्येष्ठगुरुणा त्वया गीतं तत्त्वं बहुनय-विवक्षेतरवशात् ॥ सम्पादक-जुगल किशोर मुरत्तार। १६४१ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ १३८ १३९ १४१ १४४ १४५ १५३ विषय-सूची विषय लेखक पृष्ठ १ जिन-प्रतिमा-वन्दन-[सम्पादकीय १२१ २ जैनी नीति ( कविता )-[पं० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य १२२ ३ प्रभाचंद्रका समय-[ न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जैन, ४ कवि राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल-[सम्पादकीय १३३ ५ अनेकान्त पर लोकमत- ... ६ समन्तभद्र-विचारमाला (२) वीतरागकी पूजा क्यों ?-[सम्पादकीय ७ कमेबंध और मोक्ष-[पं० परमानन्द जैन, शास्त्री ८ दुनिया का मेला (कविता)-[पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' । ९ जैन मुनियों के नामान्त पद-[ अगरचंद नाहटा, १० बाबा मनकी आंखें खोल (कहानी)-[श्री 'भगवत्' जैन १५१ ११ समन्तभद्र का मुनिजीवन और आपत्काल-[ सम्पादकीय १२ विचारपुष्पोद्यान - १६३, १७७ १३ पुण्य-पाप (कविता) १४ हल्दी घाटी (कविता)-[ श्री भगवत्' जैन १६४ १५ विवाह कब किया जाय? -[श्री ललिताकुमारी पाटणी ... १६५ १६ 'मुनिसुत्रनकाव्यके कुछ मनोहर पद्य-[पं० सुमेरचंद्र जैन, दिवाकर १७० १७ शैतानकी गुफामें साधु (कहानी)-[अनु० डा० भैय्यालाल जैन ... १८ संयमीका दिन और रात-[श्री 'विद्यार्थी' १८२ अनेकान्तकी सहायताके चार मार्ग की सामग्री जुटाना तथा उसमें प्रकाशित होने के लिये उप .. योगी चित्रोंकी योजना करना और कराना । (१) २५), ५०), १००) या इससे अधिक रकम देकर सम्पादक 'अनेकान्त' सहायकोंकी चार श्रेणियोमेसे किसीमें अपना नाम लिखाना । (२) अपनी अोरसे असमर्थीको तथा अजैन संस्थानों अनेकान्तके नियम को अनेकान्त फ्री (बिना मूल्य) या अर्धमूल्यमें भिजवाना १--इस पत्रका मूल्य वार्षिक ३), छह माइका २) और इस तरह दूसरोंको अनेकान्तके पढ़नेकी सविशेष प्रेरणा पेशगी है-वी. पी. से मंगाने पर वी. पी. खर्च के चार पाने करना । ( इस मद में सहायता देने वालोंकी अोरसे प्रत्येक अधिक होंगे। साधारण एक किरणका मूल्य ।। और दस रुपथेकी सहायताके पीछे अनेकान्त चारको फ्री अथवा विशेषांङ्कका 1) है। अाठको अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा। २--ग्राहक प्रथम किरण और सातवीं किरणसे बनाये (३) उत्सव-विवाहादि दानके अवसरों पर अनेकान्तका जाते हैं-मध्यकी किरणोंसे नहीं । जो बीच में ग्राहक बनेगे बराबर खयाल रखना और उसे अच्छी सहायता भेजना उन्हें पिछली किरणें भी लेनी होंगी। तथा भिजवाना, जिससे अनेकान्त अपने अच्छे विशेषाङ्क अनेकान्त' के विज्ञापन-रेट निकाल सके, उपहार ग्रन्योंकी योजना कर सके और उत्तम वर्ष भरका छह मासका एक बारका लेखों पर पुरस्कार भी दे सके । स्वत: अपनी ओर से उपहार परे पेजका ग्रन्थोंकी योजना भी इस मदमें शामिल होगी। श्राधे पेजका ४२) (४) अनेकान्त के ग्राहक बनना, दूसरोंको बनाना और चौथाई पेजका अनेकान्तके लिये अच्छे अच्छे लेख लिखकर भेजना, लेखों __ व्यवस्थापक 'अनेकान्त' Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ अहम् * त्त्व-सघातक विश्व तत्त्व-प्रकाशक नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः वर्ष ४ किरण २ ( वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर चैत्र, वीर निर्वाण सं० २४६७, विक्रम सं० १९६७ माचे १९४१ जिन-प्रतिमा-वन्दन विगतायुध-विक्रिया-विभूषाः प्रकृतिस्थाः कृतिनां जिनेश्वराणाम् । प्रतिमाः प्रतिमागृहेषु कान्स्याऽप्रतिमाः कल्मषशान्तयेऽभिवन्दे ॥ कथयन्ति कषायमुक्ति लक्ष्मी परया शान्ततया भवान्तकानाम् । प्रणमामि विशुद्धये जिनानां प्रतिरूपाण्यभिरूपमूर्तिमन्ति ॥ -चैत्यभक्ति पूतात्मा श्री जिनेन्द्रदेवकी जो प्रतिमाएँ श्रायुधसे रहित हैं, विकारसे वर्जित हैं और विभूषासे-वस्त्रालंकारोंसे-- विहीन हैं तथा अपने प्राकृतिक स्वरूपको लिये हुए प्रतिमागृहोंमें-चैत्यालयोंमें स्थित हैं और असाधारण कान्तिकी धारक हैं, उन सबको मैं पापोंकी शान्ति के लिये अभिवन्दन करता हूँ ॥ संसार-पर्यायका अन्त करने वाले श्री जिनेन्द्रदेवों को ऐसी प्रतिमाएँ, जो अपने मूर्तिमानको अपने में ठीक मूर्तित किये हुए हैं, अपनी परम शान्तताके द्वारा कषायोंकी मुक्तिसे जो लक्ष्मी--अन्तरंग-बहिरंग विभूति अथवा आत्मविकासरूप शोभा उत्पन्न होती है उसे स्पष्ट घोषित करती हैं, अतः अात्मविशुद्धिके लिये मैं उनकी वन्दना करता हूँ-ऐसी निर्विकार, शान्त एवं वीतराग प्रतिमाएँ अात्माके लक्ष्यभूत वीतरागभावको उसमें जाग्रत करने, उसकी भूली हुई निधिकी स्मृति कराने और पापोंसे मुक्ति दिलाकर आत्मविशुद्धि कराने में कारणीभूत होती हैं, इसीसे मुमुक्षुके द्वारा वन्दन, पूजन तथा अाराधन किये जानेके योग्य हैं । उनका यह वन्दन-पूजन वस्तुतः मूर्तिमानका ही वन्दन-पृजन है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनी नीति [ लेखक–५० पन्नालाल जैन 'वसन्त' साहित्याचार्य ] एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेत्रमिव गोपी ॥ एक दिवस अङ्गणमें मेरे मम चतुराई पर गोपीने गोपी मन्थन करती थी, मन्द मन्द मुस्कान किया, 'कल-छल कल-छल' मंजुलध्वनिसे फिर भी मैंने तत्क्षण उसकोअविरल गृहको भरती थी। ___एक अन्य आदेश दिया । उज्ज्वल दधिसे भरे भाण्डमें अब खींचो तुम दोनों करसेपड़ा हुआ था मन्थन-दण्ड, . .. एक साथ कढ़नीके छोर, अायत-मृदुल-मनोहर कढ़नी दृष्टि सामने सुस्थिर रक्खोसे करता था नृत्य अखण्ड । नहीं घुमात्रो चारों ओर । गोपीके दोनों कर-पल्लव गोपीने दोनों हाथोंसे क्रमसे कढ़नी खींच रहे, कढ़नीको खींचा ज्यों ही, चन्द्र-बिम्ब-सम उज्ज्वल गोले मथन-दण्ड भी निश्चल होकर मक्खनके थे निकल रहे । खड़ा रहा तत्क्षण त्यों ही। मैंने जाकर कहा गोपिके ! सारी मन्थन-क्रिया रुकी अरु दोनों करका है क्या काम ? कल-छलका ख बन्द हुआ ! दक्षिण-करसे कढ़नी खींचों, अपनी चतुराई पर मुझको अचल रखो अपना कर बाम । तब भारी अफ़सोस हुश्रा ! ज्यों ही ऐसा किया गोपिने गोपीने मन्थन-रहस्य तबत्यों ही मन्थन नष्ट हुश्रा, हँसकर मुझको बतलाया; कढ़नी दक्षिण-करमें आई, मेरे मनके गूढ तिमिरको • मथन-दण्ड था दूर हुआ। ___ हटा, तत्त्व यह जतलाया । तब मैंने फिर कहा गोपिके! दक्षिण करसे कढ़नीका जब. अब खींचो बाएँ करसे, अञ्चल खींचा करती हूँ, दक्षिण करको सुस्थिर करके बाम हस्तको तब ढीला कर ___ सटा रखो अपने उरसे । कढ़नी पकड़े रहती हूँ। बाएँ करसे गोपीने जब बाम हस्तसे जब कढ़नीकाथा खींचा कढ़नीका छोर, छोर खींचने लगती हूँ, • मथन-दण्ड तब छूट हाथसे दक्षिण करको तब ढीलाकरदूर पड़ा जाकर उस ओर ! कढ़नी पकड़े रहती हूँ। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] जैनी नीति १२३ एक साथ दोनों हाथोंसे कर्षण-क्रिया न करती हूँ, नहीं कभी मैं एक हाथसे दधिका मन्थन करती हूँ। सहार्पिता अनुभयदृष्टीके करमें जब कढ़नी आती, 'अवक्तव्य हैं सकल वस्तु' तब यह रहस्य वह बतलाती । गोपीके मन्थन - रहस्यसे 'जैननीति' को समझ गया, अनेकान्तका गूढ तत्त्व यों क्षण भरमें ही सुलझ गया ! विध्यनुभयदृष्टीके द्वाराकढ़नी जब खींची जाती, अस्ति-अवाच्यस्वरूप विश्व मेंअर्थ-मालिका हो जाती । 'एकनाकर्षन्ती' नामक अमृतचन्द्र-कृत शुभ गाथाकी सुस्मृतिसे हुआ उसी क्षण उन्नत था मेरा माथा । निषेधानुभयदृष्टि स्वकरमें कढ़नी जब गह लेती है, 'नास्ति-अवाच्यस्वरूप वस्तु है' यह निश्चित कह देती है। अनेकान्तमय - वस्तु - तत्त्वसे भरा हुआ जग-भाण्ड अनूप, स्यावादात्मक मथन-दण्डसे श्रालोडन होता शिवरूप । उभयानुभयदृष्टिके हाथों जब कढ़नी खींची जाती, 'अस्ति-नास्ति अरु अवक्तव्य-मय' सत्स्वरूप तब बतलाती । . ज्ञाताकी सद्बुद्धि-गोपिका क्रमसे मन्थन करती है, नय-माला मन्थाननेत्रको क्रमसे खींचा करती है। 'अनेकान्त' के मुख्य पृष्ठ पर जिसका चित्रण किया गया, जैनी नीति * वही है जिसका उस दिन अनुभव मुझे हुआ। विधि-दृष्टीका दक्षिण कर जब कढ़नीको गह लेता है, 'अस्तिरूप तब सकल वस्तु हैं' यह सिद्धान्त निकलता है। सम्यग्वस्तु-ग्राहिका है यहठीक तत्त्व बतलाती है, वैर-विरोध मिटाकर जगमें शान्ति-सुधा बरसाती है । जीजे. जब निषेध-दृष्टीका बायाँहाथ उसे गह लेता है, 'नास्तिरूप तब सकल वस्तु हैं' यह सिद्धान्त निकलता है । इससे इसका अाराधनकर, जीवन सफल बना लीजे; पद-पद पर इसकी आज्ञाका ही निशिदिन पालन कीजे । उभय-दृष्टि का हस्तयुगल जबक्रमसे कढ़नी गहता है, 'अस्ति-नास्ति-मय सकल वस्तु हैं' यह सिद्धान्त निकलता है । * इस 'जैनी नीति' के विशेष परिचयके लिये देखो 'अनेकान्त' के गत विशेषाङ्कमें प्रकाशित 'चित्रमय जैनी नीति' नामका सम्पादकीय लेख । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाचन्द्रका समय [ लेखक-न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जैन, काशी ] प्राचार्य प्रभाचंद्र के समयके विषयमें डा० ८३७ ) की फारगुन शुक्ला दशमी तिथिको पूर्ण "पाठक, प्रेमीजी + तथा मुख्तार साहब किया था। इस समय अमोघवर्षका राज्य था । जयआदिका प्रायः सर्वसम्मत मत यह रहा है कि प्राचार्य धवलाकी समाप्ति के अनन्तर ही आचार्य जिनसनने प्रभाचंद्र ईसाकी ८ वीं शताब्दीके उत्तरार्ध एवं नवीं आदिपुगणकी रचना की थी। आदिपुराण जिनसन शताब्दीके पूर्वार्धवर्ती विद्वान थे। और इसका मुख्य की अन्तिम कृति है । वे इसे अपने जीवनमें पूर्ण आधार है जिनसेनकृत आदिपुराणका यह श्लोक- नहीं कर सके थे । उसे इनके शिष्य गुणभद्र ने पूर्ण " चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि स्तुवे । किया था। तात्पर्य यह कि जिनसन प्राचार्यन ई० कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् ॥” ८४० के लगभग आदिपुराणकी रचना प्रारम्भ की अर्थात्- जिनको यश चन्द्रमाकी किरणोंक होगी। इसमें प्रभाचंद्र तथा उनके न्यायकुमुदचंद्रका समान धवल है, उन प्रभाचन्द्रकविकी स्तुति करता उल्लेख मानकर डॉ० पाठक आदिने निर्विवादरूपस हूँ। जिन्होंने चन्द्रोदयकी रचना करके जगत्को प्रभाचंद्रका समय ईसाकी ८ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध आह्वादित किया है।" इस श्लाकमें चन्द्रोदयस न्याय- तथा नवींका पूर्वार्ध निश्चित किया है। कुमुदचन्द्रोदय (न्यायकुमुदचन्द्र ) ग्रन्थका सूचन सुहृदूर पं० कैलाशचंद्रजी श स्त्रीने न्य यकुमुदचंद्र समझा गया है । प्रा० जिनसनने अपने गुरु वीरसन प्रथमभागकी प्रस्तावना (पृ० १२३ ) में डॉ० पाठक की अधूरी जयधवला टीकाको शक सं० ७५९ ( ई० आदिका निरास + करते हुए प्रभाचंद्र का समय ई० ___+ यह लेख न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भागके लिये लिखी पं० कैलाशचन्द्रजीने आदिपुराणके 'चंद्रांशुशुभ्रयगई प्रस्तावनाका एक अंश है। शसं' श्लोकमें चंद्रोदयकार किसी अन्य प्रभाचंद्रकविका श्रीमान् प्रेमीजीका विचार अब बदल गया है। वे उल्लेख बताया है, जो ठीक है। पर उन्होंने आदिपुराणकार अपने "श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र" लेख (अनेकान्तवर्ष ४ अंक जिनसेनके द्वारा न्यायकुमुदचंद्रकार प्रभाचंद्रके स्मृत होने में १) में महापुराणटिप्पणकार प्रभाचन्द्र तथा प्रमेयकमलमा- बाधक जो अन्य तीन हेतु दिए हैं वे बलवत् नहीं मालूम तण्ड और गद्यकथाकोश आदिके कर्ता प्रभाचन्द्रका एक होते । अत: (१) ग्रादिपुराणकार इसके लिये बाध्य नहीं ही व्यक्ति होना सूचित करते हैं। वे अपने एक पत्रमें मुझे माने जा सकते कि यदि वे प्रभाचंद्रका स्मरण करते हैं तो लिखते हैं कि-"हम समझते हैं कि प्रमेयकमलमार्तण्ड और उन्हें प्रभाचंद्रके द्वारा स्मृत अनंतवीर्य और विद्यानंदका न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्र ही महापुराणटिप्पणके कर्ता स्मरण करना ही चाहिये । विद्यानंद और अनंतवीर्यका हैं। और तत्त्वार्थवृत्तिपद (सर्वार्थसिद्धिके पदोंका प्रकटीकरण), समय ईसाकी नवीं शताब्दीका पूर्वार्ध है. और इसलिये वे समाधितन्त्रटीका, अात्मानुशासनतिलक, क्रियाकलापटीका. आदिपुराणकारके समकालीन होते हैं। यदि प्रभाचंद्र भी प्रवचनसारसरोजभास्कर (प्रवचनसारकी टीका) अादिके कर्ता, ईसाकी नवीं शताब्दीके विद्वान होते, तो भी वे अपने ममऔर शायद रत्नकरण्डटीकाके कर्ता भी वही हैं।" कालीन विद्यानंद आदि अाचार्योका स्मरण करके भी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] प्रभाचन्द्रका समय १२५ ९५० से १०२० तक निर्धारित किया है । इस निर्धा- और प्रभाचंद्र' की तुलना करते समय व्योमशिवका रित समयकी शताब्दियाँ तो ठीक हैं पर दशकोंमें समय ईसाकी सातवीं शताब्दीका उत्तरार्ध निर्धारित अंतर है । तथा जिन आधारोंसे यह समय निश्चित कर आया हूँ । इसलिए मात्र व्योमशिवके प्रभावके किया गया है वे भी अभ्रांत नहीं हैं । पं० जीने कारण ही प्रभाचन्द्रका समय ई०. ९५० के बाद नहीं प्रभाचंद्र के ग्रंथों में व्योमशिवाचार्यकी व्योमवती टीका जा सकता । महापुराणके टिप्पणकी वस्तुस्थिति तो का प्रभाव देखकर प्रभाचंद्रकी पूर्वावधि ९५० ई० यह है कि-पुष्पदन्तके महापुराण पर श्रीचंद्र और पुष्पदन्तकृत महापुराणके प्रभाचंद्रकृत टिप्पणको आचार्यका भी टिप्पण है और प्रभाचंद्र आचार्यका वि० सं० १०८० ( ई० १०२३) में समाप्त मानकर भी। बलात्कारगणके श्रीचंद्रका टिप्पण भोजदेवके उत्तरावधि १०२० ई० निश्चित की है। मैं व्योमशिव राज्यमें बनाया गया है । इसकी प्रशस्ति निम्न श्रादिपुराणकार-द्वारा स्मृत हो सकते थे। (२) 'जयन्त और लिखित हैप्रभाचंद्र' की तुलना करते समय मैं जयंतका समय ई. “ श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिक७५० से ८४० तक सिद्ध कर आया हूँ । अत: समकालीन- सहस्र महापुगणविषमपदविवरणं सागरसेनसैद्धान्तात् वृद्ध जयंतसे प्रभावित होकर भी प्रभाचंद्र श्रादिपराणमें परिज्ञाय मूलटिप्पणकाञ्चालोक्य कृ-मिदं समुच्चयउल्लेख्य हो सकते हैं। (३) गुणभद्रके श्रात्मानुशासनसे 'अन्धादयं महानन्धः' श्लोक उद्ध त किया जाना अवश्य सेनमुनि विषयव्यामुग्धबुद्धि न होकर विदितसकलशास्त्र एवं ऐसी बात है जो प्रभाचंद्रका अादिपराणमें उल्लेख होने में अविकलवृत्त हो गए थे। अतः लोकसेनकी प्रारम्भिक वाधक हो सकती है। क्योंकि आत्मानुशासनके "जिनसेना- अवस्था में, उत्तरपुराणकी रचनाके पहिलेही श्रात्मानुशासनका चार्यपादस्मरणाधीनचेतसाम् । गुणभद्रभदन्तानां कृतिरात्मा- रचा जाना अधिक संभव है। पं. नाथूरामजी प्रेमीने विद्वद्रत्ननुशासनम् ॥” इस अन्तिमश्लोकसे ध्वनित होता है कि यह माला (पृ०७५) में यही संभावना की है। आत्मानुशासन ग्रन्थ जिनसेनस्वामीकी मृत्युके बाद बनाया गया है। क्योंकि गुणभद्रकी प्रारम्भिक कृति ही मालूम होती है। और गुणवही समय जिनसेनके पादोंके स्मरणके लिए ठीक अँचता है। भद्रने इसे उत्तरपुराणके पहिले जिनसेनकी मृत्युके बाद अतः श्रात्मानशासनका रचनाकाल सन ५० के करीब बनाया होगा। परन्तु श्रात्मानुशासनकी श्रांतरिक जाँच मालूम होता है। श्रात्मानुशासन पर प्रभाचंद्रकी एक टीका करनेसे हम इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि इसमें अन्य उपलब्ध है। उसमें प्रथम श्लोकका उत्थान वाक्य इस प्रकार कवियोंके सुभाषितोंका भी यथावसर समावेश किया गया है। है- "बृहद्धर्मभ्रातुर्लोकसेनस्य विषयव्यामुग्धबुद्धः सम्बोधन- उदाहरणर्थ-श्रात्मानुशासनका ३२ वां पद्य 'नेता यस्य व्याजेन सर्वसत्वोपकारकं सन्मार्गमुपदर्शयितुकामो गुणभद्र- वृहस्पति:' भर्तृहरिके नीतिशतकका ८८ वा श्लोक है, देव:.." अर्थात्-गुणभद्र स्वामीने विषयोंकी ओर चंचल अात्मानुशासनका ६७ वा पद्य 'यदेतत्स्वच्छन्द वैराग्यशतक चित्तवृत्तिवाले बड़े धर्मभाई (१) लोकसेनको समझानेके का ५० वां श्लोक है। ऐसी स्थितिमें 'अन्धादयं महानन्धः' बहाने श्रात्मानुशासन ग्रंथ बनाया है। ये लोकसेन गुणभद्रके सुभाषित पद्य भी गुणभद्रका स्वरचित ही है यह निश्चयप्रियशिष्य थे। उत्तरपराणकी प्रशस्तिमें इन्हीं लोकसेनको पूर्वक नहीं कह सकते । तथापि किसी अन्य प्रबल प्रमाणके स्वयं गुणभद्रने 'विदितसकलशास्त्र, मुनीश, कवि, अवि- अभावमें अभी इस विषयमें अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। कलवृत्त' आदि विशेषण दिए हैं। इससे इतना अनुमान देखो, न्यायमुकुदचंद्र द्वि० भागकी प्रस्तावना पृ० तथा तो सहज ही किया जा सकता है कि श्रात्मानुशासन उत्तर- अनेकान्त वर्ष २ किरण ३ में 'प्रभाचंद्रके समयकी सामग्री पुराणके बाद तो नहीं बनाया गया; क्योंकि उस समय लोक- लेख। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अनेकान्त [र्ष ४ टिप्पणम् अज्ञपातभीतेन श्रीमद्बला [त्का] रगणश्री- ही न्यायकुमुदचंद्रकी रचना की है । मुद्रित प्रमेयकमसंघाचार्यसत्कविशिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना निजदोर्दण्डा- लमार्तण्डके अंतमें "श्री भाजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिभिभूत रिपुगज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य ।।१०२॥ इति वासिना परापरपरमेष्ठिपदप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिउत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्य (?) विरचितं राकृतनिखिलमलकलङ्केन श्रीमत्प्रभाचंद्रपण्डितेन निसमाप्तम् ।" खिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योतिपरीक्षामुम्बपदमिदं विवृप्रभाचन्द्रकृत टिप्पण जयसिंहदेवके गज्यमें लिखा तमिति ।" यह पुष्पिकालेग्य पाया जाता है। न्यायगया है। इसकी प्रशस्तिकं श्लोक रत्नकरण्डश्रावका- कुमुदचंद्रकी कुछ प्रतियोंमें उक्त पुष्पिकालेग्य 'श्री चारकी प्रस्तावनासे न्यायकुमुदचंद्र प्रथम भागकी भोजदेवगज्ये' की जगह 'श्रीजयसिंहदेवराज्य' पदके प्ररतावना (पृ० १२०) में उद्धत किये गये हैं। श्लोकों साथ जैसाका तैसा उपलब्ध है। अतः इस स्पष्ट लेख के अनन्तर-"श्रीजयसिंहदेवगज्ये श्रीमद्भागनिवासिना से प्रभाचंद्रका समय जयसिंहदेवकं राज्यके कुछ वर्षों परापरपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृताग्विल - तक, अन्ततः सन् १०६५ तक माना जा सकता है। मलकलङ्केन श्रीप्रभाचंद्रपण्डितेन महापुराणटिप्पणके और यदि प्रभाचंद्रने ८५ वर्षकी आयु पाई हो तो शतत्र्यधिकसहस्रत्रयपरिमाणं कृतमिति ।" यह पुष्पि उनकी पूर्वावधि सन् ९८० मानी जानी चाहिए | का लेख है । इस तरह महापुराण पर दोनों आचार्यों श्रीमान मुख्तारसा० तथा पं० कैलाशचंद्रजी प्रमेयके पृथक् पृथक् टिप्पण हैं । इसका खुलासा प्रेमीजीके कमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचंद्र के अंतमें पाए जान लेख'से स्पष्ट हो ही जाता है। पर टिप्पणलेखकने वाले उक्त 'श्रीभोजदेवराज्य और 'श्रीजयसिंहदेवराज्य' श्रीचंद्रकृत टिप्पणके 'श्रीविक्रमादित्य' वाले प्रशस्ति- आदि प्रशस्तिलेखोंको स्वयं प्रभाचंद्रकृत नहीं मानते । लेखके अंतमें भ्रमवश · इति उत्तरपुराणटिप्पणकं मुख्तारसा० इस प्रशस्तिवाक्यको टीकाटिप्पणकार प्रभाचंद्राचार्यविरचितं समाप्तम्' लिख दिया है। इसी द्वितीय प्रभाचंद्रका मानते हैं तथा पं० कैलाशचंद्र जी लिए डी० पी० एल० वैद्य, प्रो० हीरालालजी तथा इस पीछेके किसी व्यक्तिर्क करतूत बताते हैं। पर पं० कैलाशचंदजीने भ्रमवश प्रभाचंद्रकृत टिप्पणका प्रशस्तिवाक्यको प्रभाचंद्रकृत नहीं मानने में दोनोंके रचना काल संवत् १०८० समझ लिया है। अतः इस आधार जुदे जुदे हैं । मुख्तारसाहब प्रभाचंद्रका जिनभ्रांत आधारसे प्रभाचंद्रके समयकी उत्तरावधि सन् सनक पहिलेका विद्वान मानते हैं, इसलिए भोजदेव१०२० नहीं ठहराई जा सकती। अब हम प्रभाचंद्रकं राज्य' आदिवाक्य वे स्वयं उन्हीं प्रभाचंद्रका नहीं समयकी निश्चित अवधिक साधक कुछ प्रमाण उप- मानते । पं० कैलाशचंद्र जी प्रभाचंद्र को ईमाकी १० वीं स्थित करते हैं और ११वीं शताब्दीका विद्वान मानकर भी महापुराण १-प्रभाचंद्रने पहिले प्रमेयकमलमार्तण्ड बनाकर के टिप्पणकार श्रीचंद्रके टिप्पण के अंतिमवाक्यको १ देखो, पं० नाथूरामजी प्रेमी लिखित 'श्रीचन्द्र और . भ्रमवश प्रभाचंद्रकृत टिप्पणका अंतमवाक्य समझ प्रभाचन्द्र' शीर्षक लेख, अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ तथा २ रत्नकरण्डप्रस्तवना पृ० ५६-६० । महापुराण की प्रस्तावना पृ० xiv ३ न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भागकी प्रस्तावना पृ० १२२। - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] प्रभाचंद्रका समय लेने के कारण उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचंद्रकृत नहीं प्रशस्तिवाक्य नहीं है, किन्हीं में 'श्री पद्मनन्दि' श्लोक मानना चाहते । मुख्तारमा० ने एक हेतु यह भी दिया नहीं है तथा कुछ प्रतियोमें सभी श्लोक और प्रशस्तिहै। कि-प्रमेयकमलमार्तण्डकी कुछ प्रतियोंमें यह वाक्य हैं। न्यायकुमुदचन्द्रकी कुछ प्रतियोंमें 'जयसिंह अंतिमवाक्य नहीं पाया जाता । और इसके लिए देवराज्ये' प्रशस्ति वाक्य नहीं है । श्रीमान मुख्तारसा० भाण्डारकर इंस्टीट्यटकी प्राचीन प्रतियोंका हवाला पायः इसीम उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचन्द्रकृत नहीं दिया है। मैंने भी प्रमेयकमलमार्चण्डका पुनः सम्पादन मानते । करते समय जैनसिद्धान्तभवन आगकी प्रतिके पाठा- इसके विषयमं मेरा यह वक्तव्य है कि-लेखक म्तर लिए हैं। इसमें में उक्त 'भोजदेवराज्ये' वाला , वाला प्रमादवश प्रायः मौजूद पाठ तो छोड़ देते हैं पर किसी वाक्य नहीं है। इसी तरह न्यायकुमुदचंद्रके सम्पादन अन्यकी प्रशस्ति अन्यग्रन्थमें लगानेका प्रयत्न कम में जिन श्रा०, ब, श्र० और भां० प्रतियोंका उपयोग करते हैं । लेखक आखिर नकल करने वाले लेखक किया है, उनमें प्रा० और ब० प्रतिमें 'श्री जयसिंह- ही तो हैं, उनमें इतनी बुद्धिमानीकी भी कम संभावना देवराज्य' वाला प्रशस्ति लेख नहीं है । हाँ, भां० और है कि वे 'श्री भोजदेवराज्य' जैसी सुन्दर गद्य पशस्ति श्र० प्रतियाँ, जो ताड़पत्र पर लिखी हैं, उनमें 'श्री को स्वकपोलकल्पित करके उसमें जोड़ दें। जिन जयसिंहदेवराज्ये' वाला प्रशस्तिवाक्य है । इनमें भां० पतियोंमें उक्त प्रशस्ति नहीं है तो समझना चाहिए प्रति शालिवाहनशक १७६४ की लिग्बी हुई है। इस कि लेखकोंके प्रमादसे उनमें यह प्रशस्ति लिखी ही तरह प्रमेयकमलमण्डिकी किन्हीं प्रतियोंमें उक्त ' नहीं गई । जब अन्य अनेक पमाणोंस पभाचन्द्रका १ रत्नकरण्ड प्रस्तावना पृ० ६० । समय करीब करीब भोजदेव और जयसिंहके राज्य २ देखो,इनका परिचय न्यायकु०प्र०भागके संपादकीयमं। काल तक पहुँचता है तब इन प्रशस्तिवाक्योंका टिप्प___पं० नाथूरामजी प्रेमी अपनी नोटबुकके अाधारसे । णकारकृत या किसी पीछे होने वाले व्यक्तिकी करतूत सूचित करते हैं कि- "भाण्डारकर इंस्टीच्य टकी नं०८३६ ( सन् १८७५-७६) की प्रतिमें प्रशस्तिको 'श्री पद्मनंदि' कहकर नहीं टाला जा सकता। मेरा यह विश्वास है वाला श्लोक और 'भोजदेवराज्ये वाक्य नहीं। वहीं की कि 'श्रीभोजदेवराज्य' या 'श्रीजयसिंहदेवराज्य' नं० ६३८ ( सन् १८७५-७६) वाली प्रतिमें 'श्री पद्मनंदि' पशस्तियां सर्वपथम पमेयकमलमार्तण्ड और न्यायश्लोक हे पर 'भोजदेवराज्ये' वाक्य नहीं है। पहिली प्रति कमदचंटक रचयिता पभाचंदन ही बनाई है। और संवत् १४८६ तथा दूसरी संवत् १६६५ की लिखी हुई है।" वीरवाणी विलास भवनके अध्यक्ष पं० लोकनाथ पार्श्व- है." सोलापरकी प्रतिमें "श्री भोजदेवराज्य” प्रशस्ति नहीं नाथशास्त्री अपने यहाँ की ताइपत्रकी दो पूर्ण प्रतियोंको है। दिल्लीकी श्राधुनिक प्रतिमें भी उक्त वाक्य नहीं है। देखकर लिखते हैं कि-"प्रतियोंकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुद्रित अनेक प्रतियोमें प्रथम अध्यायके अन्तमें पाए जाने वाले पुस्तकानुसार प्रशस्ति श्लोक पूरे हैं और 'श्री भोजदेवराज्ये "सिद्धं सर्वजनप्रबोध" श्लोककी व्याख्या नहीं है। इंदौरकी श्रीमद्धारानिवासिना' श्रादि वाक्य हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड तुकोगंजवाली प्रतिमें प्रशस्तिवाक्य है और उक्त श्लोककी की प्रतियोंमें बहुत शैथिल्य है, परन्तु करीब ६०० वर्ष व्याख्या भी है । खुरईकी प्रतिमें 'भोजदेवराज्य' प्रशस्ति नहीं पहिले लिखित होगी। उन दोनों प्रतियोमें शकसंवत् नहीं है, पर चारों प्रशस्ति-श्लोक हैं। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनेकान्त जिन जिन ग्रंथोंमें ये प्रशस्तियां पाई जाती हैं वे प्रसिद्ध तर्कग्रंथकार पभाचंद्रके ही ग्रंथ होने चाहिएँ । २- यापनीयसंघाप्रणी शाकटायनाचार्यने शाकटायन व्याकरण और अमोघवृत्ति के सिवाय केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरण लिखे हैं । शाकटायनने अमोघवृत्ति, महाराज अमोघवर्ष के राज्यकाल ( ई० ८१४ से ८७७ ) में रची थी । आ० प्रभाचंद्रने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचंदमें शाकटायन के इन दोनों प्रकरणों का खंडन श्रानुपूर्वी से किया है । न्यायकुमुदचंद्र में स्त्रीमुक्तिप्रकरण से एक कारिका भी उद्धृत की है । अतः प्रभाचंद्रका समय ई० ९०० से पहिले नहीं माना जा सकता । ३–सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतारपर सिद्धर्षि गरिएकी एक वृत्ति उपलब्ध है । हम 'सिद्धर्षि और प्रभाचंद्र' की तुलना में बता आए हैं कि पूभाचंद्रने न्यायावतारके साथ ही साथ इस वृत्तिको भी देखा है । सिद्धर्षिने ई०९०६ में अपनी उपमितिभवपपञ्चा कथा बनाई थी । अतः न्यायावतारवृत्ति के द्रष्टा पूभाचंद्रका समय सन् ६१० के पहिले नहीं माना जा सकता । ४ – भासर्वज्ञका न्यायसार प्रन्थ उपलब्ध है । कहा जाता है कि इसपर भासर्वज्ञकी स्वोपज्ञ न्यायभूषण नामकी वृत्ति थी । इस वृत्तिके नामसे उत्तरकालमें इनकी भी 'भूषण' रूपमें प्रसिद्धि हो गई थी । न्यायलीलावतीकारके कथनसे २ ज्ञात होता है कि भूषण क्रियाको संयोगरूप मानते थे । पूभाचंद्रने म्यायकुमुदचंद्र ( पृ० २८२ ) में भासर्वज्ञके इस मतका [ वर्ष ४ खंडन किया है। प्रमेय कमलमार्त्तण्ड के छठवें अध्याय जिन विशेष्यासिद्ध आदि हेत्वाभासोंका निरूपण है वे सब न्यायसारसे ही लिए गए हैं। स्व० डा० शतीशचंद्र विद्याभूषण इनका समय ई० ९०० के लगभग मानते हैं । अतः पूभाकेंद्रका समय भी ई०९०० के बाद ही होना चाहिये । ५ - श्र० देवसेनने अपने दर्शनसार ग्रंथ (रचनासमय ९९० वि०, ९३३ ई० ) के बाद भावसंग्रह ग्रंथ बनाया है । इसकी रचना संभवतः सन् ६४० के आसपास हुई होगी। इसकी एक 'नोकम्मकम्महारो' गाथा प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचंद्र में उद्धृत है । यदि यह गाथा स्वयं देवसेनकी है तो पभाचंद्रका समय सन् ६४० के बाद होना चाहिए। १ न्यायकुमुदचंद्र द्वितीयभागकी पूस्तावना पृ० ३६ ॥ २. देखो; न्यायकुमुदचंद्र पृ० २८२ टि०५ । २ न्यायसार पूस्तावना पृ० ५ । ६ - ० भाचंद्रने प्रमेयकमलमा० और न्यायकुमुद० बनाने के बाद शब्दाम्भोजभास्कर नामका जैनेन्द्रन्यास रचा था । यह न्यास जैनेन्द्रमहावृत्तिके बाद इसी के आधार से बनाया गया है। मैं 'अभयनन्दि और प्रभाचंद्र' की तुलना करते हुए लिख आया हूं" कि नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु श्रभयनन्दिने ही यदि महावृत्ति बनाई है तो इसका रचनाकाल अनुमानतः ९६० ई० होना चाहिये। अतः पूभाचंद्रका समय ई० ६६० से पहिले नहीं माना जा सकता । ७- पुष्पदन्तकृत अपभ्रंशभाषा के महापुराण पर पूभाचन्दने एक टिप्पण रचा है। इसकी प्रशस्ति रत्नकरण्डश्रावकाचारकी पूस्तावना ( पृ० ६१ ) में दी गई है। यह टिप्पण जयसिंहदेव के राज्यकाल में लिखा गया है । पुष्पदन्त अपना महापुराण सन ९६५ ई० समाप्त किया था । टिप्पणकी पूशस्तिसे तो यही मालूम होता है कि प्रसिद्ध पभाचंद्र ही इस टिप्पण के १ न्यायकुमुदचंद्र द्वितीयभाग की पूस्तावना पृ० ३३ । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाचंद्रका समय किरण २ ] कर्ता है | यदि यही प्रभाचंद्र इसके रचयिता हैं, तो कहना होगा कि पभाचंद्रका समय ई० ९६५ के बाद ही होना चाहिए। यह टिप्परण उन्होंने न्याय कुमुद चंद्रकी रचना करके लिखा होगा। यदि यह टिप्पण प्रसिद्ध तर्क ग्रंथकार पूभाचंद्रका न माना जाय तब भी इसकी पूशस्तिके श्लोक और पुष्पिकालेख, जिनमें पमेयक मलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचंद्र के प्रशस्तिश्लोकों का एवं पुष्पिकालेखका पूरा पूरा अनुसरण किया गया है, पभाचंद्रकी उत्तरावधि जयसिंहके राज्यकाल तक निश्चित करने में साधक तो हो ही सकते हैं। ८ - श्रीधर और प्रभाचंद्र की तुलना करते समय हम बता आए हैं ' कि प्रभाचंद्र के ग्रंथों पर श्रीधर की कन्दली भी अपनी आभा दे रही है । श्रीधर ने कन्दली टीका ई० सन् ९९१ में समाप्त की थी । अतः पूभाचंद्रकी पूर्वावधि ई० ९९० के करीब मानना और उनका कार्यकाल ई० १०२० के लगभग मानना संगत मालूम होता है । ९ - श्रवणबेलगोल के लेख नं० ४० (६४) में एक पद्मनन्दिसैद्धान्तिकका उल्लेख है और इन्हींके शिष्य कुलभूषण के सधर्मा प्रभाचंद्रको शब्दाम्भोरुह भास्कर और पूतितर्कन्थकार लिखा है " श्रविद्धकर्णादकपद्मनन्दिसैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके । कौमारदेवत्रतिताप्रसिद्धिः सो ज्ञाननिधिस्स धीरः ||१५|| तच्छिष्यः कुलभूषणाख्ययतिपश्चारित्रवारांनिधिः, सिद्धान्ताम्बुधिपारगो नतविनेयस्तत्सधर्मो महान् । शब्दाम्भोरुहभास्करः प्रथिततर्कग्रन्थकारः प्रभा १ न्यायकुमुदचंद्र द्वितीयभागकी पूस्तावना पृ० १२ । १२६ चन्द्राख्यो मुनिराजपण्डितवरः श्रीकुण्डकुन्दान्वयः १६” इस लेखमें वर्णित प्रभाचंद्र, शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथिततर्कग्रन्थकार विशेषणों के बलस शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्रन्यास और प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचंद्र आदि ग्रन्थोंके कर्त्ता प्रस्तुत प्रभाचन्द्र ही हैं। धवलाटीका पु० २ की प्रस्तावना में ताड़पत्रीय प्रतिका इतिहास बताते हुए प्रो० हीरालाल जीने इस शिलालेख में वर्णित प्रभाचंद्र के समय पर सयुक्तिक ऐतिहासिक प्रकाश डाला है । उसका सारांश यह है – “उक्त शिलालेख में कुलभूषण से गेकी शिष्यपरम्परा इस प्रकार है - कुलभूषण के सिद्धांत वारांनिध, सद्वृत्त कुलचंद्र नामके शिष्य हुए । कुलचंद्र देवके शिष्य माघनन्दि मुनि हुए, जिन्होंने कोल्लापुर में तीर्थ स्थापन किया । इनके श्रावक शिष्य थे सामन्त केदार नारकस, सामन्त निम्बदेव और सामंत कामदेव | माघनन्दिके शिष्य हुए- गण्डविमुक्त देव, जिनके एक छात्र सेनापति भरत थे, व दूसरे शिष्य भानुकीर्ति और देवकीर्ति, आदि । इस शिलालेख में बताया है कि महामण्डलाचार्य देवकीर्ति पंडित देवने कोल्लापुरकी रूपनारायण बसदिके अधीन केल्लंगरेय प्रतापपुरका पुनरुद्धार कराया था, तथा जिननाथपुर में एक दानशाला स्थापित की थी। उन्हीं अपने गुरुकी परोक्ष विनय के लिए महाप्रधान सर्वाधिकारी हिरिय भंडारी, अभिनव गंगदंडनायक श्री हुलराजने उनकी निषद्या निर्माण कराई, तथा गुरुके अन्य शिष्य लक्खनन्दि, माधव और त्रिभुवनदेवने महादान क पूजाभिषेक करके प्रतिष्ठा की । देवकीर्तिके समय पर प्रकाश डालने वाला शिलालेख नं० ३६ है । इसमें देवकीर्तिकी प्रशस्ति के अतरिक्त उनके स्वर्गवासका समय शक १०८५ सुभानु संवत्सर आषाढ़ शुक्ल ९ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ बुधवार सूर्योदयकाल बतलाया गया है । और कहा १०-वादिराजसूरिने अपने पार्श्वचरितमें अनेकों गया है कि उनके शिष्य लक्खनन्दि, माधवचन्द्र और पूर्वाचार्योंका स्मरण किया है। पार्श्वचरित शक सं० त्रिभुवनमल्लने गुरुभक्तिसे उनकी निषद्याकी प्रतिष्ठा ९४७ (ई० १०२५)में बनकर समाप्त हुआ था । इन्होंकराई । देवकीर्ति पद्मनन्दिसे पाँच पीढ़ी तथा कुल- ने अकलंकदेवके न्यायविनिश्चय प्रकरणपर न्यायविनिभूषण और प्रभाचन्द्रसे चार पीढ़ी बाद हुए हैं। श्चयविवरण या न्यायविनिश्चयतात्पर्यावद्योतनी व्याअतः इन आचार्योंको देवकीर्तिके समयसे १००-१२५ ख्यानरत्नमाला नामकी विस्तृत टीका लिखी है । इस वर्ष अर्थात् शक ९५० ( ई १०२८ ) के लगभग हुए टीकामें पचासों जैन जैनेतर प्राचार्योंके ग्रंथोंले प्रमाण मानना अनुचित न होगा। उक्त आचार्यों के काल- उद्धत किए गए हैं । संभव है कि वादिराजके निर्णयमें सहायक एक और प्रमाण मिलता है- समयमें प्रभाचन्द्रकी प्रसिद्धि न हो पाई हो, कुलचन्द्र मुनिफे उत्तराधिकारी माघनन्दि कोलापुरीय अन्यथा तर्कशास्त्रके रसिक वादिराज अपने इस कहे गए हैं । उनके गृहस्थ शिष्य निम्बदेव सामन्तका यशस्वी प्रन्थकारका नामोल्लेम्व किए विना न रहते । उल्लेख मिलता है जो शिलाहारनरेश गंडरादित्यदेवके यद्यपि ऐसे नकारात्मक प्रमाण स्वतन्त्रभावसे किसी एक सामन्त थे। शिलाहार गंडगदित्यदेवके उल्लेख आचार्यके समयकं साधक या बाधक नहीं होते फिर शक सं० १०३० से १०५८ तकके लेखोंमें पाए जाते भी अन्य प्रबल प्रमाणोंके प्रकाश में इन्हें प्रसङ्गसाधनके हैं। इससे भी पर्वोक्त कालनिर्णयकी पुष्टि होती है।" रूपमें तो उपस्थित किया ही जा सकता है। यही यह विवेचन शक सं० १०८५ में लिखे गए अधिक संभव है कि वादिगज और प्रभाचन्द्र ममशिलालेखोंके आधारसे किया गया है। शिलालेखकी कालीन और सम-व्यक्तित्वशाली रहे हैं अतः वादिवस्तुओंका ध्यानसे समीक्षण करनेपर यह प्रश्न होता राजने अन्य आचार्योंके साथ प्रभाचन्द्रका उल्लेख है कि-जिस तरह प्रभाचन्द्रके सधर्मा कुलभूषणकी नहीं किया है। शिष्यपरम्परा दक्षिण प्रान्तमें चली उस तरह प्रभा- अब हम प्रभाचन्द्रकी उत्तरावधिके नियामक कुछ चन्द्रकी शिष्यपरम्पराका कोई उल्लेख क्यों नहीं प्रमाण उपस्थित करते हैं (१) ईसाकी चौदहवीं शत ब्दीके विद्वान् अभिनमिलता ? मुझे तो इसका यही संभाव्य कारण मालूम वधर्मभूषणने न्यायदीपिका (पृ० १६) में प्रमेयकमल होता है कि पद्मनन्दिके एक शिष्य कुलभूषण तो मार्तण्डका उल्लेख किया है। इन्होंने अपनी न्यायदक्षिणमें ही रहे और दूसरे प्रभाचन्द्र उत्तर प्रांतमें दीपिका वि० सं० १४४२ (ई० १३:५)में बनाई थी। आकर धारा नगरीके आसपास रहे हैं। यही कारण ईसाकी १३ वीं शताब्दीके विद्वान मल्लिषेणने अपनी है कि दक्षिणमें उनकी शिष्य परम्पराका कोई उल्लेख स्याद्वादमञ्जरी ( रचना समय ई० १२६३ ) में न्यायनहीं मिलता। इस शिलालेखीय अंकगणनासे निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि प्रभाचन्द्र भोजदेव और उस कुमुदचन्द्रका उल्लेख किया है। ईसाकी १२ वीं शताजयसिंह दोनोंके समयमें विद्यमान थे। अतः उनकी ब्दीके विद्वान आचार्य मलयगिरिने आवश्यकनिर्यक्तिपूर्वावधि सन् ९९० के आसपास माननेमें काई बाधक टीका (पृ० ३७१ A.) में लघीयस्त्रयकी एक कारिका नहीं है। १ स्वामी समंतभद्र पृ० २२७ । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] प्रभाचंद्रका समय १३१ का व्याख्यान करते हुए 'टीकाकार' के नामसे न्यायकु०- ते प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचंद्रे च मोक्षविचारे चन्द्र में की गई उक्त कारिकाकी व्याख्या उद्धृत की है। विस्तरतः प्रत्याख्याताः।" इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि ईसाकी १२ वीं शताब्दीके विद्वान देवभद्रने न्यायाव- प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचंद्रग्रन्थ इन तारटीका-टिप्पण (पृ० २५, ७६) में प्रभाचन्द्र और टीकाओंसे पहिले रचे गए हैं । अतः प्रभाचंद्र ई० की उनके न्यायकुमुदचंद्रका नामोल्लेख किया है। अतः १२ वीं शताब्दीक बादके विद्वान् नहीं हैं। इन १२ वीं शताब्दी तकके विद्वानोंके उल्लेखोंके (३)-वादिदेवसूरिका जन्म वि० सं० ११४३ आधारसे यह प्रामाणिकरूपसे कहा जा सकता है तथा स्वर्गवास वि० सं० १२२६ में हुआ था। ये वि० कि प्रभाचन्द्र ई० १२ वो शताब्दीके बादके विद्वान् ११७४ में आचार्यपद पर बैठे । संभव है इन्होंने वि० नहीं हैं। - सं० ११७५ ( ई० १११८ ) के लगभग अपने प्रसिद्ध (२) रत्नकरण्डश्रावकाचार और समाधितन्त्रपर प्रन्थ स्याद्वाद्गत्नाकरकी रचना की होगी। स्याद्वाद्प्रभाचंद्रकृत टीकाएँ उपलब्ध हैं । पं० जुगलकिशोरजी रत्नाकरमें प्रभाचंद्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायमुख्तारने' इन दोनों टीकाओंको एक ही प्रभाचंद्रके कुमुदचंद्र का न केवल शब्दार्थानुसरण ही किया गया द्वाग रची हुई मिद्ध किया है। आपके मतसे ये है किन्तु कवलाहारसमर्थन प्रकरणमें तथा प्रतिबिम्ब प्रभाचंद्र प्रमेयकमलमार्तण्ड श्रादिकं रचयितासे चर्चा में प्रभाचंद्र और प्रभाचंदके प्रमेयकमलमार्तण्ड भिन्न है । रत्नकरण्डटीकाका उल्लेख पं० आशाधरजी का नामोल्लेग्व करके खंडन भी किया गया है । अतः द्वारा अनागारधर्मामृत-टीका (अ० ८ श्लो० ९३) में किर जाने के कारण इस टीकाका रचनाकाल वि० प्रभाचंद्र के समयकी उत्तरावधि अन्ततः ई० ११०० . सुनिश्चित होजाती है। सं० १३०० से पहिलेका अनुमान किया है, क्योंकि अ० . (४) जैनेन्द्रव्याकरणके अभयनन्दिसम्मत सूत्रधष्टी० वि०सं० १३००में बनकर समाप्त हुई थी अन्ततः पाठपर श्रुतकीर्तिने 'पंचवस्तु प्रक्रिया बनाई है। अत: मुख्तार सा० इस टीकाका रचनाकाल विक्रमकी १३ वीं शताब्दीका मध्यभाग मानते हैं। अस्तु, फिलहाल कीर्ति कनड़ी चंद्रप्रभचरित्रके कर्ता अग्गलकविके गुरु थे। अग्गलकविने शक २०११ ई० १०८९ में मुख्तार सा० के निर्णयके अनुसार इसका रचनाकाल वि० १२५० ( ई० ११९३) मान कर प्रस्तुत विचार चन्द्रप्रभचरित्र पूर्ण किया था। अतः श्रुतकीतिका करते हैं। समय भी लगभग ई० १०७५ होना चाहिए । इन्होंने रत्नकरण्डश्रावकाचार (पृ०६) में केवलिकव- अपनी प्रक्रियामें एक 'न्यास' ग्रन्थका उल्लेख किया है। लाहारका न्यायकुमुदगतशब्दावलीका अनुसरण संभव है कि यह प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्कर करके खंडन करते हुए लिखा है कि-"तदलमतिप्रसङ्गेन नामका ही न्यास हो। यदि ऐसा है तो प्रभाचंद्रकी प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचंद्रे प्रपञ्चतः प्ररू- उत्तगवधि ई० १०७५ मानी जा सकती है। पणात्"। इसी तरह समा०टी०(पृ० १५)में लिखा है- शिमं गा जिलेके शिलालेख नं० ४६ से ज्ञात "यैः पुनर्योगसांख्यैः मुक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता होता है कि पूज्यपादने भी जैनन्द्र-न्यासकी रचना १ देखो, रत्नकरण्डश्रावकाचार भूमिका पृ० ६६ से। की थी । यदि श्रुतकीर्तिने न्यास पदसे पूज्यपादकृत Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अनेकान्त न्यासका निर्देश किया है तब 'टीकामाल' शब्द से सूचित होनेवाली टीकाकी माला में तो प्रभाचंद्रकृत शब्दाम्भोजभास्करको पिरोया ही जा सकता है। इस तरह प्रभाचंद्र के पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती उल्लेखोंके आधार से हम प्रभाचंद्र का समय सन् ९८० से १०६५ तक निश्चित कर सकते हैं । इन्हीं उल्लेखों के प्रकाश में जब हम प्रमेयकमलमार्त्तण्ड के 'श्रीभोजदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलेख तथा न्यायकुमुदचंद्र के 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलेखको देखते हैं तो वे अत्यन्त प्रामा एक मालूम होते हैं। उन्हें किसी टीका टिप्पणकारका या किसी अन्य व्यक्तिकी करतूत कहकर नहीं टाला जा सकता । उपर्युक्त विवेचनसे प्रभाचंद्र के समय की पूर्वावधि और उत्तरावधि करीब करीब भोजदेव और जयसिंहदेवके समय तक ही आती है। अतः प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्याय कुमुदचंद्र में पाए जानेवाले प्रशस्ति लेखों की प्रामाणिकता और प्रभाचंद्रकर्तृता में सन्देह को ग्राहकोंको सूचना । कान्तके ग्राहकों की सूची छपाई जा रही श्रतः जिन ग्राहकों को अपने पते श्रादिमें किसी प्रकार का संशोधन अथवा परिवर्तनादि कराना श्रभीष्ट हो वे शीघ्र ही इसकी सूचना अनेकान्त कार्यालयको देनेकी कृपा करें। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' [ वर्ष ४ स्थान नहीं रहता । इसलिए प्रभाचंद्रका समय ई० ९८० से १०६५ तक माननेमें कोई बाधा नहीं है'। १ प्रमेयकमलमार्त्तण्ड के प्रथम संस्करणके सम्पादक पं० वंशीधरजी शास्त्री शोलापुरने उक्त संस्करण के उपोद्घात में ' श्रीभोज देवराज्ये ' प्रशस्ति के अनुसार प्रभाचंद्रका समय ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दी सूचित किया है । और इसके समर्थन के लिए 'नेमिचंद्रसिद्धान्तचक्रवर्तीकी गाथाओं का प्रमेयकमलमार्चण्डमें उद्धृत होना' यह प्रमाण उपस्थित किया है। पर आपका यह प्रमाण अभ्रान्त नहीं है; प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में ' विग्गहगइमावण्णा' और 'लोयायासपएसे' गाथाएँ उद्धृत हैं। पर ये गाथाएँ नेमिचंद्रकृत नहीं हैं । पहिली गाथा धवलाटीका ( रचनाकाल ई० ८१६) में उद्धृत है और उमास्वातिकृत श्रावकप्रज्ञप्ति में भी पाई जाती है । दूसरी गाथा पूज्यपाद ( ई० ६ वीं) कृत सर्वार्थसिद्धि में उधृत है । अत: इन प्राचीन गाथाओंोंको नेमिचन्द्रकृत नहीं माना जा सकता । अवश्य ही इन्हें नेमिचंद्रने जीव - काण्ड और द्रव्यसंग्रह में संग्रहीत किया है । अतः इन गाथाओंका उद्धृत होना ही पूभाचंद्रके समयको ११ वीं सदी नहीं साध सकता । आवश्यकता श्री श्रारमानन्दजी जैन गुरुकुल पंजाब, गुजरांवाला के लिए एक विशेष अनुभवी हिन्दी संस्कृतके अच्छे जानकार गुरुकुल शिक्षणपद्धतिमें विश्वास रखने वाले जैन प्रिंसिपल ( विद्याधिकारी ) की श्रावश्यकता है । प्रार्थी महानुभाव प्रमाणपत्र एवं प्रशंसापत्र तथा न्यूनातिन्यून ग्राह्य मासिक वेतनके साथ अधिष्ठाता के नामपर शीघ्र ही प्रार्थना पत्र भेजें । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविराजमल्लका पिंगल और राजाभारमल्ल [सम्पादकीय] जेनसमाजमें कवि राजमल्ल नामक एक बहुत बड़े नाम है 'पिंगल' और जिसे ग्रंथके अंतिम पद्यमें ' विद्वान् एवं ग्रन्थकार वि०की १७ वीं शताब्दीमें 'छंदोविद्या' भी लिखा है । यह ग्रंथ दिल्लीके पंचायती उस समय हो गये हैं जब कि अकबर बादशाह भारत मंदिरके शास्त्रभण्डारसे उपलब्ध हुआ है, जिसकी का शासन करता था । आपने कितने ही ग्रन्थोंका ग्रंथसूची पहले बहुत कुछ अस्त-व्यस्त दशामें थी निर्माण किया है, परन्तु उनकी संख्या आदिका और अब वह अपेक्षाकृत अच्छी बन गई है । कविकिसीको ठीक पता नहीं है। अभीतक आपकी मौलिक वरके उक्त चार ग्रंथोंमेंसे प्रथमके दो ग्रंथों (जम्बूरचनाओंके रूपमें चार ग्रंथोंको ही पता चला था स्वामिचरित्र और लाटीसंहिता )का पता सबसे पहले और वे चारों ही प्रकाशित हो चुके हैं, जिनके नाम मुझे दिल्लीके भंडारोंसे ही चला था और मेरी हैं-१ जम्बूस्वामिचरित्र, २ लाटीसंहिता, ३ अध्यात्म- तद्विषयक सूचनाओंपरसे ही उनका उद्धार कार्य कमलमार्तण्ड, और ४ पंचाध्यायी है। इनमेंसे पिछला हुआ है, इस पांचवें ग्रंथका पता भी मुझे दिल्लीके ही (पंचाध्यायी) ग्रन्थ जिसे ग्रन्थकार अपनी ग्रंथप्रतिज्ञा एक भण्डारसे लग रहा है-दिल्लीको इस ग्रंथकी में 'ग्रंथराज लिखते हैं, अधूरा है-पूरा डेढ़ अध्याय रक्षाका भी श्रेय प्राप्त है, यह जानकर बड़ी प्रसन्नता भी शायद नहीं है और वह आपके जीवनकी होती है। अन्तिम कृति जान पड़ती है, जिसे कविवरके हाथोंसे कुछ अर्सा हुआ, जब शायद पंचायती मंदिरकी पूरा होनेका शायद सौभाग्य ही प्राप्त नहीं हो सका। नई सूची बन रही थी, तब मुझे इस ग्रंथको सरसरी काश, यह ग्रंथ कहीं पूरा उपलब्ध हो गया होता तो तौरपर देखने का अवसर मिला था और मैंने इसके सिद्धांतविषयको समझने के लिये अधिकांश ग्रंथों के कुछ साधारणसे नोट भी लेलिये थे । हाजमें वे नोट देखनेकी जरूरत ही न रहती-यह अकेला ही पचासों मेरे सामने आए और मुझे इस ग्रंथको फिरसे देखने ग्रंथोंकी ज़रूरत को पूरा कर देता । अस्तु; हालमें मुझे की ज़रूरत पैदा हुई। तदनुसार गत फर्वरी मासके आपका एक और ग्रंथ उपलब्ध हुआ है, जिसका अंतिम सप्ताहमें देहली जाकर मैं इसे ले आया हूँ और इस समय यह मेरे सामने उपस्थित है । इसकी *इनमेंसे प्रथम तीन ग्रन्थ 'माणिकचंद जैन ग्रन्थमाला' ___ पत्र संख्या सिली हुई पुस्तकके रूपमें २८ है, पहले बम्बईमें मूल रूपसे प्रकाशित हुए हैं और चौथा ग्रन्थ अनेक स्थानोंसे मूल रूपमें तथा भाषा टीकाके साथ पका- पत्रका प्रथम पृष्ठ खाली है, २८ वे पत्रके अंतिम पृष्ठशित हो चुका है। लाटी संहिताकी भी भाषा टीका पकट पर तीन पंक्तियाँ है-उसके शेष भागपर किसीने हो चुकी है। बादको छंदविषयक कुछ नोट कर रक्खा है और Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अनेकान्त [वर्ष । मध्यके १८ वें पत्रके प्रथम पृष्ठपर लिखते समय १७वें सात * पद्य तथा समाप्ति-विषयक अन्तिम पद्य भी पत्रके द्वितीय पृष्ठकी छाप लग जानेके कारण वह संस्कृत भाषामें हैं, शेष हिंदीमें कुछ उदाहरण हैं और खाली छोड़ा गया है । पत्रकी लम्बाई ८१ और कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जो अपभ्रंश तथा हिंदीके चौड़ाई ५३ इंच है। प्रत्येक पृष्ठपर प्रायः २० पंक्तियाँ मिश्रितरूप जान पड़ते हैं । इस तरह इस ग्रंथ परसे है, परंतु कुछ पृष्ठोंपर २१ तथा २२ पंक्तियाँ भी हैं। कविवरके संस्कृत भाषाके अतिरिक्त दूसरी भाषाओं में प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर-संख्या प्रायः १४ से १८ तक रचनाके अच्छे नमूने भी सामने अाजाते हैं और पाई जाती है, जिसका औसत प्रति पंक्ति १६ अक्षरों उनसे आपकी काव्यप्रवृत्ति एवं रचनाचातुर्य आदि का लगानेसे ग्रंथकी श्लोकसंख्या ५५० के करीब होती पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। है। यह प्रति देशी रफ कागजपर लिखी हुई है और यह छंदोविद्याका निदर्शक पिंगलग्रन्थ गजा बहुत कुछ जीर्ण-शीर्ण है, सील तथा पानीके कुछ भारमल्लके लिये लिखा गया है, जिन्हे 'भारहमल्ल' उपद्रवोंको भी सहे हुए है, जिससे कहीं कहीं स्याही तथा कहीं कहीं छंदवश - भारु' नामसं भी उल्लेफैल गई है तथा दूसरी तरफ फूट पाई है और अनेक खित किया गया है और जो लोकमें उस समय बहुत स्थानोंपर पत्रोंके परस्परमें चिपकजानेके कारण अक्षर ही बड़े व्यक्तित्वको लिये हुए थे । छंदोंके लक्षण अस्पष्टसे भी हो गये हैं। हालमें नई सूचीके वक्त प्रायः भारमल्लजीको सम्बोधन करके कहे गये हैं जिल्द बँधालेने आदिके कारण इसकी कुछ रक्षा उदाहरणों में उनके यशका खुला गान किया गया है और होगई है। इस प्रथप्रतिपर यद्यपि लिपिकाल दिया हुआ इससे राजा भारमल्लके जीवन पर भी अच्छा प्रकाश नहीं है, परंतु वह अनुमानतः दोसौ वर्षसे कमकी पड़ता है-उनकी प्रकृति, प्रवृत्ति, परिणति, विभूति, संलिखी हुई मालूम नहीं होती । यह प्रति 'महम' नामके पत्ति,कौटुम्बिक स्थिति और लोकसंवा आदिकी कितनी किसी ग्रामादिकमें लिखी गई है और इसे 'स्यामराम ही ऐतिहासिक बातें सामने आजाती हैं । इन्हीं मब भोजग' ने लिखाया है। जैसा कि इसकी "महममध्ये बाताका लक्ष्य रखकर आज अनेकान्तके पाठकोंके सामने यह नई खोज रक्खी जाती है और उन्हें इस लिषावितं स्यामरामभोजग ॥” इस अन्तिम पंक्तिसे लुप्तपाय ग्रंथका कुछ रसास्वादन कराया जाता है, प्रकट है। जो अर्सेसे आँखोंस ओझल हारहा था और जिसकी कविवरके जो चार ग्रंथ इससे पहले उपलब्ध स्मृतिको हम बिल्कुल ही भुलाए हुए थे । साथ ही, हुए हैं वे चारों ही संस्कृत भाषामें हैं; परंतु यह ग्रंथ राजा भारमल्लका जो कुछ खण्ड इतिहास इस ग्रंथ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी इन चार परसे उपलब्ध होता है उसे भी संक्षेपमें प्रकट किया भाषाओं में है, जिनमें भी प्राकृत और अपभ्रंश प्रधान हैं और उनमें छंदशास्त्रके नियम, छंदोंके लक्षण तथा . * संख्याङ्क ६ पड़े हैं-दूसरे तीसरे पद्यपर कोई नम्बर न देकर ४ थे पद्यपर नम्बर ३ दिया है और आगे क्रमश: उदाहरण दिये हैं; संस्कृतमें भी कुछ नियम, लक्षण ४, ५, ६ । संख्याङ्कोके देनेमें आगे भी कितनी ही गड़बड़ तथा उदाहरण दिये गये हैं और प्रथके पारंभिक पाई जाती है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल १३५ नाता है । कविवर राजमल्ल जैसे विद्वान्की लेखनी चित्रं महचदिह मानधनो यशस्ते सं लिखा होनेके कारण वह कोरा कवित्व न होकर छंदोमयं नयति यस्कविराजमल्लः । कुछ महत्त्व रखता है, इससे विद्वानोंको दूसरे साधनों यद्वाद्रयोपि निजसारमिह द्रवंति पर से राजा भारमल्लके इतिहासकी और और बातों पुण्यादयोमयतनोस्तव भारमल्ल ॥ ६ ॥ (७) को खोजने तथा इस पथ परसे उपलब्ध हुई बातों इनमें से प्रथम पद्यमें पथमजिनेन्द्र (आदिनाथ) पर विशेष पकाश डालनेके लिये प्रोत्साहन मिलेगा को नमस्कार किया गया है और उन्हें केवलकिरण और इस तरह राजा भाग्मल्लका एक अच्छा इति- दिनेश' बतलाते हुए लिखा है कि उनकी ज्ञानज्योति हास तय्यार हो सकेगा । साथ ही, इस ग्रंथकी दूसरी में यह जगत् आकाशमें एक नक्षत्रकी तरह भासमान पाचीन पतियाँ भी खोजी जायँगी । यह पति है।' अपनी लाटीसंहिताके पथम पद्यमें भगवान अनेक स्थानों पर बहुत कुछ अशुद्ध जान पड़ती है। को नमस्कार करते हुए भी कविवरने यही भाव व्यक्त पकाशन-कार्यके लिये दूमरी प्रतियोंके खोजे जानेकी किया है, जैसा कि उसके “ यच्चिति विश्वमशेष खास जरूरत है । अस्तु । व्यदीपि नक्षत्रमेकमिव नभसि" इस उ ___ कविवग्ने, अपनी इस रचनाका सम्बंध व्यक्त है। साथ ही, उसके भगवद्विशेषण में 'ज्ञानानन्दात्मान' करते हुए, मंगलाचरणादिके रूपमें जो सात संस्कृत लिखकर ज्ञानके साथ आनंदको भी जोड़ा है । पद्य शुरूमें दिये हैं वे इस प्रकार हैं : लाटीसंहिताके प्रथम पद्यमें जो साहित्यिक संशोधन केवलकिरणदिनेशं प्रथमजिनेशं दिवानिशं वंदे । और परिमार्जन दृष्टिगोचर होता है उससे ऐसी ध्वनि यज्योतिषि जगदेतद्योम्नि नक्षत्रमेकमिव भाति ॥ १॥ निकलती हुई जान पड़ती है कि कविकी यह कृति जिन इव मान्या वाणी जिनवरवृषभस्य या पुनः फणिनः । लाटीसंहितासे कुछ पूर्ववर्तिनी होनी चाहिये । वर्णादिबोधवारिधि-तराय पोतायते तरा जगतः ॥ दूसरे पद्यमें जिनवर वृषम (आदिनाथ) की पासीन्नागपुरीयपक्षतिरतः साक्षात्तपागच्छमान् वाणीको जिनदेवके समान ही मान्य बतलाया है, और सूरिः श्रीप्रभुचंद्रकीर्तिरवनौ मूर्धाभिषिक्तो गणी। फणीकी वाणीको अक्षरादिबोधसमुद्र से पार उतरनेके तत्पट्ट विह मानसूरिरभवत्तस्यापि पट्टधुना लिये जहाजके समान निर्दिष्ट किया है। संसम्राडिव राजते सुरगुरुः श्रीहर्ख (र्ष) कीर्तिमहान् ॥ तीसरे पद्यमें यह निर्देश किया है कि आजकल श्रीमच्छीमालकुले समुदयददयाद्विदेवदस्य। हर्षकीर्ति नामके साधु सम्राटकी तरह राजते हैं, जो रविरिव राँक्याणकृते व्यदीपि भूपालभारमल्लाह्नः ॥३॥(४) कि मानसूरिके पट्टशिष्य और उन श्रीचंद्र कीर्तिक पपट्टभूपतिरितिसुविशेषणमिदं प्रसिद्ध हि भारमल्लस्य । तल्कि संघाधिपतिर्वणिजामिति वक्षमाणेपि ॥ ४ ॥ (५) शिष्य हैं जो कि नागपुरीय पक्ष ( गच्छ ) के साक्षात अन्येद्य : कुतुकोल्वणानि पठता छंदांसि भूयांसि भो तपागकछी साधु थे। सूनोः श्रीसुरसंज्ञकस्य पुरतः श्रीमालचूडामणेः । चौथे-पाँचवें पद्योंमें बतलाया है कि-श्रीमालईपत्तस्य मनीषितं स्मितमुखासंलक्ष्य पक्ष्मान्मया * लाटीसंहिताका निर्माणकाल आश्विन शुक्ला दशमी दिग्मात्रादपि नामपिगलमिदं भाट यादुपक्रम्यते ॥५॥ (४) वि. सं. १६४१ है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ कुलमें देवदत्तरूपी उदयाचलके सूर्यकी तरह भूपाल भारमल्ल उदयको प्राप्त हुए और वे रांक्याणोंराक्याणगोत्रवालों के लिये खूब दीप्तिमान् हुए। भारमल्लका' भूपति (राजा)' यह विशेषण सुप्रसिद्ध है, वे वणिक संघ के अधिपति हैं । अनेकान्त छठे पद्य में अपनी इस रचनाके प्रसंगको व्यक्त करते हुए कविजी लिखते हैं- कि 'एक दिन मैं श्रीमालचूड़ामणि देवपुत्र ( राजा भारमल ) के सामने बहुतसे कौतुकपूर्ण छंद पढ़ रहा था, उन्हें पढ़ते समय उनके मुखकी मुस्कराहट और दृष्टिकटाक्ष (आँखों के संकेत ) परसे मुझे उनके मनका भाव कुछ मालूम पड़ गया, उनके उस मनोऽभिलापको लक्ष्य में रखकर ही दिग्मात्ररूप से यह नामका 'पिंगल' प्रन्थ धृष्टता से प्रारम्भ किया जाता है।' सातवें पद्य में कविवर अपने मनोभावको व्यक्त करते हुए लिखते हैं 'हे भारमल्ल ! मानधनका धारक कविराजमल्ल यदि तुम्हारे यशको छंदोबद्ध करता है तो यह एक बड़े ही की बात है। अथवा आप तेजोमय शरीरकै धारक हैं, आपके पुण्यप्रतापसे पर्वत भी अपना सार बहा देते हैं । ' [ वर्ष ४ यशको अनेक छंदों में वर्णन करने में प्रवृत्त हुए हैं । यहाँ एक बात और भी जान लेनेको है और वह यह कि तीसरे पद्य में जिन 'हर्षकीर्ति' साधुका उनकी गुरु-परम्परा सहित उल्लेख किया गया है वे नागौरी तपागच्छके आचार्य थे, ऐसा 'जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' नामक गुजराती ग्रंथ से जाना जाता है। मालूम होता है भारमल्ल, इसी नागौरी तपागच्छकी श्राम्नायके थे, जो कि नागौर के रहने वाले थे, इसी से उनके पूर्व उनकी श्राम्नाय के साधुओंका उल्लेख किया गया है । कविराजमल्लने अपने दूसरे दो ग्रंथों (जम्बूस्वामिचरित्र, लाटीसंहिता) में काष्ठासंघी माथुरगच्छ के आचार्यों का उल्लेख किया है, जिनकी आम्नायमें वे श्रावकजन थे जिनकी पार्थनापर अथवा जिनके लिये उक्त ग्रंथोंका निर्माण किया गया है । दूसरे दो ग्रंथ ( अध्यात्मकमल मार्तण्ड, और पंचाध्यायी) चूंकि किसी व्यक्तिविशेषकी प्रार्थना पर या उसके लिये नहीं लिखे गये हैं, इस लिये उनमें किसी आम्नायविशेषके साधुओं का वैसा कोई उल्लेख भी नहीं है। और इससे एक तत्त्व यह निकलता है कि कविराजमल जिसके लिये जिस प्रथका निर्माण करते थे उसमें उसकी आम्नायके साधुओंका भी उल्लेख कर देते थे, अतः उनके ऐसे उल्लेखों पर से यह न समझ लेना चाहिये कि वे स्वयं भी उसी आम्नायके थे । बहुत संभव है कि उन्हें किसी आम्नायविशेषका पक्षपात न हो, उनका हृदय उदार हो और वे साम्पदायिकता के पङ्कसे बहुत कुछ ऊँचे उठे हुए हों । इस पिछले पद्यसे यह साफ ध्वनित होता है कि कविराजमल उस समय एक अच्छी ख्याति एवं प्रतिष्ठा प्राप्त विद्वान थे, किसी क्षुद्र स्वार्थके वश होकर कोई कवि-कार्य करना उनकी प्रकृतिमें दाखिल नहीं था, वे सचमुच राजा भारमलके व्यक्तित्व से - उनकी सत्प्रवृत्तियों एवं सौजन्य से - प्रभावित हुए हैं, और इससे छंदःशास्त्र के निर्माण के साथ साथ उनके * वक्खाणिए गोत विक्खात गक्याणि एतस्स ॥ १६८ ॥ कविराजमने दूसरे ग्रंथों की तरह इस ग्रंथ में भी अपना कोई खास परिचय नहीं दिया- कहीं कहीं तो 'मल्लभरणई' 'कविमलक कहै' जैसे वाक्योंद्वारा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल अपना नाम भी श्राधा ही उल्लेखित किया है। जान नामोल्लेग्व भी किया गया है, जैसे :पड़ता है कविवर जहां दूसरोंका परिचय देनमें उदार “पयासिनो पिंगलायरहि ॥ २० ॥" थे वहां अपना परिचय देनेमे सदा ही कृपण रहे हैं, "अह चउमत्तहणामं फणिराम्रो पइगणं भाई....२८" और यह सब उनकी अपने विषयमें उदासीनवृत्ति " "एहु कहइ कुरु पिंगलणागः...४६ ।" एवं ऊँची भावनाका द्योतक है-भले ही इसके द्वारा "सोलहपए"श्रा जो जाणइ थाइराइभणियाई । इतिहासज्ञोंके प्रति कुछ अन्याय होता हो। सो छंदसत्थकुसलो सम्बकईणं च होइ महणीश्रो ॥४३|| हाँ. श्री मोहनलाल दलीचंदजी देशाई, एडवोकेट श्राद्या ज्ञेयेति मात्राणां पताका पठिता बुधैः ।। बम्बईद्वारा लिखे गये उक्त इतिहास ग्रंथ (टि०४८८) श्रीपूज्यपादपादाभिनेता हि(ही)ह विवेकिभिः ।। सं एक बात यह जानना जरूर मिलती है कि पद्म- इस मालम होता है कि कविराजमल मामने सुन्दर नामके किसी दिगम्बर भट्टारकने संवत् १६१५ अनेक प्राचीन छंदःशास्त्र मौजूद थे-श्रीपूज्यपादाचार्य (शरकलाभृत्तभू ) में "रायमल्लाभ्युदय” (पी० ३, का गलबन वह छंदःशास्त्र भी था जिसं श्रवणबेल्गोलके २५५) नामका एक क व्य ग्रंथ लिखा है, जिसमें शिलालेख नं० ४०में उनकी सूक्ष्मबुद्धि (पचनाचातुर्य) ऋषभादि २४ तीर्थ करोंका चरित्र है और उसे 'राय- को ख्यापित करने वाला लिग्वा है-और उन्होंने मल्ल' नामक सुचरित्र श्रावकके नामांकित किया है। उन मबका दोहन एवं पालोडन करके अपना यह संभव है इस प्रथपरस राजमल्लका कोई विशेष ग्रंथ बनाया है। और इसलिए यह ग्रन्थ अपने विषय परिचय उपलब्ध हो जाय । अतः इस प्रथको अच्छी में बहुत प्रामाणिक जान पड़ता है। ग्रन्थके अंतिम तरहसे देखनेकी खास जरूरत है। पद्यमें इस ग्रन्थका दूसरा नाम 'छंदोविद्या' दिया है उक्त सातों संस्कृत पद्योंके अनन्तर प्रस्तावित और इम गजाओंकी हृदयगंगा, गंभीरान्तःसौहित्या, छंदोग्रंथका प्रारम्भ निम्न गाथासे होता है : जैनसंघाधीश-भाग्हमल्ल-सन्मानिता, ब्रह्मश्री कोविजय दीहो संजुत्तवरो बिंदुजुरो यालियो (?) वि चरणंते । करनवाले बड़े बड़े द्विजगजोंके नित्य दिये हुए सैंकड़ों सगुरू चंकदुमत्ते रश्रणो लहु होइ सुद्ध एकअलो ॥७(८) आशीर्वादोंसे परिपूर्णा- लग है। साथ ही, विद्वानोंस इसमें गुरु और लघु अक्षगका स्वरूप बतलात यह निवेदन किया है कि वे इम 'छंदाविद्या' ग्रन्थको हुए लिखा है-जो दीर्घ है, जिसके परभागमें अपने सदनुग्रहका पात्र बनाएँ । वह पद इस प्रकारहै अपने सा संयुक्त वर्ण है, जो बिन्दु (अनुस्वार-विसर्ग.) से क्षोणीभाजां हृत्सुरसरदिं भो गंभीरान्तः सौहित्यां युक्त है, . पादान्त है वह गुरु है, द्विमात्रिक है और जैनानां किल संघाधीशै रहमीः कृतसन्मानां । उसका रूप वक्र (s) है । जो एकमात्रिक है वह ब्रह्मश्रीविजई(यि)द्विजराज्ञां नित्यं दत्ताशीःशतपूया. लघु होता है और उसका रूप शुद्ध-वक्रतासे रहित विद्वांसः सदनुग्रहपात्रां कुर्वत्वेमां छंदोविद्यां ।। सरल (।)-है। __इसी तरह आगे छंदःशास्त्रके नियमों, उपनियमों इससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ उस समय तथा नियमोंक अपवादों आदिका वर्णन ६४ ३ फ्य- अनेक राजाओं तथा बड़े बड़े ब्राह्मण विद्वनोंको भी तक चला गया है, जिसमें अनेक प्रकारसे गणोंके बहुत पसंद आया है, और इसलिये अब इसकाशीघ्र भेद, उनका स्वरूप तथा फल, षण्मात्रिकादिका स्वरूप ही उद्धार होना चाहिये। और प्रस्तारादिकका कथन भी शामिल है । इस सब अगले लेखमें इस ग्रन्थमें वर्णित छंदोंके कुछ वर्णनमें अनेक स्थलोंपर दूसरोंके संस्कृत-पाकृत नमूने, गजाभारमल्ल श्रादिके कुछ ऐतिहासिक परिचय वाक्योंका भी “ अन्य यथा" "अण्णे जहा” जैसे सहित, दिय जावेंगे और उनमें कितनी ही पुरानी शब्दोंके साथ उद्धृत किया है, और कहीं विना ऐसे बातें प्रकाशमें आएँगी । शब्दोंके भी । कहीं कहीं किसी प्राचायके मतका स्पष्ट वीरसंवामंदिर, फाल्गुन शुक्ल ११ सं० १९९७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अनेकान्त [वर्ष ४ लाभ पहुंचाना, यह सब उसका ध्येय ही नहीं है। उसका अल्पविकसितादि दशात्रोंमें हैं और वे अपनी अात्मनिधिको ध्येय है अापके पुण्य गुणोंका स्मरण-भावपूर्वक अनु- प्रायः भूले हुए हैं । सिद्धात्माश्रोंके विकसित गुणोपरसे वे चिन्तन-,जो हमारे चित्तको-चिद्रप आत्माकोपाप- आत्मगुणोंका परिचय प्राप्त करते हैं और फिर उनमें अनुमलोंसे छुड़ाकर निर्मल एवं पवित्र बनाता है और इस तरह राग बढ़ाकर उन्हीं साधनों द्वारा उनगुणोंकी प्राप्तिका यत्न हम उसके द्वारा अपने अात्माके विकासकी साधना करते हैं। करते हैं जिनके द्वारा उन सिद्धात्माोने किया था। और इसीसे पद्यके उत्तरार्धमें यह भावना अथवा प्रार्थना की गई इस लिये वे सिद्धात्मा वीतरागदेव श्रात्म-विकासके इच्छुक है कि 'श्रापके पुण्य गुणोंका स्मरण हमारे पापमलसे मलिन संसारी आत्माओंके लिये 'श्रादर्शरूप' होते हैं, श्रात्मगुणोके श्रात्माको निर्मल करे-उसके विकासमें सहायक होवे।' परिचयादिमें सहायक होनेसे उनके 'उपकारी' होते हैं और यहाँ वीतराग भगवानके पुण्य गुणोंके स्मरणसे पापमल- उसवक्त तक उनके 'श्राराध्य' रहते है जबतक कि उनके से मलिन अात्माके निर्मल (पवित्र) होनेकी जो बात कही गई आत्मगुण पूर्णरूपसे विकसित न हो जायँ। इसीसे स्वामी है वह बड़ी ही रहस्यपूर्ण है, और उसमें जैनधर्मके श्रात्म- समन्तभद्रने "तत:स्वनिःश्रेयसभावनापरैः बुधप्रवेकैः वाद, कर्मवाद, विकासवाद और उपासनावाद-जैसे सिद्धान्तों जिनशीतलेड्यसे (स्व० ५०)” इस बाक्यके द्वारा उन बुधजनका बहुत कुछ रहस्य सूक्ष्मरूपमें संनिहित है। इस विषयमें श्रेष्ठों तकके लिये वीतरागदेवकी पूजाको अावश्यक बतलाया मैंने कितना ही स्पष्टीकरण अपनी 'उपासनातत्त्व' और है जो अपने निःश्रेयसकी—अात्मविकासकी--भावनामें सदा 'सिद्धिसोपान' जैसी पुस्तकोंमें किया है, और गत किरणमें सावधान रहते हैं। और एक दूसरे पद्य (स्व० ११६) में प्रकाशित 'भक्तियोग-रहस्य' नामके मेरे लेखपरसे भी पाठक वीतरागदेवकी इस पूजा-भक्तिको कुशलपरिणामोंकी हेतु उसे जान सकते हैं। यहाँपर मैं सिर्फ इतना ही बतलाना बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्गका सुलभ तथा स्वाधीन होना चाहता हूँ कि स्वामी समन्तभद्रने वीतरागदेवके जिन पण्य- तक लिखा है। साथ ही, नीचेके एक पद्यमें वे, योगबलसे गुणोंके स्मरणकी बात कही है वे अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, आठों पापमलोंको दूरकरके संसारमें न पाये जाने वाले ऐसे अनंततसुख और अनंतवीर्यादि अात्माके असाधारण गुण परमसौख्यको प्राप्त हुए सिद्धात्माअोंका स्मरण करते हुए हैं, जो द्रव्यदृष्टिसे सब आत्माअोंके समान होनेपर सबकी अपने लिये तद्रप होनेकी स्पष्ट भावना भी करते हैं, जो कि समान सम्पत्ति हैं और सभी भव्यजीव उन्हें प्राप्त कर सकते वीतरागदेवकी पूजा-उपासनाका सच्चा रूप है :हैं । जिन पापमलोंने उन गुणोंको अाच्छादित कर रक्खा दुरितमलकलंकमष्टक निरुपमयोगबलेन निर्दहन् । है वे ज्ञानावरणादि आठ कर्म हैं, योगबलसे जिन महा- अभवदभव-सौख्यवान् भवान्भवतु ममापि भवोपशान्तये ॥ त्माश्रोने उन कर्ममलोंको दग्ध करके श्रात्मगुणोंका पूर्ण . स्वामी समन्तभद्रके इन सब विचारोंपरसे यह भलेप्रकार विकास किया है वे ही पूर्ण विकसित, सिद्धात्मा एवं वीत- स्पष्ट हो जाता है कि वीतरागदेवकी उपार राग कहे जाते हैं-शेष सब संसारी जीव अविकसित अथवा है और उसका करना कितना अधिक आवश्यक है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-बन्ध और मोक्ष (लेखक-श्री० परमानन्द जैन, शास्त्री ) संसारमें जो सुख-दुःख सम्पत्ति-विपत्ति, ऊँच-नीच श्रादि अात्मा विससोपचयरूप * कर्मपरमाणुश्रीका कषाय और 'अवस्थाएँ देखने में आती हैं उन सबका कारण कर्म योगशक्तिके द्वारा अाकर्षण करता है उस समय जो आत्माके है । जीवात्मा जैसा अच्छा या बुरा कर्म करता है उसका परिणामविशेष होते हैं उन्हें भावकर्म कहते हैं, और भावकर्मके फल भी उसे अच्छा या बुरा भोगना पड़ता है अर्थात् जैसा द्वारा श्राकर्षित कर्मवर्गणाको द्रव्यकर्म कहते हैं । द्रव्यकर्मसे बीज बोया जाता है फल भी वैसा ही मिलता है-बबूल भावकर्म और भावकर्मसे द्रव्य-कर्मका श्रासव होता है.। रागादि बोने वालेको श्राम नहीं मिल सकते । जो मनुष्य रात दिन कषाय भावोंकी उत्पत्ति में पूर्वोपार्जित द्रव्यकर्म कारण है और जीवहिंसा, मांस भक्षण अादि पापकार्योंमें प्रवृत्ति करते हैं जब द्रव्यकर्मका परिपाककाल आता है तब अात्माकी प्रवृत्ति उन्हें पाप कर्मका परिपाककाल अानेपर दारुण दुःख भी भी रागादिविभावरूप अथवा कषायमय हो जाती है । अतसहना पड़ते हैं, और नरकादि दुर्गतियोंमें भी जाना पड़ता एव विभावभाव और सकषाय परिणतिसे कार्माणवर्गणाका है। परन्तु जो मनुष्य पापसे भयभीत हैं-डरते हैं, और आकर्षण होकर कर्मबंध होता है। और इस तरहसे द्रव्यलोककी सच्ची सजीव-सेवा तथा दान धर्मादिक कार्योंमें कर्मके उदयसे भावकर्ममें परिणमन होता है और भावकर्मके प्रवृत्ति करते रहते हैं और प्रात्मकल्याणमें सदा सावधान परिणमनसे द्रव्यकर्मका बंध होता है । इस प्रकार कर्मबंधकी रहते हैं, वे सदा शुभकर्मके उदयसे सुखी और समृद्ध होते शृंखला बराबर बढ़ती ही रहती है। हैं । अर्थात् उनके शुभ कर्मके उदयसे शरीरको सुख देने कर्म और आत्मा इन दोनों द्रव्योंका स्वभाव भिन्न है; वाली सामग्रीका समागम होता रहता है। क्योंकि अात्मा ज्ञाता-द्रष्टा;चेतन,अमूर्तिक और संकोच-विस्ताइस लोकमें मुख्यत: दो द्रव्य काम करते हैं, जिनमेंसे रकी शक्तिको लिए हुए असंख्यात प्रदेशी है । कर्म पौद्गगएकको चेतन, जीव, रूह या सोल ( Soul ) के नामसे लिक, मूर्तिक और जड़पिण्ड है । ये दोनों द्रव्य विभिन्न पुकारते हैं, और दूसरेको अचेतन, जड़. पुद्गल या मेटर स्वभाव वाले होनेके कारण इन दोनोंकी एक क्षेत्रमें अवस्थिति (matter) कहते हैं । कर्म और आत्माका अनादिकालसे होनेपर भी आत्माका कोई भी प्रदेश कर्मरूप नहीं होता, एवं क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध हो रहा है, प्रतिसमय कर्म और न कर्मका एक भी परमाणु चैतन्यरूप या आत्मरूप ही वर्गणाओंका बंध और निर्जरा होती रहती है; अर्थात् पुराने होता है । जिस तरह सोने और चाँदीको गलाकर दोनोंका कर्म फल देकर झड़ जाते हैं और नवीन कर्म रागादिभावोंके एक पिण्ड,करलेनेपर भी, ये दोनों द्रव्य अपने अपने रूपादि कारण बंधको प्राप्त होते रहते हैं। मन-वचन-कायसे जो गुणोंको नहीं छोड़ते हैं-अपने शुक्ल पीतत्वादिः गुणोंसे श्रात्मप्रदेशोंमें हलन चलन रूपक्रिया होती है उसे योग कहते ह उस योग कहत जो परमाणु वर्तमानमें कर्मरूप तो नहीं हुए हैं किन्तु हो हैं । रागादि विभावरूप परिणत हुअा अात्मा इस योग-शक्ति भविष्यमें कर्मरूप परिणमनको प्राप्त होंगे--कर्म अवस्थाको के द्वारा नवीन कर्मवर्गणात्रोंका आकर्षण करता है । जब धारण करेंगे उन परमाणुअोंको 'विससोपचय' कहते हैं । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अनेकान्त [वर्ष ४ अपनी अपनी सत्ता अलग ही रखते हैं । इसी तरह यद्यपि कषाय और योग । तत्त्वार्थके विपरीत श्रद्धानको 'मिथ्यात्व' आत्मा और कर्म इस समय एकमेक सरीखे हो रहे हैं परन्तु कहते हैं । अथवा अपने स्वरूपसे भिन्न पर पदाथोंमें आत्मआत्मा और कर्म अपने अपने लक्षणादिसे अपनी अपनी त्व बुद्धिरूप जीवके विपरीताभिनिवेशको 'मिथ्यात्व' कहते सत्ता जुदी ही रखते हैं कोई भी द्रव्य अपने स्वभावको नहीं हैं। मिथ्यात्व जीवका सबसे प्रबल शत्रु है, संसार परिभ्रमण छोड़ते । इसके सिवाय, तपश्चरणादिके द्वारा कर्मोंका श्रोत्मा- का मुख्यकारण है और कर्मबंधका निदान है । इसके रहते से सम्बन्ध छूट जाता है-श्रात्मा और कर्म अलग अलग हुए जीवात्मा अपने स्वरूपको नहीं प्राप्त कर सकता है । हो जाते हैं इससे भी उक्त दोनों द्रव्योंकी भिन्नता स्पष्ट षटकाय, पाँच इन्द्रिय और मन इन १२ स्थानोंकी हिंसासे विरक्त नहीं होना 'अविरति' है । उत्तमक्षमादि दशधर्मके कोंके मूल पाठ भेद हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, पालनमें. तथा पांच इन्द्रियोंके निग्रह करनेमें. और अात्मवेदनीय, मोहनीय, श्रायु, नाम, गोत्र और अंतराय । इन स्वरूपकी प्राप्तिमें जो अनुत्साह एवं अनादररूप प्रवृत्ति होती अाठ कर्मोकी उत्तर प्रकृतियाँ १४८ हैं । कर्मकी इन अष्ट- है उसे 'प्रमाद' कहते हैं । जो आत्माको कषे अर्थात् दुःखदे मूल प्रकृतियोंको दो भेदोंमें बांटा जाता है, जिनका नाम उसे 'कषाय' कहते हैं । कषायसे आत्मामें रागादि विभावघातिकर्म और अघातिकर्म है। जो जीवके अनुजीवीगुणोंको भावोंका उद्गम होता रहता है और उससे अात्मा कलुषित घातते हैं-उन्हें प्रकट नहीं होने देते-उनको घातिकर्म रहता है और कलुषता ही कर्मबन्धमें मुख्य कारण है, वैर त कहते हैं। और जो जीवके अनुजीवीगुणोंको नहीं घातते विरोधको बढ़ानेवाली है-और शांतिकी घातक है। मन, उन्हें अघातिकर्म कहते हैं । इन अष्ट कर्मोमेंसे मोहनीयकर्म वचन और कायके निमित्तसे होने वाली क्रियासे युक्त आत्माका महान् शत्रु है इससे ही अन्यकर्मोमें घातकत्व श्रात्माके जो वीर्य विशेष उत्पन्न होता है उसे 'योग' कहते हैं । शक्तिका प्रादुर्भाव होता है। कर्मबन्धनसे आत्मा पराधीन अथवा जीवकी परिस्पन्दरूप क्रियाको 'योग' कहते हैं । योग दो और दुःखी रहता है, उसकी शक्तियोंका पूर्ण विकास नहीं प्रकारका है,शुभयोग और अशुभ योगादेवपूजा,लोकसेवा,और हो पाता । परन्तु इन कर्मोका जितने अंशोंमें क्षयोपशमादि अहिंसा आदि धार्मिक कार्योंमें जो मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति रहता है उतने अंशोंमें श्रात्मशक्तियाँ भी विकसित रहती हैं। होती है उसे 'शुभयोग' कहते हैं। और हिंसा-झूठ-कुशीला. जब जीव क्रोध-मान-माया और लोभादिरूप सकषाय दिक पापकार्योंमें जो प्रवृत्ति होती है उसे 'अशुभयोग' कहते परिणमनको प्राप्त होता हुअा योगशक्तिके द्वारा आकर्षित हैं । जब तक जीव सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त कर लेता तब तक कर्मरूप होने योग्य पुद्गलद्रव्यको ग्रहण करता है उसे इन दोनों योगोंमेंसे कोई भी एक योग रहे परन्तु उसके बन्ध कहते हैं । घातियाकर्मकी सर्व प्रकृतियोंका बंध निरन्तर होता रहता है । कर्मबन्धके पांच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, अर्थात् इस जीवका ऐसा कोई भी समय अवशिष्ट नहीं रहता *जीवो कसायजुत्तो जोगादो कम्मणो दु जे जोग्गा । जिसमें कभी किसी प्रकृतिका बंध न होता हो। गेण्हइ पोग्गलदव्वे बन्धो सो होदि णायव्वो ॥ हाँ इतनी विशेषता ज़रूर है कि मोहनीयकर्मकी हास्य, -मूलाचारे, वट्टकेरः, १२, १८३ सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पगलानादत्ते स बन्धः। शोक, रति-अरतिरूप दो युगलोंमें और तीन वेदोमेंसे एक -तत्त्वार्थसूत्रे, उमास्वाति,८,१ समयमें सिर्फ एक एक प्रकृतिका ही बंध होता है । परन्तु Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्ध और मोक्ष किरण २ ] यदि किसी जीवके श्रघातिकर्म प्रकृतियोंमें शुभयोग होता है तो उस समय उसके सातावेदनीय श्रादि पुष्य प्रकृतियोंका बंध होता है । और यदि अशुभयोग होता है तब असाता वेदनीय आदि पाप प्रकृतियोंका बंध होता है । तथा मिश्रयोग होनेपर पुण्य प्रकृतियां और पापरूप दोनों प्रकृतियों का बंध होता है । जब श्रात्मामें कर्मबन्ध होता है तब उसका बंध होने के साथ ही, प्रकृति-प्रदेश-स्थिति और अनुभागके भेदसे चतुविधरूप परिणमन हो जाता है, जिस तरह खाए हुए भोजनादिका अस्थि, मासादि सप्तधातु और उपधातु रूपसे परिणमन हो जाता है । इनमेंसे प्रथमके दो बंध प्रकृति और प्रदेश तो योगसे होते हैं स्थिति और अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं । मोहके उदयसे जो मिथ्यात्व और क्रोधादि1 रूपभाव होते हैं। उन सबको सामान्यतया 'कषाय' कहते हैं । कषायसे ही कर्मोंका स्थिति बन्ध होता है अर्थात् जिसकर्मका जितना स्थितिबंध होता है उसमें बाधाकालको छोड़कर जब तक उसकी वह स्थिति पूर्ण नहीं हो जाती तबतक समय समय में उस प्रकृतिका उदय श्राता ही रहता है । किन्तु देवायु, मनुष्यायु और तिर्यचायुके बिना न्य सभी घातिया श्रघातिया कर्मप्रकृतियोंका मन्द कषायसे अल्प स्थिति बंध होता है और तीव्रकषायके उदयसे अधिक स्थिति बन्ध होता है । परन्तु उक्त तीनों श्रायुत्रोंका मन्दकषायसे अधिक और तीव्रकषायसे अल्प (थोड़ा ) स्थिति बंध होता है । इस कषायके द्वाराही कर्मप्रकृतियोंमें अनुभाग- शक्तिका विशेष परिणमन होता है । अर्थात् जैसा अनुभागबंध होगा उसीके अनुसार उन कर्मप्रकृतियोंका उदयकाल में अल्प या बहुत फल निष्पन्न होगा । घातिकर्मकी सब प्रकृतियोंमें और घातिकर्मकी पाप प्रकृतियोंमें तो मन्दकषायसे थोड़ा अनुभागबंध होता है और तीव्रकषाय से बहुत । किन्तु पुण्यप्रकृतियोंमें मन्दकषायसे वहुत और १४३ तीव्रकषायसे अल्प ( थोड़ा ) अनुभाग बन्ध होता है । इस तरहसे कषाय स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके विशेष परिणमनमें कारण है । परन्तु इन सब कारणो में कषाय ही कर्मबन्धका प्रधान कारण है । इसीलिये जब तक जीवकी सकषाय परिणति रहती है तब तक चारों प्रकारका बंध प्रतिसमय होता रहता है, किन्तु जब कषायकी मुक्ति हो जाती है— आत्मासे कषायका सम्बन्ध छूट जाता है तब कषायसे होनेवाला उक्त दो प्रकारका बंध भी दूर हो जाता है । इसी कारण आगम में यह बताया गया है कि 'कषाय मुक्तिः किल मुक्तिरेव' अर्थात् कषायकी मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है । इस कर्मबंधन से छूटनेका अमोघ उपाय, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रकी प्राप्ति है । इन तीनोंकी पूर्णता एवं परम प्रकर्षतासे ही ग्रात्मा कर्मके सुदृढ़ बन्धन से मुक्त हो जाता है और सदा अपने श्रात्मोत्थ अव्यावाध निराकुल सुखमें मग्न रहता है । तत्त्वार्थ के श्रद्धानको 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं - श्रथवा जीव, जीव, प्रसव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सप्त तत्त्वरूप अर्थके श्रद्धानको — प्रतीतिको सम्यग्दर्शन कहते हैं । सम्यग्दर्शन श्रात्माकी निधि है और इसकी प्राप्ति I दर्शन मोहनीयकर्मके उपशम, क्षय, क्षयोपशमादिसे होती है । सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें तीन कारण हैं—भवस्थितिकी सन्निकटता, कालादिलब्धिकी प्राप्ति और भव्यत्वभावका विपाक । इन तीनों कारणोंसे जीव सम्यक्त्वी बनता है * । इन सब कारणों में भव्यत्वभावका विपाक ही मुख्य कारण है सम्यक्त्वके होनेपर ४१ कर्मप्रकृतियोंका बंध होना क जाता है । सम्यग्दर्शन मोक्ष महलकी पहली सीढ़ी है, इसके * दैवात्कालादि संलब्धौ प्रत्यासन्ने भवार्णवे । भव्यभावविपाकाद्वा जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ॥ -पंचाध्यायी, २, ३७८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ बिना ज्ञान और चारित्र मिथ्या कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टिके चारित्र है । अर्थात् जो क्रियाएँ श्रात्मस्वरूपकी घातक हैंप्राप्त होते ही उनमें समीचीनता-सत्यता अाजाती है और वे जिनसे आत्मापतनकी ओर ही अग्रसर होता है--उनके दोनों सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके यथार्थ नामोंसे अंकित सर्वथा परित्यागको 'सम्यकचारित्र' कहते हैं। सदृष्टि और हो जाते हैं। अर्थात् श्रात्मासे जब मिथ्यात्वरूप प्रवृत्ति दूर समीचीन ज्ञानके साथ जैसे जैसे आत्मा विकासकी अोर अागे हो जाती है तब आत्मा अपने स्वभावमें स्थिर हो जाता है, बढ़ता है वैसे वैसे ही उसकी प्रात्मपरिणति भी निर्मल होती उस समय उसका ज्ञान और श्राचरण दोनों ही सम्यक् चली जाती है और वह अपनी आत्मविशुद्धिसे कर्मोकी प्रतिभासित होने लगते हैं। सदृष्टिके प्राप्त होते ही उसकी असंख्यात गुणी निर्जरा करता हुआ क्षपक श्रेणीपर श्रारूढ़ विभाव परिणति हट जाती है और वह अपने सच्चिदानन्द- होकर राग-द्वषके अभावरूप परमवीतराग भावको अंगीकार रूप अात्मस्वरूपमें तन्मय हो जाता है, फिर उसका संसारमें करता है । उस समय श्रात्मा स्वरूपाचरणमें अनुरक्त हुश्रा जीवोंसे कोई वैर-विरोध नहीं होता, और न वह बुद्धिपूर्वक ध्यान-ध्याता-ध्येयके विकल्पोंसे रहित अपने चैतन्य चमकिसीको अपना शत्र-मित्र ही मानता है। उसकी दृष्टि विशाल काररूप विज्ञानघन अात्मस्वरूपमें तन्मय हो जाता है और श्रौदार्यादि गुणोंको लिये हुए होती है, हृदय स्वच्छ और रत्नत्रयकी अभेद परिणतिमें मग्न हो जाता है, उसी तथा दयासे श्राद्र हो जाता है, संकीर्णता, कदाग्रह और समय आत्मा शुक्लध्यानरूप अग्निसे चार घातियाकर्मोका भयादि दुर्गुण उससे कोसों दूर भाग जाते हैं और वह समूल नाशकर कैवल्यकी प्राप्ति करता है। पश्चात् योगनिंदक एवं पूजकपर समान भाव धारण करता है। निरोध-द्वारा अवशिष्ट अघाति कर्मोका भी समूल नाशकर - पदार्थके स्वरूपको जैसाका तैसा जानना उसे उसके सिद्ध परमात्मा हो जाता है और सदाके लिये कर्मबंधनसे उसी रूपमें अनुभव करना 'सम्यग्ज्ञान' है। पाफ्की कारण- छूटकर अपने वीतराग स्वरूपमें स्थिर रहता है। भूत सांसारिक क्रियाओंका भले प्रकार त्याग करना सम्यक- वीरसेवामंदिर, सरसावा ता०५-३-१९४१ दुनियाका मेला जी भरकर जीवन-रस ले ले, दो-दिनका दुनियाका मेला ! दूर-दूरके यहां बटोही-आते-जाते नित्य , रजनी होती, चांद चमकता, अरु दिनमें श्रादित्य । अम्बरमें अगणित तारे हैं, भूपर प्राणी ठेलम-ठेला !! सुख-दुखकी दो पगडंडी हैं, पाप-पुण्य दो पैर , चाहे जिधर घूमकर करले पथिक! जगतकी सैर! इधर योगीकी मौन-समाधि, उधर बजाता बीन, सपेला! एक अोर घनघोर घटा है, एक अोर आलोक ; एक अोर मन हर्षित होता, एक मोर हा! शोक !! तीन लोक बहु द्वीप-खण्डके, जीवोंका लगता है मेला ! चाहे जिसे समझले अपना, चाहे जिसको और : - चोर, लुटेरे, हत्यारे हैं, यहां न तेरी खैर ! सावधान हो ! जान बचाकर भाग यहांसे भाग अकेला ! ... सपना समझ इसे रे! यहतो माया मकड़ी-कासा जाला: ऊपरसे सुख-शुभ्र दीखता, पर अंदरसे बिल्कुल काला! इसे परखता वही पारखी, जो सच्चे सत्-गुरुका चेला ! जी भरकर, जीवन-रस ले ले, दो दिनका दुमियाका मेला !! . - पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनमुनियोंके नामान्त पद (ले०-अगरचन्द नाहटा, बीकानेर ) जिस प्रकार बालकोंका नामकरण अपने अपने इसके सम्बन्धमें कोई उल्लेख नहीं पाया जाता है। प्रान्तों, जातियोंके पूर्व-पुरुषों एवं प्रचलित नामोंके पर चैत्यवासके समयमें इस प्रथाका प्रचार हम अवश्य अनुकरणरूप होता है। जैसे:-मारवाड़ प्रान्तमें मनुष्यों देखते हैं, अतः यह धारणा सहज होजाती है कि के नामान्त पद "लाल, चन्द, गज, मल्ल, दान नाम परिवतेनका विधान तभीसे प्रारम्भ हुआ प्रतीत आदि होते हैं-उसी प्रकार मुनियोंके भी भिन्न भिन्न होता है । विचार करने पर इसका कारण जिस प्रकार अनेक नामान्त पद पाये जाते हैं। आजकल दिगम्बर वेषका परिवर्तन होजानेपर गृहस्थ सम्बन्धी भावनाओं समाजमें तो मुनियों का नामान्तपद 'सागर' देखने में का त्याग करनेमें सुगमता रहती है उसी प्रकार नामआता है, यथाः-शान्तिसागर, कंथसागर, और श्वेता- परिवर्तन कर देने पर गृहस्थके नाम आदिका मोह म्बर समाजको तीन सम्प्रदायोमेंसे १ स्थानकवासी- नहीं रहता या कम हो जाता है यही मालूम देता है। ढुंढ़क २ तेरहपन्थी इन दो समुदायोंमें तो पर्वके इस प्रकारके नाम परिवर्तनकी प्रथा वैदिक सम्प्र(गृहस्थावस्थाक) नाम ही मुनिअवस्थामें भी कायम दायमें भी पाई जाती है। 'दर्शनप्रकाश' नामक ग्रन्थ रखते हैं, मूर्तिपूजक सम्प्रदायके तपागच्छ सागर में सन्यासियोंके दस प्रकारके नामोंका उल्लेख पाया एदं विजय, खरतरगच्छमें 'सागर' और 'मनि'. पाय- जाता है । यथाः-१ गिरी-सदाशिव, २ पर्वत-पुरुष चंद्रगच्छमें 'चन्द्र' और अंचलगच्छ में 'सागर' ये ही ३ सागर-शक्ति, ४ वन-रुद्र, ५ अरिण-कार ६ तीर्थनामान्त पद पाये जाते हैं, पर जब पूर्ववर्ती प्राचीन ब्रह्म, ७ आगम-विष्णु, ८ मठ-शिव, ९ पुरी-अक्षर, इतिहासका अध्ययन करते हैं तो अनेक नामाम्त पदों १० भारती परब्रह्म । . का उल्लेख एवं व्यवहार देखनेमें आता है। अतः इस 'भारतका धार्मिक इतिहास' ग्रन्थके पृ० १८० निबन्धमें उन्हीं मुनिनामान्त पदोंकी संख्या पर में १० नामान्त पद ये बतलाए हैं-१ गिरी, २ पुरी, विचार किया जा रहा है। . ३ भारती, ४ सागर, ५ श्राश्रम, ६ पर्वत, ७ तीर्थ, ___ इस सम्बन्धमें सर्वप्रथम यही प्रश्न होता है कि सरस्वती, ९ वन १० आचार्य । गृहस्थावस्थाको त्यागकर मुनि होजाने पर नाम क्यों श्वे० जैन ग्रंथों में 'नामकरणविधि का सबसे बदले जाते हैं यानि नवीन नामकरण क्यों किया जाता प्राचीन एवं स्पष्ट उल्लेख रुद्रपल्लीय खरतरगच्छके है ? और यह प्रथा कितनी प्राचीन है ? आचार्य श्री वर्द्धमानसूरि जी रचित (सं० १४६८ का ___ महावीरकालीन इतिहासके अवकोलनसे नाम - * स्व० आत्मारामजी लिखित सम्यक्त्वशल्योद्धार पृ० १३ में परिवर्तनकी प्रथा दृष्टिगोचर नहीं होती और पिछले 'पञ्चवस्तु' का उल्लेख किया है, पर वह हमारे अवलोकन ग्रंथों में भी इस रीतिका कबसे और क्यों प्रचार हुआ? में नहीं आया । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ सु० १५ जालन्धर देशस्य नंदबनपुर में ) 'श्राचार ११ दत्त, १२ कीर्ति, १३ प्रिय, १४ प्रवर, १५ आनंद, दिनकर' नामक ग्रन्थमें विस्तारके साथ मिलता है। १६ निधि, १७ गज, १८ सुन्दर, १६ शेखर, २० अतः हम उस प्रन्थके एतद् सम्बन्धी आवश्यक वर्द्धन, २१ श्राकर, २२ हंस, २३ रत्न, २४ मेरु, अंशका सार नीचे दे देते हैं : २५ मूर्ति, २६ सार, २७ भूषण, २८ धर्म, २६ केतु __ "प्राचीन कालमें साधु एवं सूरिपदके समय नाम (ध्वज), ३० पुण्डक (कमल), ३१ पुङ्गव, ३२ ज्ञान, परिवर्तन नहीं होते थे पर वर्तमानमें गच्छ संयोग- ३३ दर्शन, ३४ वीर, इत्यादि । वृद्धिके हेतु ऐसा किया जाता है। सूरि, उपाध्याय, वाचनाचार्यों के नाम भी साधु१ योनि, २ वर्ग, ३ लभ्यालभ्य, ४ गण और वत् समझे । साध्वियों के नामों में पूर्वपद तो मुनियोंके ५ राशि भेदको ध्यानमें रखते हुए शुद्ध नाम देना समान ही समझे उत्तरपद इस प्रकार हैं:चाहिये । नाममें पूर्वपद एवं उत्तरपद इस प्रकारके १ मति, २ चूला, ३ प्रभा, ४ देवी, ५ लब्धि, दो पद होते हैं। उनमें मुनियोंके नामों में पूर्वपद ६ सिद्धि, ७ वती । प्रवर्तिनीके नाम भी इसी प्रकार निम्नोक्त रखे जा सकते हैं। हैं। महत्तगके नामों में उत्तरपद 'श्री' रखना चा हये । ____१ शुभ, २ देव, ३ गुण, ४ आगम, ५ जिन, जिनकल्पीका नामान्त पद 'सेन' इतना विशेष ६ कीर्ति, ७ रमा (लक्ष्मी), ८ चन्द्र, ९शील, १० उदय, समझना चाहिये । (आगे ब्राह्मण क्षत्रियोंके नामोंक ११ धन, १२ विद्या, १३ विमल, १४ कल्याण, पद भी बतलाये हैं विशेषार्थियोंको भूलनाथका ४०वाँ १५ जीव, १६ मेघ, १७ दिवाकर, १८ मुनि, १९ उदय (पृ० ३८६-८९) देखना चाहिये )। त्रिभुवन, २० अंभोज (कमल), २१ सुधा, २२ तंज, खरतरगच्छमें इन नामान्त पदोंको वर्तमानमें २३ महा, २४ नृप, २५ दया, २६ भाव, २७ क्षमा, 'नांदि' या 'नंदी' कहते है और इनकी संख्या ८४ २८ सूर, २९ सुवर्ण, ३० मणि, ३१ कर्म, ३२ श्रानंद, संख्या * की विशेषता सूचक ८४ बतलाई जाती है। ३३ अनंत, ३४ धर्म, ३५ जय, ३६ देवेन्द्र (देव-इंद्र), विशेष खोज करनेपर खातग्गच्छीय श्रीपूज्य जिन-चा ३७ सागर, ३८ सिद्धि, ३६ शांति, ४० लब्धि, ४१ रित्र सूरिजीके दफ्तर एवं कई अन्य फुटकर पत्रों में इन बुद्धि, ४२ सहज, ४३ ज्ञान, ४४ दर्शन, ४५ चारित्र, ८४ नामान्त पदोंकी प्राप्ति हुई । उनमें संख्या गिननेक ४६ वीर, ४७ विजय, ४८ चारु, ४९ राम, ५० सिंह, लिये तो नम्बर ८४ थे पर कई पद तो दो तीन वार (मृगाधिप ।, ५१ मही, ५२ विशाल, ५३ विबुध, पुनरुक्ति रूपसे उनमें पाये गये, उन्हें अलग कर देने ५४ विनय, ५५ नय, ५६ सर्व, ५७ प्रबोध, ५८ रूप, पर संख्या ७८ के करीब ही रह गई, इसके पश्चात् ५९ गण, ६० मेरु, ६१ वर, ६२ जयंत, ६३ योग, हमने खरतरगच्छके मुनियोंके नामान्त पदोंकी, जो ६४ ताग ६५ कला, ६६ पृथ्वी, ६७ हरि, ६८ प्रिय। कि प्रयुक्त रूपसे पाये जाते हैं, खोज की तो कई मुनियोंके नामके अन्त्य पद ये हैं: नामान्त पद नये ही उपलब्ध हुए। उन सबको यहां १ शशांक (चन्द्र), २ कुंभ, ३ शैल, ४ अब्धि. अक्षरानुक्रमसे नीचे दिये देते हैं:५ कुमार, ६ प्रभ, ७ वल्लभ, ८ सिंह, ९ कुंजर, १०देव, *इस संख्याके सम्बन्धमें एक स्वतंत्र लेख लिखनेका विचार है Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] जैनमुनियोंके नामान्त पद १ अमृत, २ श्राकर, ३ आनंद, ४ इंद्र, ५.उदय, कहीं भी हमारे अवलो नमें नहीं आई, हमने प्राचीन ६ कमल, ७ कल्याण, ८ कलश; ९ कल्लोल, १० कीर्ति, ग्रन्थों, टिप्पणकों आदिले . इतने नामान्तपद प्राप्त ११ कुमार, १२ कुशल, १३ कुंजर, १४. गणि, किये हैं :१५ चन्द्र, १६ चारित्र, १७ चित्त, १८ जय, १६णाम, १ श्री, २ माला, ३ चूला, ४ वतो, ५ मती, २० तिलक, २१ दर्शन, २२ दत्त, २३ देव, २४ धर्म, ६प्रभा, ७लक्ष्मी, ८सुन्दरी, ९सिद्धि,१०निद्धि,११वृद्धि, २५ ध्वज, २६ धीर, २७ निधि, २८ निधान, २९ १२ समृद्धि, १३ वृष्टि, १४ दर्शना, १५ धर्मा, १६ निवास, ३० नंदन, ३१ नंदि, ३२ पद्म, ३३ पति, मंजरी, १७ देवी, १८ श्रिया, १९ शोभा, २. बल्ली, ३४ पाल, ३५ प्रिय, ३६ प्रबोध, ३७ प्रमोद, ३८ प्रधान, २१ ऋद्धि, २२ सेना, २३ शिखा, २४ रुचि, २५ शीला, ३९ प्रभ, ४० भद्र, ४१ भक्त, ४२ भक्ति, ४३ भूषण, २६ विजया, २७ महिमा । ४४ भंडार, ४५ माणिक्य, ४६ मुनि, ४५ मूर्ति, दिगम्बर एवं अन्य श्वेताम्बर गच्छोंमें जितने ४८ मेरु, ४९ मंडण, ५० मंदिर, ५१ युक्ति, ५२. रथ, जितने मुनिनामान्त पदोंका उल्लेख देखने में आया ५३ रत्न, ५४ रक्षित, ५५ राज, ५६ रुचि, ५७ रंग, है उनका विवरण यहाँ दे दिया जाता है :५८ लब्धि, ५९ लाभ, ६० वर्द्धन, ६१ वल्लभ, दिगम्बर-नन्दि,, चंद्र, कीर्ति, भूषण । ये प्रायः ६२ वजय, ६३ विनय, ६४ वमल, ६५ विलास, नंदि संघके मुनियोंके नामान्तपद हैं। ६६ विशाल, ६७ शील, ६८ शेखर, ६९ समुद्र, सेन, भद्र, राज, वीर्य ये प्रायः सेनसंघके मुनि७० सत्य, ७१ सागर, ७२ सार, ७३ सिंधुर, ७४ सिंह, नामान्तपद हैं। -(विद्वद्रत्नमाला पृ० १८) उपदेशगच्छकी २२ शाग्वाएँ :७५ ,सुख, ७६ सुन्दर, ७७ सेना, ७८ सोम, १ सुन्दर, २ प्रभ, ३ कनक, ४ मेरु, ५ सार, ७९ सौभाग्य, ८० संयम, ८१ हर्ष, ८२ हित, ८३ हेम, ६ चंद्र, ७ सागर, ८ हंस, ९ तिलक, १० कलश, ८४ हंस। ११ रत्न, १२ समुद्र, १३ कल्लोल, १४ रंग, १५ नीचे लिखे नामान्त पदोंका उल्लेख मात्र मिलता ता शेखर, १६ विशाल, १७ राज, १८ कुमार, १९ देव, है व्यवहृत नहीं देखे गये : २० श्रानंद, २१ अदित्य, १२ कुंभ। कनक, पर्वत, चरित्र, ललित, प्राज्ञ, ज्ञान, मुक्ति, (उपकंशगच्छपट्टावली प्र० जनसाहित्य संशोधक) दास, गिरी, नंद, मान, प्रीति, छत्र, फण, प्रभद्र, इससे स्पष्ट है कि कहीं कहीं दिगम्बर विद्वान् तिय, हिंस, गज, लक्ष्म , वर, धर, सूर, सुकाल, मोह, यह समझनेकी भूल कर बैठते हैं कि, भूषण, सेन, क्षेम, वीर ( यह नंदि खरतरगच्छमें नहीं हैं ) तुंग कीर्ति श्रादि नामान्त पद दिगम्बर मुनियों के ही हैं, (अंचलगच्छ)। वह ठीक नहीं हैं । इन सभी नामान्त पदोंका व्यवहार ___ इनमें से कई पद नामके पूर्वपदरूपमें अवश्य श्वे० समाजमें भी हुआ है। व्यवहृत हैं। न म परिवर्तनमें प्रायः यह ध्यान रखा जाता है ___इसी प्रकार साध्वियोंकी नंदियें (नामान्तपद) भी कि मुनिकी गशि उसके पूर्वनामकी ही रहे, बहुतसे ८४ ही कही जाती हैं, पर उनकी सूची अद्यावधि स्थानों में प्रथमाक्षर भी वही रखा जाता है । जैसे Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अनेकान्त सुखलालका दीक्षित नाम सुखलाभ, राजमलका राजसुन्दर, रत्नसुन्दर आदि । तपागच्छ : लक्ष्मीसागरसूरि (सं० १५०८–१७ ) के मुनियोंके नामान्त पद - " तिलक, विवेक, रुचि, राज, सहज, भूषण, कल्याण, श्रुत, शीति, प्रीति, मूर्त्ति, प्रमोद, आनंद, नन्दि, साधु, रत्न, मंडण, नंदन, वर्द्धन, ज्ञान, दर्शन, प्रभ, लाभ, धर्म, सोम, संयम, हेम, क्षेम, प्रिय, उदय, माणिक्य, सत्य, जय, विजय, सुन्दर, सार, धीर, वीर, चारित्र, चंद्र, भद्र, समुद्र, शेखर, सागर, सूर, मंगल, शील, कुशल, विमल, कमल, विशाल, देव, शिव, यश, कलश, हर्ष, हंस, ५७ इत्यादि पदान्ताः सहस्रशः । ( सोमचारित्र कृत " गुरुगुण" रत्नाकर काव्य द्वितीयसर्ग ) । हीरविजयसूरिजी के समुदायकी १८ शाखायें:१ विजय, २ विमल, ३ सागर, ४ चंद्र, ५ हर्ष, ६ सौभाग्य, ७ सुन्दर, ८ रत्न, ९ धर्म, १० हंस, ११ आनंद, १२ वर्द्धन, १३, सोम, १४ रुचि, १५ सार, १६ राज, १७ कुशल, १८ उदय । (ऐ० सज्झायमाला पृ० १० ) [ वर्ष ४ है । इसी प्रकार इनके शिष्य जिनचन्द्रसूरिजी से चतुर्थ पट्ट पर यही नाम रखना रूढ़ होगया है । २ गुर्वावली से स्पष्ट है कि उस समय सामान्य आचार्य पदके समय इसी प्रकार ‘उपाध्याय', 'वाचनाचार्य' पदों एवं साध्वियों के 'महत्तरा' पद प्रदानके समय भी कभी कभी नाम परिवर्तन-नवीन नामकरण होता था । परिपाटियें: नंदियोंके सम्बन्धमें खरतरगच्छ में कई विशेष परिपाटियें देखने एवं जाननेमें आई हैं और उनसे कई महत्वपूर्ण बातों का पता चलता है, अतः उनका विवरण नीचे दिया जाता है: - १ खरतरगच्छ के आदि पुरुष जिनेश्वरसूरिजी से पट्टधर आचार्यों के नामका पूर्वपद 'जिन' रूढ़ होगया ३ तपागच्छादिमें गुरु-शिष्यका नामान्त पद एक ही देखा जाता है, पर खरतरगच्छ में यह परिपाटी नहीं है, गुरुका जो नामान्त पद होगा वही पद शिष्य के लिये नहीं रखे जाने की खरतरगच्छ में एक विशेष परिपाटी है + । इससे जिस मुनिने अपने ग्रंथादि में गच्छका उल्लेख नहीं किया है पर यदि उसके गुरुका नामान्त पद उससे भिन्न है तो उसके खतरगच्छीय होनेकी विशेष सम्भावना की जा सकती है । ५ सब मुनियोंकी दीक्षा पट्टधर आचार्यके हाथसे : ही होती थी । क्वचित् विशेष कारणसे वे अन्य श्राचार्य महाराज, उपाध्यायों आदिको आज्ञा देते थे तब अन्य भी दीक्षा देसकते थे । नवदीक्षित मुनियोंका नामान्तपद-सम्बन्धी खरतरगच्छ की कई विशेष नामकरण पट्टधर सूरि स्थापित नंदीके अनुसार ही होता था । सबसे अधिक नंदीकी स्थापना युग प्रधान जिनचन्द्रसूरिजी ने की थी । उनके द्वारा स्थापित ४४ नंदियों की सूची हमारे लिखे हुए 'यु० जिनचन्द्र* अपवाद 'अभयदेवसूरि, पर वे पहले मूलपट्टधर नहीं थे, इसीलिए उनका पूर्व नाम ही प्रसिद्ध रहा । + अपवाद 'कविजिनहर्ष' पर ऐसा होनेका भी विशेष कारण होगा । कविवर जिनहर्ष के लिए भी हमने एक स्वतंत्र लेख लिखा है । ४ साध्वियों के नामन्त पदोंके लिये नं० ३ वाली बात न होकर गुरुणी शिष्यरणीका नामान्त पद एक ही देखा गया है । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] जैनमुनियोंके नामान्त पद सूरि' ग्रंथके पृ० २५९ से ६१ में प्रकाशित है। दीक्षा उनका नामान्त पद भी अपना नामान्त पद-'चंद्र' समयमें एक साथ जितने भी मुनियोंकी दीक्षा हो ही रखेंगे। इसी प्रकार जिनसुखसूरि पहले "सुख" उन सबका नामान्त पद एक ही रक्खा जाय, ऐसी नंदि, लाभसूरि “लाभ” नंदि भक्तिसूरि "भक्ति” नंदि परिपाटी भी प्रतीत होती है यह परिपाटी बहुत ही ही सर्वप्रथम रखेंगे । अर्थात नवदीक्षित मुनियोंका महत्व पूर्ण है। __ सर्वप्रथम नामान्त पद वही रखा जायगा। उस समयके अधिकांश मुनियोंकी दीक्षाका अनु- ७ खरतरगच्छमें श्री जिनपतिसूरिजीने दफ़तरक्रम हम उसी नंदी अनुक्रमसे पा लेते हैं । यथा-गुण- इतिहास डायरी रखने की बहुत अच्छी परिपाटी विनय और समयसुदर दोनों विद्वान समकालीन थे चलाई है, इस दफतर बही में जिस संवत्-मिति को अब इनमें कौन पूर्व दीक्षित थे, कौन पीछे दीक्षित जिस किसीको दीक्षा एवं सूरि-पदादि दिये जाते हैं हुए ? हमें यह जानना हो तो हम तुरंत नंदी अनुक्रम उनकी पूरी नामावली लिख लेते थे, इसी प्रकार जहाँ के सहारे यह कह सकते हैं कि गुणविनयकी दीक्षा जहाँ विहार करते हैं वहाँ के प्रतिष्ठादि महत्वपूर्ण प्रथम हुई; क्योंकि उनकी नंदीका नं०८ वां है और कार्यों एवं घटनाओंकी नोंध भी उसमें रख ली जाती 'सुन्दर' नंदीका नम्बर २०वां है। थी, वहां उस समय अपने गच्छके जितने श्रावक होते पीछेके दफतरोंको देखनेसे पता चलता है कि र उनमें जो विशिष्ट भक्ति आदि करते उनका भी उसमें एक नंदी (नामान्त पद) एक साथ दीक्षित मुनियोंके विवरण लिख लिया जाता, इससे इतिहासमें बड़ीभारी लिये एक ही बार व्यवहत न होकर (वह नामाम्त पद) __ मदद मिलती है। खेद है क ऐसे दफ़तर क्रमिक पूरे कुछ समय तक चला करती थी अर्थात् "चंद्र" नंदी उपलब्ध नहीं होते ! अन्यथा, खरतरगच्छका ऐसा चालू की गई उसमें अभी ज्यादा मुनि दीक्षित नहीं सर्वांगपूर्ण इतिहास तैयार होसकता है जैसा शायद ही हुए हैं तो वह नंदी १-२ वर्ष तक चल सकती है, किसी गच्छका हो । भारतीय इतिहासमें भी इन दफउस समयके अंदर कई बार भिन्न भिन्न तिथ या मह तरों का मूल्य कम नहीं है। अभी तक हमारी खोजमें में दीक्षित सभी मुनियोंका नामान्तपद एक ही रक्खा पहला दफ़तर जिसका नाम 'गुर्वावली' है, सं० १३:३ जायगा । जहाँ तक वह नंदि नहीं बदली जायगी। तकका उपलब्ध हुआ है और इसके बाद सं० १७०० से वर्तमान तकका उपलब्ध है। मध्यकालीन जिन६ यु० जिनचंद्रसूरिजीस अब तक तो खरतर - भद्रसूरिजी और यु० जिनचन्द्रसूरिजीके समयके दफ़गच्छमें एक और विशेष प्रणाली देखी जाती है कि , तर मिल जाते तो सर्वागपूर्ण इतिहास तैयार हो पट्टधर प्राचार्यका नामान्त पद जो हांगा, सर्वप्रथम - सकता था। ऐसे प्राचीन १-२ दफ़तरोंका विद्यमान वही नंदि स्थापित की जायगी जैसे-जिन चंद्रसूरि होना सुना भी गया है, प्राचीन भंडारोंमें या यति जी जब सबसे पहले मुनियों को दीक्षित करेंगे तब श्रीपूज्योंके संग्रहमें अवश्य मिलेंगें, पूरी खोज होनी इससे पूर्व भी संभव है, पर हमें निश्चित प्रमाण यहींसे चाहिये। मिला है। सं० १७००से वर्तमान तकका एक दफ़तर जयपुर Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अनेकान्त [वर्ष ४ गहीके पट्टधर श्री पूज्य धरणीन्द्रसूरिजीके पास है, . नंदि या नामान्त पद सम्बन्धी जिन जिन खरतइसी प्रकार खरतरगच्छकी अन्यान्य शास्त्राओंके दफतर रगच्छीय विशेष बातोंका ऊपर उल्लेख किया गया है, उनके श्रीपूज्यों व भंडारोंमें मिलेंगें। बीकानेर गद्दीके वे सब खरतरगच्छीय जिनभद्रसूरि-बृहत्-शाखाके श्री पूज्य जिनचारित्रसूरिजीके पासका दफ़तर हमने दृष्टिकोणसे लिखी गई हैं, संभव है खरतरकी अन्य देखा है। अन्य श्रीपूज्यों में से कइयोंने तो दफतर खो शाखाओं में परिपाटी की कुछ भिन्नता भी हो। दिये हैं, कईएक दिखलाते नहीं। इन दफ़तरोंमें दीक्षित वर्तमान . उपयुक्त परिपाटी केवल यतिसमाजमें मुनि-यतियोंकी नामावली इस प्रकार लिखी मिलती ही है और दफ़तर लेखनकी प्रणाली तो अब उनमें भी उठती जारही है । मुनियों में तो करीब १०० वर्षांसे "संवत् १७७६ वर्षे श्री बीकानेर मध्ये श्री जिनसुख- उपयुक्त प्रणालिये व्यवहृत नहीं होती। अब मुनियों सूरिभिः वल्लभनंदि कृता । पौष सुदि ५ दिन" में नामान्तपद "सागर" सर्वाधिक और मोहन मुनिजी (पूर्वावस्थानाम) (दीक्षितनाम) (गुरुनाम) । के संघाड़ेमें "मुनि" और साध्वियोंमें "श्री" नामान्त लक्ष्मीचन्द ललितवल्लभ पं० लीला पद ही रूढ़ सा होगया है । गुरुशिष्यका नाम भी एक रूपचन्द राजवल्लभ श्री राजसागर ही नामान्तपद वाला होता है। इससे कई नाम सार्थक अतः इससे हमें उन श्रीपूज्योंके आज्ञानुवर्ती एवं सुन्दर नहीं होते। मरी नम्र सम्मतिमें प्रार्चन परम्पराका फिरसे उपयोग करना चाहिये । प्रत्येक मुनि-यतिक दीक्षासंवत् , स्थान, दीक्षा देन वाले आचार्यका नाम, गुरुका नाम,पूर्वावस्था व दीक्षि- ___ ऊपर जो कुछ बातें कही गई हैं वे खरतरगच्छक तावस्थाके नामोंका पता चल सकता है । अतएव ऐसे दृष्टिकोणसे हैं। इसी प्रकार अन्य विद्वानोंको अन्य दफ़तरों को नकलें यदि इतिहासकारोंक पास हों तो गच्छोंकी नामान्तपद सम्बन्धी विशेष परिपाटियोंका उनकी बहुतसी दिक्कतें कम हो जॉय, समय एवं अनुसन्धान कर उन्हें प्रगट करना चाहिये । आशा है परिश्रमकी बचत हो सकती है, एवं बहुमूल्य इतिहास अन्यगच्छीय विद्वान इस आर शीघ्र ध्यान देगें। लिखा जासकता है। AARER RAM Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबा मनकी आँखें खोल ! [ लेखक - श्री ' भगवत्' जैन ] पथ पर चला जा रहा था—अपनी धुन में मस्त ! पता नहीं था कि मेरी कल्पनाओंके अतिरिक्त भी कोई दूसरा संसार है, जहां मैं चल रहा हूँ । बाबू ! एकै पैसा ! भूखी- श्रात्माको मिल जाय'!, सहसा होने वाले इस व्याधातने विचारोंके मार्ग में बाधा डाली! मैं चौंककर खड़ा रह गया ! देखा- कृशकाय भिखारी, मलिन- दुर्गन्धित चिथड़ों से अपने शरीरको छिपाए, हाथ फैलाए, सामने खड़ा है ! उसका शरीर अनेकों वर्णों द्वारा छिन्न-भिन्न हो रहा है, गलाव पकड़ता जारहा है ! वह मक्खियों की वेदना, घावोंकी पीड़ा और सुधाकी भयंकरता से मानों नरक-दुःख उठा रहा है ! उफ़ ! कितनी विकृत श्राकृति है यह, मैं एक क्षण के लिये देखताही रह गया ! उसके मुख पर जैसे करुणा खेल रही थी ! दो दिन हो गए बाबू जी ! क्या मजाल जो एक दानाभी मु'हमें गया हो...!, – उँगलियों के घावसे मक्खियां हटाता हुआ, वह बोला ! मनमें आया – 'एक पैसा इसे देना ही चाहिए ! बेचारा ग़रीब, अपाहिज मुसीबतमें है !' जेबमें हाथ डाला ! लेकिन........?--- लेकिन विचारोंने फिर पलटा खाया- 'श्रजी, छोड़ो न गड़े को ? यह तो दुनिया है ! लाखों हैं, ऐसे, —तुम किसकिसको पैसे देते फिरोगे ? एक पैसा ! श्रजी, वाह ! मुफ्त में यहां दो ..? जूता जो सुस्त होरहा है, आखिर पालिसभी तो करानी है ! और पैसेके दो पान, एक सिगरेट ---! फ़िज़ूल यहां पैसा ठगानेसे फ़ायदा ?” वह रोनी-सूरत बनाए ललचाई आँखोंसे देख रहा था-मेरी जेबकी ओर ! मुझे ठिठकते देख उसने अपनी तफ़सील पेशकी - 'एक पैसेके चने खाकर पानी पी लूँगा बांबूजी !' मेरा हाथ जेबमें पड़ा हुआ था ! सोचने लगा-- - 'दूँ या नहीं ? क्या सचमुच दो दिनका भूखा होगा ? अरे, भगवान का नाम लो, कहीं दो दिन कोई भूखा रह सकता है ?कल ही दफ्तरमें ज़रा दो घन्टेकी देर होगई तो दमं निकलने लगा था ! सब दम्भ है, कोरा जाल ! यह तो इन लोगोंका पेशा है--पेशा ! दिनमें भीख, रातको चोरी ! हमीं लोग तो इन्हें पैसा देकर चोर उचक्के बनाते हैं, नहीं मजाल है इतने भिखारी बढ़ते जाएँ ? हुः ह !...... 'चल, हट उधर !' "अरे !' मैं जेबसे हाथ निकालता हुआ आगे बढ़ा ! उसकी आशा जैसे मेरे साथ-साथ ही चलदी ! + + + घड़ीमें देखा तो -- ' पौने सात !' 'ओफ़ ! बड़ी देर हुई ?" लपककर बुकिंग- आफिसकी थोर गया ! + 'बाबू साहिब ! एक टिकिट दीजिएगा !' और मैंने एक अशी उनकी ओर सरकादी ! 'जनाब ! उ श्राने वाला नास तो बिल्कुल भर गया । एक टिकिट भी अब नहीं दिया जा सकता ! अठारह आने Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ चाला अभी मिल सकता है, कहिए दूँ ?" 'ऐं ! बिल्कुल भर गया ?” 'हो ! कभी का! म्यूथियेटर्सका चित्र-पट है न ? 'क्या, स्टार्ट हो गया ?" 'अभी नहीं होने ही वाला है!' " 'तो'...! लाइए, देखता ही जाऊँ !' - श्रठनी जेब में डालकर एक रुपया और एस दुधी उनकी ओर बढ़ाई ! उन्होंने रुपया तख्ते पर मारा, और बोले'मिहरवान् ! दूसरा दीजिए !' 'क्यों ? क्या खराब है साहब, यह रुपया ?" 'आप बहस क्यों करते हैं, दूसरा दे दीजिए न ?” आखिर रुपया बदलना पड़ा, खराब न होते हुए और तब मैं टिकिट लेकर भीतर जा सका ! --- अनेकान्त भी ! X X X x रातको लौटा तो ग्यारह बज रहे थे ! सिनेमा - गृहसे निकलने वाला जन-समूह समुद्रकी तरह उमड़ रहा था! उसीमें कोई गा रहाथा - 'बाबा, मनकी आँखें खोल !' गाने वाला इस प्रयत्न में था कि अभी देखे हुए खेलमै गाने वाले की तरह गाले ! मगर ? - फिर भी वह गा रहा था। और अपनी समझमें - बड़ा सुन्दर ! मैं भी गुनगुनाने लगा 'बाबा, मनकी आँखें खोल ! 'हँय! यह मनकी शायें क्या होती है-भाई ?-- [ वर्ष ४ सोचने लगा- 'क्या देखा जाता है— उनसे - क्या मन...?” 卐 'पानी'...! पानी....!! आ! पानी !!! हे भगवान् ! मेरी सुधलो...! कोई मुझे''''पा'' ''नी''''!'' मैं किंकर रुक गया ! देखा तो वही परिचित भिखारी यंत्रणाओंसे घिरा हुआ, तड़प रहा है ! मेरे हृदयने एक साथ गाया-'बाबा, मनकी श्राँखें खोल !” मैं ग्लानिको दूर हटाकर, उसके मुँह परसे कपड़ा हटाया। देखा तो चौंककर पीछे हट गया ! मन जाने कैसा होने लगा ! 'ओह ! बेचारा प्यासा ही सो गया, और 'हाय ! सदाके लिये....!'. ओठ खुले हुए थे--हाथ फैले हुए ! शायद मोन भाषा में कह रहा था -- 'एक पैसेके चने खाकर पानी पी लूँगाबाबूजी ! जी मैं श्राया—इसकी खुली हथेलियों में कुछ रख दूं ! पर, हृदयमें आन्दोलन चल रहा था— एक पैसा देकर इसकी जान न बचाई गई अठारह खाने! वहां बाहरे, मनुष्य ! उफ़ !!! रह-रह कर यह लाइन मनके भीतर उतरती चली गई. 'बाबा, मनकी आँखें खोल !' -- Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और श्रापत्काल [ सम्पादकीय ] परिशिष्ट स्वामी समन्तभद्रकी 'भस्मक' व्याधि और उसकी उपशान्ति श्रादिके समर्थन में जो ' वंद्यो भस्मकभस्मसात्कृतिपटुः' इत्यादि प्राचीन परिचय वाक्य श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं० ५४ (६७) परसे इस लेख में ऊपर ( पृ० ५२ पर) उद्धृत किया गया है उसमें यद्यपि ' शिवकोटि ' राजाका कोई नाम नहीं है; परंतु जिन घटनाओंका उसमें उल्लेख है वे ' राजावलिकथे ' श्रादिके अनुसार शिवकोटि राजा के 'शिवालय' से ही सम्बन्ध रखती हैं । ' सेनगरणकी पट्टावली' से भी इस विषयका समर्थन होता है । उसमें भी 'भीमलिंग ' शिवालय में शिवकोटि राजाके समंतभद्रद्वारा चमत्कृत और दीक्षित होने का उल्लेख मिलता है । साथ ही, उसे ' नवतिलिंग ' देशका ' महाराज सूचित किया है, जिसकी राजधानी उस समय संभवत: 'कांची ' ही होगी । यथा " (स्वस्ति) नवतिलिङ्गदेशाभिरामद्राक्षाभिगमभीमलिङ्गस्वयंन्यादिस्ताद - कोस्कीरण रुन्द्रसान्द्रचन्द्रिका विशदयशः श्री चन्द्र जिनेन्द्र सद्दर्शनममुत्पन्नकौतूहलकलिन शिवकोटिमहाराजतपोराज्यस्था पकाचार्य श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिनाम्” , 1 'स्वयं से 'कीरण' तकका पाठ कुछ श्रशुद्ध जान पड़ता है । * 'जैन सिद्धान्तभास्कर' किरण १ ली, पृ० ३८ । इसके सिवाय, 'विक्रान्तकौरव' नाटक और श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० १०५ (नया नं० २५४) से यह भी पता चलता है कि ' शिवकोटि ' समंतभद्र के प्रधानं शिष्य थे । यथा शिष्यौ तदीयौ शिवकोटिनामा शिवायनः शास्त्रविदां वरेण्यौ । कृत्स्नश्रुतं श्रीगुरुपादमूले ह्यधीतवती भवतः कृतार्थौ ॥ + - विक्रान्तकौरव तस्यैव शिष्यश्शिवकोटिसूरिः तपोलतालम्बनदेहयष्टिः । संसारवाराकरपोतमेतत् तत्त्वार्थसूत्रं तदलंचकार ॥ - श्र० शिलालेख ' विक्रान्तकौरव' के उक्त पद्य में ' शिवकोटि ' के साथ ' शिवायन' नामके एक दूसरे शिष्यका भी उल्लेख है, जिसे ' राजावलिकथे' में 'शिवकोटि ' राजाका अनुज (छोटा भाई) लिखा है और साथ ही यह प्रकट किया है कि उसने भी शिवकोटि के साथ समन्तभद्र से जिनदीक्षा ली थी ; परंतु शिलालेख + यह पद्य 'जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय' की प्रशस्ति में पाया जाता है। * यथा - शिवकोटिमहाराजं भव्यनप्पुदरि निजानुजं वेरस.. संसारशरीरभोगनिवेंगदि श्रीकंठनेम्बसुतंगे राज्यमनित्तु Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ अनेकान्त [वर्ष ४ वाले पद्यमें वह उल्लेख नहीं है और उसका कारण व्यर्थक पद्य बहुधा ग्रंथों में पाये जाते हैं । इसमें बुद्धिवृद्धि पद्यके अर्थपरसे यह जान पड़ता है कि यह पद्य के लिये जिस ' यतिपति' को नमस्कार किया गया है तत्त्वार्थसूत्रकी उस टीकाकी प्रशस्तिका पद्य है जिसे उससे एक अर्थमें ' श्रीवर्धमानस्वामी' और दूसरेमें शिवकोटि प्राचार्यने रचा था, इसी लिये इसमें 'समंतभद्रस्वामी' का अभिप्राय जान पड़ता है । तत्त्वार्थसूत्रके पहले 'एतत् ' शब्दका प्रयोग किया यतिपतिक जितने विशेषण हैं वे भी दोनोंपर ठीक गया है और यह सूचित किया गया है कि 'इस' घटित होजाते हैं। 'अकलंक-भावकी व्यवस्था करने तत्त्वार्थसूत्रको उस शिवकोटि सूरिने अलंकृत किया वाली सन्नीति (स्याद्वादनीति ) के सत्पथको संस्कारित है जिसका देह तपरूपी लताके आलम्बनके लिये यष्टि करनेवाले ' ऐसा जो विशेषण है वह समंतभद्रके बना हुआ है। जान पड़ता है यह पद्य उक्त टीका लिये भटाकलंकदेव और श्रीविद्यानंद जैसे प्राचार्योंपरसे ही शिलालेखमें उद्धत किया गया है, और इस द्वारा प्रत्युक्त विशेषणोंसे मिलता-जुलता है। इस पद्य दृष्टिसे यह पद्य बहुत प्राचीन है और इस बातका के अनन्तर ही दूसरे लक्ष्मीभृत्परमं ' नामके पद्यमें, निर्णय करनेके लिये पर्याप्त मालूम होता है कि जो समंतभद्रके संस्मरणों (अने० वर्ष २ कि० १०) 'शिवकोटि' आचार्य स्वामी समंतभद्रके शिष्य थे। में उद्धत भी किया जा चुका है, समंतभद्रके मत आश्चर्य नहीं जो ये 'शिवकोटि' कोई राजा ही हुए (शासन ) को नमस्कार किया है। मतको नमस्कार हों । देवागमकी वसुनन्दिवृत्तिमें मंगलाचरणका करनेसे पहले खास समन्तभद्रको नमस्कार किया प्रथम पद्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है - जाना ज्यादा संभवनीय तथा उचित मालूम होता है। सार्वश्रीकुलभूषणं क्षतरिपं सर्वार्थसंसाधनं इसके सिवाय, इस वृत्तिके अन्तमें जो मंगलपद्य सन्नीतेरकलंकभावविधतेः संस्कारकं मस्पथं । दिया है वह भी द्वयर्थक है और उममें साफ तौरस निष्णातंनयसागरेयतिपतिज्ञानांशुसद्भास्करं परमार्थविकल्पी — समंतभद्रदेव' को नमस्कार किया भेत्तारं वसुपालभावतमसो वन्दामहे बुद्धये॥ है और दूसरे अर्थमें वही समंतभद्रदेव ‘परमात्मा' यह पद्य द्वथर्थक के है, और इस प्रकार के द्वयर्थक का विशेषण किया गया है । यथाशिवायनं गुडिया मुनिपरल्लिये जिनदीक्षयनान्तु शिवकोट्याचार्यरागि। - समन्तभद्रदेवाय नमोस्तु परमात्मने । । इससे पहले के 'समन्तभद्रस्स चिराय जीयाद्' और 'स्या- इन सब बातोंसे यह बात और भी दृढ़ हो जाती त्कारमुद्रितसमस्तपदार्थपूर्णे' नामके दो पद्य भी उसी टीकाके है कि उक्त 'यतिपति' से समन्तभद्र खास तौर पर जान पडते हैं और वे समन्तभद्रके संस्मरणोंमें उद्धृत किये अभिप्रेत हैं। अस्तु; उक्त यतिपतिके विशेषणाम जाचुके हैं (अनेकान्त वर्ष २, किरण २,६)। + नगरताल्लुकेके ३५ वे शिलालेखमें भी 'शिवकोटि' आचार्य- भत्तारं वसुपालभावतमसः' भी एक विशे को समन्तभद्रका शिष्य लिखा है (E. C. VIII.)। षण है, जिसका अर्थ होता है 'वसुपालके भावांध*व्यर्थक भी हो सकता है, और तब यतिपतिसे तीसरे अर्थ में है, जो वसुनन्दिश्रावकाचारकी प्रशस्तिके अनुसार नयनन्दी'बसुनन्दीके गुरु नेमिचंद्रका भी प्राशय लिया जा सकता के शिष्य और श्रीनन्दीके प्रशिष्य थे। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] समंतभद्रका मुनिजीवन और भापत्काल कारको दूर करनेवाले' । 'वसुपाल' शब्द सामा य अब देखना चाहिये, इतिहाससे 'शिवकोटि तौरसे ' राजा' का वाचक है और इस लिये उक्त कहाँका राजा सिद्ध होता है। जहाँ तक मैंने भारतके विशेषणसे यह मालूम होता है कि समंतभद्रस्वामीने प्राचीन इतिहासका, जो अब तक संकलित हुआ है, भी किसी राजा के भावांधकारको दूर किया है । परिशीलन किया है वह इस विषयमें मौन मालूम बहुत संभव है कि वह राजा 'शिवकोटि' ही हो, होता है-शिवकोटि नामके राजाकी उससे कोई और वही समंतभद्रका प्रधान शिष्य हुआ हो । इसके उपलब्धि नहीं होती-बनारसके तत्कालीन राजाओं सिवाय, 'वसु' शब्दका अर्थ 'शिव' और 'पाल' का तो उससे प्रायः कुछ भी पता नहीं चलता । का अर्थ 'राजा' भी होता है और इस तरहपर इतिहासकालके प्रारम्भमें ही-ईसवी सनसे करीब 'वसुपाल' से शिवकोटि राजाका अर्थ निकाला जा ६०० वर्ष पहले-बनारस, या काशी, की छोटी सकता है; परंतु यह कल्पना बहुत ही क्लिष्ट जान रियासत ' कोशल' राज्यमें मिला ली गई थी, और पड़ती है और इस लिये मैं इस पर अधिक जोर देना प्रकट रूपमें अपनी स्वाधीनताको खो चुकी थी। नहीं चाहता। इसके बाद, ईसासे पहलेकी चौथी शताब्दीमें, अजाब्रह्म नेमिदत्त के 'आराधना-कथाकोश' में तशत्रुकं द्वारा वह 'कोशल' गज्य भी 'मगध' भी · शिवकोटि' राजाका उल्लेख है-उसीके शिवा- राज्यमें शामिल कर लिया गया था, और उस वक्तसे लयमें शिवनैवेद्यसे । भस्मक' व्याधिकी शांति और उसका एक स्वतंत्र गज्यसत्ताके तौर पर कोई उल्लेख चंद्रप्रभ जिनेंद्रकी स्तुति पढ़ते समय जिनबिम्बकी नहीं मिलता + । संभवतः यही वजह है जो इस प्रादुभूतिका उल्लेख है। साथ ही, यह भी उल्लेख है छोटीसी परतंत्र रियासतके राजाओं अथवा रईसोंका कि शिवकोटि महाराजने जिनदीक्षा धारण की थी। कोई विशेष हाल उपलब्ध नहीं होता। रही कांचीके परंतु शिवकोटिका, 'कांची' अथवा 'नवतेलंग' राजाओंकी बात, इतिहासमें सबसे पहले वहाँके राजा देशका राजा न लिखकर, वाराणसी' (काशी- 'विष्णुगोप' (विष्णुगोप वर्मा) का नाम मिलता बनारस ) का राजा प्रकट किया है, यह भेद है ।। है, जो धर्मसे वैष्णव था और जिसे ईसवी सन् ३५० - के करीब — समुद्रगुप्त' ने युद्धमें परास्त किया था। * श्रीवर्द्धमानस्वामीने राजा श्रेणिकके भावान्धकारको दूर किया । इसके बाद ईसवी सन ४३७ में 'सिंहवर्मन् ' (बौद्ध) था। ब्रह्म नेमिदत्त भट्टारक मल्लिभूषणके शिष्य और विक्रमकी + V. A. Smith's Early History of १६ वीं शताब्दीके विद्वान् थे । अापने वि० सं० १५८५ में India, III Edition, p. 30-35. विन्सेंट ए. श्रीपालचरित्र बनाकर समाप्त किया है। आराधना कथा- स्मिथ साहबकी अली हिस्टरी श्राफइंडिया, तृतीयसंस्करण. कोश भी उसी वक्तके करीबका बना हुआ है। पृ० ३०-३५। + यथा-वाराणसी ततः प्राप्तः कुलघोषः समन्विताम् । शक सं० ३८० (ई० स० ४५८) में भी 'सिंहवर्मन् योगिलिंगं तथा तत्र गृहीत्वा पर्यटन्पुरे ॥१६॥ कांचीका राजा था और यह उसके राज्यका २२ वा वर्ष स योगी लीलया तत्र शिवकोटिमहीभुजा। था, ऐसा 'लोकविभाग' नामक दिगम्बर जैनग्रन्थसे मालूम कारितं शिवदेवोरुप्रासादं संविलोक्य च ॥२०॥ होता है। ..: . Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ का, ५७५ में सिंह विष्णुका, ६०० से ६२५ तक करनेका भी अभी तक पूरा आयोजन नहीं हुआ। महेन्द्रवर्मन्का, ६२५ से ६४५ तक नरसिंहवर्मन्का, जैनियोंके ही बहुतसे संस्कृत, प्राकृत, कनड़ी, तामिल ६५५ में परमेश्वरवर्मन्का, इसके बाद नरसिंहवर्मन्- और तेलगु आदि ग्रंथोंमें इतिहासकी प्रचुर सामग्री द्वितीय (राजसिंह ) का और ७४० में नन्दिवर्मनका भरी पड़ी है जिनकी ओर अभी तक प्रायः कुछ भी नामोल्लेख मिलता है। ये सब राजा पल्लव वंशके लक्ष्य नहीं गया। इसके सिवाय, एक एक राजाके थे और इनमें 'सिंहविष्णु' से लेकर पिछले सभी कई कई नाम भी हुए हैं और उनका प्रयोग भी राजाओंका राज्यक्रम ठीक पाया जाता है + । परन्तु इच्छानुसार विभिन्न रूपसे होता रहा है, इससे यह सिंहविष्णुसे पहलेके राजाओंकी क्रमशः नामावली भी संभव है कि वर्तमान इतिहासमें 'शिवकोटि' और उनका राज्यकाल नहीं मिलता, जिसकी इस का किसी दूसरे ही नामसे उल्लेख हो * और वहाँ अवसर पर-शिवकोटिका निश्चय करने के लिये- पर यथेष्ट परिचयके न रहनेसे दोनों का समीकरण खास जरूरत थी। इसके सिवाय, विंसेंट स्मिथ साहब न हो सकता हो, और वह समीकरण विशेष अनुने, अपनी 'अर्ली हि टरी आफ इंडिया' (पृ. संधानकी अपेक्षा रखता हो। पर तु कुछ भी हो, २७५-२७६ ) में यह भी सूचित किया है कि ईसवी इतिहासकी ऐसी हालत होते हुये, बिना किसी गहरे सन् २२० या २३० और ३२० का मध्यवर्ती प्रायः अनुसंधानके यह नहीं कहा जा सकता कि 'शिवकोटि' एक शताब्दीका भारतका इतिहास बिलकुल ही अंध- नामका कोई राजा हुआ ही नहीं, और न शिवकोटि काराच्छन्न है-उसका कुछ भी पता नहीं चलता। के व्यक्तित्वसे ही इनकार किया जा सकता है । इससे स्पष्ट है कि भारतका जो प्राचीन इतिहास 'राजावलिकथे' में शिवकोटिका जिस ढंगसे उल्लेख संक लत हुआ है वह बहुत कुछ अधूरा है। उसमें पाया जाता है और पट्टावली तथा शिलालेखों आदिशिवकोटि जैसे प्राचीन राजाका यदि नाम नहीं द्वारा उसका जैसा कुछ समर्थन होता है उस परसे मिलता तो यह कुछ भी आश्चर्यकी बात नहीं है। मेरी यही राय होती है कि 'शिवकोटि' नामका यद्यपि ज्यादा पुराना इतिहास मिलता भी नहीं, परंतु अथवा उस व्यक्तित्वका कोई राजा जरूर हुआ है, जो मिलता है और मिल सकता है उसको संकलित और उसके अस्तित्वकी संभावना अधिकतर कांचीकी 1 ओर ही पाई जाती है। ब्रह्मनेमिदत्तने जो उसे वारा. *कांचीका एक पल्लवराजा 'शिवस्कंद वर्मा भी था, जिसकी ओरसे 'मायिदावोलु' का दानपत्र लिखा गया है. ऐसा णसी (काशी-बनारस ) का राजा लिखा है वह कुछ मद्रासके प्रो० ए० चक्रवर्ती 'पंचास्तिकाय' की अपनी *शिवकोटिसे मिलते जलते शिवस्कंदवर्मा (पल्लव). शिवअंग्रेजी प्रस्तावनामें सूचित करते हैं। आपकी सूचनाअोके मृगेशवर्मा (कदम्ब), शिवकुमार (कुन्दकुन्दका शिष्य), अनुसार यह राजा ईसाकी १ ली शताब्दीके करीब (विष्णु- शिवस्कंद वर्मा हारितीपत्र (कदम्ब), शिवस्कंद शातकर्णि गोपसे भी पहले) हुअा जान पड़ता है। (आन्ध्र), शिवमार (गंग), शिवश्री (आन्ध्र), और शिवदेव + देखो, विसेंट ए. स्मिथ साहबका 'भारतका प्राचीन (लिच्छिवि), इत्यादि नामोके धारक भी राजा हो गये हैं। - इतिहास' (Early History of India), संभव है कि शिवकोटिका कोई ऐसा ही नाम रहा हो, तृतीय संस्करण, पृ० ४७१ से ४७६ । अथवा इनमेंसे ही कोई शिवकोटि हो। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] समंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल १५७ ठीक प्रतीत नहीं होता । ब्रह्म नेमिदत्तकी कथा और प्रकारके सुन्दर श्रेष्ठ भोजनोंके समूहको देखकर आपभी कई बातें ऐसी हैं जो ठीक नहीं जंचती । इस ने सोचा कि यहाँ मेरी दुर्व्याधि जरूर शान्त हो कथामें लिखा है कि जायगी। इसके बाद जब पूजा हो चुकी और वह __“कांचीमें उस वक्त भस्मक व्याधिको नाश करने दिव्य आहार-ढेरका ढेर नैवेद्य-बाहर निक्षेपित के लिये समर्थ (स्निग्धादि ) भोजनोंकी सम्प्राप्तिका किया गया तब आपने एक युक्तिके द्वारा लोगों तथा अभाव था, इसलिये समन्तभद्र कांचीको छोड़कर राजाको आश्चर्यमें डालकर शिवको भोजन करानेका उत्तरकी ओर चल दिये । चलते चलते वे 'पुण्डेन्दु- काम अपने हाथमें लिया। इस पर राजाने घी, दूध, नगर में पहुंचे, वहाँ बौद्धोंकी महती दानशालाको दही और मिठाई ( इक्षुरस) आदिसे मिश्रित नाना देखकर उन्होंने बौद्ध भिक्षुकका रूप धारण किया, प्रकारका दिव्य भोजन प्रचुर परिमाणमें (पूर्णैः कुंभपरन्तु जब वहाँ भी महाव्याधिकी शान्तिके योग्य शतैर्युक्तं = भरे हुए सौ घड़ों जितना) तय्यार कराया पाहार का अभाव देखा तो आप वहाँ से निकल गये और उसे शिवभोजनके लिये योगिगजके सुपुर्द और क्षुधासे पीडित अनेक नगरोंमें घूमते हुए 'दश- किया। समंतभद्र ने वह भोजन स्वयं खाकर जब पुर' नामके नगरमें पहुंचे । इस नगर में भागवतों मंदिर के कपाट खोले और खाली बरतनोंको बाहर (वैष्णवों) का उन्नत मठ देखकर और यह देखकर उठा ले जाने के लिये कहा, तब राजादिकको बड़ा कि यहॉपर भागवन लिङ्गधारी साधुओंको भक्त जनों आश्चर्य हुआ । यही समझा गया कि योगिराजने द्वारा प्रचुर परिमाणमें सदा विशिष्ट आहार भेंट अपने योगबलसे साक्षात शिवको अवतारित करके किया जाता है, आपने बौद्ध वेषका परित्याग किया यह भोजन उन्हें ही कराया है। इससे गजाकी भक्ति और भागवत वेष धारण कर लया, परन्तु यहाँका बढ़ी और वह नित्य ही उत्तमोत्तम नैवैद्यका समूह विशिष्टाहार भी आपकी भस्मक व्याधिको शान्त तैयार करा कर भेजने लगा । इस तरह, प्रचुर करनेमें समर्थ न हो सका और इस लिये आप यहाँ परिमाणमें उत्कृष्ट आहारका सेवन करते हुए, जब से भी चल दिये । इसके बाद नानादिग्देशादिकोंमें परे छह महीने बीत गये तब आपकी व्याधि एकदम घूमते हुए श्राप अन्तको ‘वाराणसी' नगरी पहुंचे शांत होगई और आहारकी मात्रा प्राकृतिक हो जाने और वहाँ अपने योगिलिङ्ग धारण करके शिवकाटि के कारण वह सब नैवेद्य प्रायः ज्योंका त्यों बचने राजाके शिवालयमें प्रवेश किया । इस शिवालयमें लगा । इसके बाद राजाको जब यह खबर लगी कि शिवजीके भोगके लिये तय्यार किये हुए अठारह योगी स्वयं ही वह भोजन करता रहा है और 'शिव' + 'पुण्ड' नाम उत्तर बंगालका है जिसे 'पौण्ड्रवर्धन' भी को प्रणाम तक भी नहीं करता तब उसने कुपित कहते हैं । 'पुण्डे न्दु नगरसे उत्तर बंगाल के इन्दुपुर, होकर योगीसे प्रणाम न करनेका कारण पूछा। चन्द्रपुर अथवा चन्द्रनगर आदि किसी खास शहरका उत्तरमें योगिराजने यह कह दिया कि 'तुम्हारा यह अभिप्राय जान पड़ता है। छपेहुए 'अाराधनाकथाकोश' (श्लोक ११) में ऐसा ही पाठ दिया है। संभव है कि वह रागी द्वषी देव मेरे नमस्कारको सहन नहीं कर कुछ अशुद्ध हो। सकता । मेरे नमस्कारको सहन करनेके लिये वे जिन Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अनेकान्त [वर्ष ४ सूर्य ही समर्थ हैं जो अठारह दोषोंसे रहित हैं और दिकको बड़ा आश्चर्य हुआ और राजाने उसी समय केवलज्ञानरूपी सत्तेजसे लोकालोक के प्रकाशक हैं। समन्तभद्रसे पूछा-हे योगीन्द्र, आप महासामर्थ्ययदि मैंने नमस्कार किया तो तुम्हारा यह देव (शिव- वान् अव्यक्तलिंगी कौन हैं ? इसके उत्तरमें सम तभद्रलिङ्ग) विदीर्ण हो जायगा-खंड खंड हो जायगा- ने नीचे लिखे दो काव्य कहेइसीसे मैं नमस्कार नहीं करता हूं'। इस पर राजाका कांच्यां नग्राटकोऽहं कौतुक बढ़ गया और उसने नमस्कार के लिये आग्रह मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिंडः करते हुए, कहा- यदि यह देव खंड खंड हो जायगा पुण्डोएडेन शाक्यभिक्षः तो हो जाने दीजिये, मुझे तुम्हारे नमस्कार के सामर्थ्य ___ दशपुरनगरे मृष्टभोजी परिबाट । को जरूर देखना है । समंतभद्रने इसे स्वीकार किया वाराणस्यामभूवं और अगले दिन अपने सामर्थ्यको दिखलानेका वादा शशिधरधवल:* पाण्डुगंगस्तपस्वी, किया । राजाने ' एवमस्तु' कह कर उन्हें मन्दिरमें गजन् यस्यास्ति शक्तिः, रक्खा और बाहरसे चौकी पहरेका पूरा इन्तजाम कर स वदतु + पुरतो जैननिग्रंथवादी ॥ दिया। दो पहर रात बीतने पर समंतभद्रको अपने . पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भैरी मया ताडिता, वचन-निर्वाहकी चिन्ता हुई, उससे अम्बिकादेवीका पश्चा-मालवसिन्धुटक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे आसन डोल गया । वह दौड़ी हुई आई, श्राकर उस .. ने समंतभद्रको आश्वासन दिया और यह कह कर " प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं संकटं, चली गई कि तुम 'स्वयंभवाभत हितेन भातले वादाथा विचराग्यहं नरपत शालविक्रीडितं इसके बाद समन्तभद्रने कुलिंगिवेष छोड़कर जैनइस पदसे प्रारंभ करके चतुर्विंशति तीर्थकरोंकी उन्नत निग्रंथ लिंग धारण किया और संपूर्ण एकान्तवादियों स्तुति रचो, उसके प्रभावसे सब काम शीघ्र होजायगा . को कादमें जीतकर जैनशासनकी प्रभावना की। यह और यह कुलिंग टूट जायगा । समन्तभद्रको इस ___ सब देखकर राजाको जैनधर्ममें श्रद्धा होगई, वैगग्य दिव्यदर्शनसे प्रसन्नता हुई और वे निर्दिष्ट स्तुतिको हो आया और राज्य छोड़कर उसने जिनदीक्षा रचकर सुखसे स्थित हो गये । सवेरे (प्रभात समय) धारण कम्ली +" राजा आया और उसने वही नमस्कारद्वारा सामर्थ्य + संभव है कि यह 'पुण्डोड' पाठ हो, जिससे 'पुण्ड्र'दिखलानेकी बात कही। इस पर समन्तभद्र ने अपनी उत्तर बंगाल-और 'उड'-उड़ीसा-दोनोंका अभिप्राय उस महास्तुतिको पढ़ना प्रारंभ किया । जिस वक्त जान पड़ता है। 'चंद्रप्रभ' भगवानकी स्तुति करते हुए 'तमस्तमो- * कहींपर 'शशधरधवलः' भी पाठ है जिसका अर्थ चंद्रमा रेरिव रश्मिभिन्नं' यह वाक्य पढ़ा गया उसी वक्त के समान उज्वल होता है। 'प्रवदतु' भी पाठ कहीं कहीं पर पाया जाता है। वह शिवलिंग' खंड खंड होगया और उस स्थानस +ब्रह्म नेमिदत्तके कथनानुसार उनका कथाकोश भट्टारक 'चंद्रप्रभ' भगवानकी चतुर्मुखी प्रतिमा महान् प्रभाचन्द्र के उस कथाकोशके अाधारपर बना हुआ है जो जयकोलाहलके साथ प्रकट हुई । यह देखकर राजा- गद्यात्मक है और जिसको पूरी तरह देखनेका मुझे अभी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] नेमिदत्त के इस कथन में सबसे पहले यह बात कुछ जीको नहीं लगती कि ' कांची' जैसी राजधानी में अथवा और भी बड़े बड़े नगरों, शहरों तथा दूसरी राजधानियों में भस्मक व्याधिको शांत करने योग्य भोजनका उस समय अभाव रहा हो और इस लिये समंतभद्रको सुदूर दक्षिणसे सुदूर उत्तर तक हजारों मीलकी यात्रा करनी पड़ी हो । उस समय दक्षिण में ही बहुतसी ऐसी दानशालाएँ थीं जिनमें साधुओंको भरपेट भोजन मिलता था, और अगणित समंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल तक कोई अवसर नहीं मिल सका । सुहृदर पं० नाथूराम जी प्रेमीने मेरी प्रेरणासे, दोनों कथाकोशोंमें दी हुई समन्तभद्रकी कथाका परस्पर मिलान किया है और उसे प्रायः समान पाया है । आप लिखते हैं—“दोनों में कोई विशेष फर्क नहीं है । नेमिदत्तकी कथा प्रभाचन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः पूर्ण पद्यानुवाद है । पादपूर्ति श्रादिके लिये उसमें कहीं कहीं थोड़े बहुत शब्द - विशेषण अव्यय श्रादिअवश्य बढ़ा दिये गये हैं । नेमिदत्तद्वारा लिखित कथाके ११ वें श्लोक में 'पुण्ड़ ेन्दुनगरे' लिखा है, परन्तु गद्यकथा में 'पुण्डनगरे ' और ' वन्दक - लोकानां स्थाने' की जगह 'वन्दकानां बृहद्विहारे' पाठ दिया है । १२ वें पद्यके 'बौद्धलिंगकं' की जगह 'वंदकलिंगं' पाया जाता है। शायद 'वंदक' बौद्धका पर्याय शब्द हो । 'कांच्यां नम्माटकोऽहं' आदि पद्योंका पाठ ज्योंका त्यों है । उसमें 'पुण्ड्रोएड ”' की जगह 'पुण्ढोराढ' 'ठक्कविषये' की जगह 'ढक्कविषये' और 'वैदिशे' की जगह 'वैदुषे' इस तरह नाममात्रका अन्तर दीख पड़ता है।” ऐसी हालतमें, नेमिदत्तकी कथाके इस सारांशको प्रभाचन्द्रकी कथाका भी सारांश समझना चाहिये और इस पर होनेवाले विवेचनादिको उसपर भी यथासंभव लगा लेना चाहिये । 'वन्दक' बौद्धका पर्याय नाम है यह बात परमात्मप्रकाश की ब्रह्मदेवकृतीका निम्न श्रंशसे भी प्रकट है "खवणउ वंदउ सेवडउ, क्षपणको दिगम्बरोsहं, वंदको बौद्धोsहं, श्वेतपटादिलिंगधारकोहऽमितिमूढात्मा एवं म न्यत इति ।" १५६ ऐसे शिवालय थे जिनमें इसी प्रकार से शिवको भोग लगाया जाता था, और इस लिये जो घटना काशी ( बनारस ) में घटी वह वहाँ भी घट सकती थी । ऐसी हालत में, इन सब संस्थाओंसे यथेष्ट लाभ न उठा कर, सुदूर उत्तर में काशीतक भोजनके लिये भ्रमण करना कुछ समझ में नहीं आता । कथा में भी यथेष्ट भोजनके न मिलनेका कोई विशिष्ट कारण नहीं बतलाया गया - सामान्यरूपसे 'भस्मकव्याधिविनाशाहारहानित:' ऐसा सूचित किया गया है, जो पर्याप्त नहीं है। दूसरे, यह बात भी कुछ असंगत सी मालूम होती है कि ऐसे गुरु, स्निग्ध, मधुर और श्लेष्मल गरिष्ट पदार्थोंका इतने अधिक (पूर्ण शतकुंभ जितने ) परिमाण में नित्य सेवन करने पर भी भस्मकाग्निको शांत होने में छह महीने लग गये हों । जहाँ तक मैं समझता हूँ और मैंने कुछ अनुभवी वैद्योंसे भी इस विषय में परामर्श किया है, यह रोग भोजनकी इतनी अच्छी अनुकूल परिस्थिति में अधिक दिनों तक नहीं ठहर सकता, और न रोगकी ऐसी हालत में पैदलका इतना लम्बा सफ़र ही बन सकता है । इस लिये, ' राजावलिकथे' में जो पाँच दिनकी बात लिखी है वह कुछ असंगत प्रतीत नहीं होती । तीसरे, समंतभद्रकै मुखसे उनके परिचयके जो दो काव्य कहलाये गये हैं वे बिलकुल ही अप्रासंगिक जान पड़ते हैं । प्रथम तो राजाकी ओर से उस अवसर पर वैसे प्रश्नका होना ही कुछ बेढंगा मालूम देता है— वह अवसर तो राजाका उनके चरणों में पड़ जाने और क्षमा प्रार्थना करनेका था — दूसरे समंतभद्र, नमस्कार के लिये आग्रह किये जानेपर, अपना इतना परिचय दे भी चुके थे कि वे ' शिवोपासक ' नहीं हैं for ' जिनोपासक ' हैं, फिर भी यदि विशेष परि Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० चयके लिये वैसे प्रश्नका किया जाना उचित ही मान लिया जाय तो उसके उत्तर में समन्तभद्र की ओर से उनके पितृकुल और गुरुकुलका परिचय दिये जाने की, अथवा अधिक से अधिक उनकी भस्मकव्याधिको उत्पत्ति और उसकी शांति के लिये उनके उस प्रकार भ्रमणकी कथाको भी बतला देनेकी ज़रूरत थी; परंतु उक्त दोनों पद्यों में यह सब कुछ भी नहीं हैन पितृकुल अथवा गुरुकुलका कोई परिचय है और न भस्मकव्याधिकी उत्पत्ति आदिका ही उसमें कोई खास जिक्र है — दोनोंमें स्पष्टरूपसे वादकी घोषणा है; बल्कि दूसरे पद्य में तो, उन स्थानों का नाम देते हुए जहां पहले वादकी भेरी बजाई थी, अपने इस भ्रमण का उद्देश्य भी 'वाद' ही बतलाला गया है। पाठक सोचें, क्या समंतभद्रकें इस भ्रमणका उद्देश्य ' वाद ' था ? क्या एक प्रतिष्ठित व्यक्तिद्वारा विनीत भावसे परिचयका प्रश्न पूछे जाने पर दूसरे व्यक्तिका उसके उत्तर में लड़ने झगड़ने के लिये तय्यार होना अथवा वादकी घोषणा करना शिष्टता और सभ्यताका व्यवहार कहला सकता है ? और क्या समंतभद्र जैसे महान् पुरुषोंके द्वारा ऐसे उत्तरकी कल्पना की जा सकती है ? कभी नहीं। पहले पद्यके चतुर्थ चरण में यदि वाद की घोषणा न होती तो वह पद्य इस अवसर पर उत्तरका एक अंग बनाया जा सकता था; क्योंकि उसमें अनेक स्थानों पर समंतभद्र के अनेक वेष धारण करनेकी बातका उल्लेख है । परन्तु दूसरा पद्य तो यहाँ पर कोग अप्रासंगिक ही है-वह पद्य तो 'करहाटक ' नगर के राजाकी सभा में कहा हुआ पद्य है उसमें अनेकान्त [ वर्ष ४ अपने पिछले वादस्थानों का परिचय देते हुए, साफ़ लिखा भी है कि मैं अब उस करहाटक ( नगर ) को प्राप्त हुआ हूं जो बहुभटोंसे युक्त हैं, विद्याको उत्कट - स्थान है और जनाकीर्ण है। ऐसी हालत में पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि बनारस के राजाके प्रश्नके उत्तर में समंतभद्र से यह कहलाना कि अब मैं इस करहाटक नगर में आया हूं कितनी बे-सिरपैर की बात है, कितनी भारी भूल है और उससे कथामें कितनी कृत्रिमता आ जाती है। जान पड़ता है ब्रह्म ने मदत्त इन दोनों पुरातन पद्योंको किसी तरह कथा में संगृहीत करना चाहते थे और उस संग्रहकी धुन में उ हैं इन पद्योंके अर्थसम्बन्धका कुछ भी खयाल नहीं रहा । यही वजह है कि वे कथामें उनको यथेष्ट स्थान पर देने अथवा उन्हें ठीक तौर पर संकलित करने में कृतकार्य नहीं हो सके । उनका इस प्रसंग पर, 'स्फुटं काव्यद्वयं चेति योगीन्द्रः तमुवाच सः' यह लिखकर उक्त पद्योंका उद्धृत करना कथा के गौरव और उसकी अकृत्रिमताको बहुत कुछ कम कर देता है। इन पद्योंमें वादकी घोषणा होने से ही ऐसा मालूम देता है कि ब्रह्म नेमिदत्तने, राजामें जैन धर्म की श्रद्धा उत्पन्न करानेसे पहले, समंतभद्रका एकान्तवादियोंसे वाद कराया है; अन्यथा इतने बड़े चमत्कार के अवसर पर उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी । कांचीके बाद समंतभद्रका वह भ्रमण भी पहले पद्यको लक्ष्य में रखकर ही कराया गया मालूम * यह बतलाया गया है कि "कांचीमें मैं नाटक ( दिगम्बर साधु ) हुआ, वहाँ मेरा शरीर मलिसे मलिन था; लाम्बुश में पाण्डुपिण्ड रूपका धारक ( भस्म रमाए शैवसाधु ) हुआ; yosis में बौद्ध भिक्षुक हुत्रा; दशपुर नगरमें मृष्टभोंजी परिव्राजक हुआ, और वाराणसीमें शिवसमान उज्ज्वल पाण्डुर अंगका धारी मैं तपस्वी (शैवसाधु) हुना हूँ; राजन् मैं जैन नि थवादी हूँ, जिस किसीकी शक्ति मुझसे वाद करनेकी हो वह सामने ग्राकर बाद करे ।” Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] । होता है । यद्यपि उसमें भी कुछ त्रुटियाँ हैं—-वहाँ, पद्यानुसार कांचीकं बाद, लांबुशमें समंतभद्र के ' पाण्डुपिगड ' रूपसे ( शरीर में भस्म रमाए हुए ) रहने का कोई उल्लेख ही नहीं है, और न दशपुर में रहते हुए उनके मृष्टभोजी होनेकी प्रतिज्ञाका ही कोई उल्लेख है । परंतु इन्हें रहने दीजिये, सबसे बड़ी बात यह है कि उस में ऐसा कोई भी उल्लेख नहीं है जिससे यह मालूम होता हो कि समंतभद्र उस समय भम्मक व्याधि युक्त थे अथवा भोजनकी यथेष्ट प्राप्ति के लिये ही उन्होंने वे वेष धारण किये थे बहुत संभव है कि कांचीमें 'भस्मक' व्याधिकी शांति के बाद समंतभद्रन कुछ अर्से तक और भी पुनर्जिनदीक्षा धारण करना उचित न समझा हो; बल्कि लगे हाथीं शासनप्रचार के उद्देशसे, दूसरे धर्मों के आन्तरिक भेदको अच्छी तरहसे मालूम करनेके लिये उस तरह पर भ्रमण करना जरूरी अनुभव किया हो और उसी भ्रमणका उक्त पद्य में उल्लेख हो; अथवा यह भी हो सकता है कि उक्त पद्य में समंतभद्रके निथमुनिजीवन से पहले की कुछ घटनाओं का उल्लेख हो जिनका इतिहास नहीं मिलता और इस लिये जिन पर कोई विशेष राय कायम नहीं की जा सकती । पद्य में किसी क्रमिक भ्रमणका अथवा घटनाओंक *कुछ जैन विद्वानोंने इस पद्यका अर्थ देते हुए 'मलमलिन - तनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः' पदोंका कुछ भी अर्थ न देकर उसके स्थान में 'शरीरमें रोग होनेसे' ऐसा एक खंडवाक्य दिया है; जो ठीक नहीं है । इस पद्यमें एक स्थानपर 'पाण्डुपिण्डः' और दूसरे पर 'पाण्डुराग' पद श्राये हैं जो दोनों एक ही अर्थके वाचक हैं और उनसे यह स्पष्ट है कि समन्तभद्रने जो वेत्र वाराणसी में धारण किया है वही लाम्बुशमें भी धारण किया था । हर्षका विषय है कि उन लेखकों से प्रधान लेखकने मेरे लिखने पर अपनी उस भूलको स्वीकार किया है और उसे अपनी उस समयकी भूल माना है। समंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल -१६१ क्रमिक होनेका उल्लेख भी नहीं है; कहाँ कांची और कहाँ उत्तर बंगालका पुण्ड्रनगर ! पुण्ड्रसे वाराणसी निकट, वहां न जाकर उज्जैन के पास 'दशपुर ' जाना और फिर वापिस वाराणसी आना, ये बातें क्रमिक भ्रमणको सूचित नहीं करतीं । मेरी राय में पहली बात ही ज्यादा संभवनीय मालूम होती है । अस्तु; इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए, ब्रह्म नेमिदत्तकी कथा के उस अंशपर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता जो कांचीसे बनारस तक भोजनके लिये भ्रमण करने और बनारस में भस्मक व्याधिकी शांति आदिसे सम्बन्ध रखता है, खासकर ऐसी हालत में जब कि 'राजावलिकथे' माफ तौरपर कांची में ही भस्मक व्याधिकी शांति आदिका विधान करती है और सेनगणकी पट्टावली से भी उसका बहुत कुछ समर्थन होता है । जहाँ तक मैंने इन दोनों कथाओं की जाँच की है मुझे ' राजावलिकथे' में दी हुई समंतभद्रकी कथा में बहुत कुछ स्वाभाविकता मालूम होती है— मणुवकहल्लि ग्राम में तपश्चरण करते हुए भस्मक व्याधिका उत्पन्न होना, उसकी निःप्रतीकारावस्थाको देखकर समंतभद्रका गुरुसे सल्लेखना व्रतकी प्रार्थना करना, गुरुका प्रार्थनाको अस्वीकार करते हुए मुनिवेष छोड़ने और रोगोपशांति के पश्चात् पुनर्जिनदीक्षा धारण करने की प्रेरणा करना, 'भीमलिंग ' नामक शिवालयका और उसमें प्रतिदिन १२ खंडुग परिमाण तंडुलान्नके विनियोगका उल्लेख, शिवकोटि राजाको आशीर्वाद देकर उसके धर्मकृत्यों का पूछना, क्रमशः भोजनका अधिक अधिक बच्चना, उपसर्गका अनुभव होते ही उसकी निवृत्तिपर्यन्त समस्त आहार- पानादिकका त्याग कर के समन्तभद्रका पहले से ही जिनस्तुतिमें लीन होना, चंद्रप्रभकी स्तुति के बाद शेष तीर्थकरों की स्तुति Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त . [वर्ष ४ भी करते रहना, महावीर भगवानकी स्तुतिकी समाप्ति लिलालेख शक संवत् १०५० (वि० सं० ११८५) का पर चरणोंमें पड़े हुए राजा और उसके छोटे भाईको लिखा हुआ है। इससे स्पष्ट है कि चंद्रप्रभ-बिम्बके आशीर्वाद देकर उन्हें सद्धर्मका विस्तृत स्वरूप प्रकट होनेकी बात उक्त कथा परसे नहीं ली गई बतलाना, राजाके पुत्र 'श्रीकंठ' का नामोल्लेख, राजा बल्कि वह समंतभद्रकी कथासे खास तौर पर सम्बन्ध के भाई ‘शिवायन' का भी राजाके साथ दीक्षा लेना, रखती है। दूसरे, एक प्रकारकी घटनाका दो स्थानोंपर और समंतभद्रकी ओरसे भीमलिंग नामक महादेवकं होना कोई अस्वाभाविक भी नहीं है। हाँ, यह हा विषयमें एक शब्द भी अविनय या अपमानका न सकता है कि नमस्कारके लिये आग्रह श्रा दकी बात कहा जाना, ये सब बातें, जो नेमिदत्तकी उक्त कथा परसे ले ली गई हो * । क्योंकि राजाकथामें नहीं हैं, इस कथाकी स्वाभाविकताको वलिकथे श्रादिसे उसका कोई समर्थन नहीं होता, बहुत कुछ बढ़ा देती हैं । प्रत्युत इसके, नेमिदत्तकी और न समन्तभद्रके सम्बन्धमें वह कुछ युक्तयुक्त ही कथासे कृत्रिमताकी बहुत कुछ गंध आती है, जिसका प्रतीत होती है। इन्हीं सब कारणोंसे मेरा यह कहना कितना ही परिचय ऊपर दिया जा चुका है । इसके है कि ब्रह्म ने मदत्तने 'शिवकोटि' को जो वाराणसी सिवाय, राजाका नमस्कारके लिये आग्रह, समन्त- का राजा लिखा है वह कुछ ठीक प्रतीत नहीं होता; भद्रका उत्तर, और अगले दिन नमस्कार करनेका उसके अस्तित्वकी सम्भावना अधिकतर कांचीकी वादा, इत्यादि बातें भी उसकी कुछ ऐसी ही हैं जो ओर ही पाई जाती है, आ समन्तभद्रके निवासादिका जीको नहीं लगतीं और आपत्ति के योग्य जान पड़ती प्रधान प्रदेश रहा है । अस्तु । हैं । नेमिदत्त की इस कथापरसे ही कुछ विद्वानोंका शिवकोटिने ममन्तभद्रका शिष्य होनेपर क्या क्या यह खयाल होगया था कि इसमें जिनबिम्बकं प्रकट कार्य किये और कौन कौनस ग्रंथोंकी रचना की, यह सब होनेकी जो बात कही गई है वह भी शायद कृत्रिम एक जुदा ही विषय है जो खाम शिवकोटि आचार्यके ही है और वह 'प्रभावकचरित' में दी हुई 'सिद्धसेन चरित्र अथवा इप्तिहाससे सम्बन्ध रखता है, और दिवाकर' की कथासे, कुछ परिवर्तनके साथ, ले ली इस लिये मैं यहां पर उसकी कोई विशेष चर्चा करना गई जान पड़ती है-उसमें भी स्तुति पढ़ते हुए इसी उचित नहीं समझता। तरह पार्श्वनाथका बिम्ब प्रकट होने की बात लिखी है। * यदि प्रभाचन्द्रभट्टारकका गद्य कथाकोश, जिसके आधार परन्तु उनका वह खयाल गलत था और उसका पर नेमिदत्तने अपने कथाकोशकी रचना की है, 'प्रभावकनिरमन श्रवणबेल्गोलके उस मल्लिषेणप्रशस्ति नामक चरित' से पहलेका बना हुआ है तो यह भी हो सकता है शिलालेखसे भले प्रकार हो जाता है, जिसका कि उसपरसे ही प्रभावचरितमें यह बात ले ली गई हो। 'वंद्यो भस्मक' नामका प्रकृत पद्य ऊपर (वृ०५२ परन्तु साहित्यकी एकतादि कुछ विशेष प्रमाणोंके बिना दोनों ही के सम्बन्धमें यह कोई लाज़िमी बात नहीं है कि एकने पर) उद्धृत किया जा चुका है और जो उक्त प्रभावक दूसरेकी नकल ही की हो; क्योंकि एक प्रकारके विचारोंका चारतस १५९ वष पाहलेका लिखा हुआ है-प्रभावक- दो ग्रन्थकर्ताअोके हृदयमें उदय होना भी कोई असंभव चरितका निर्माणकाल वि० सं० १३३४ है और नहीं है । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] समंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल 'शिवकोटि' और 'शिवायन' के सिवाय समंतभद्र विद्याके आचार्य होना भी सूचित किया है । के और भी बहुत से शिष्य रहे होंगे, इसमें सन्देह इसीसे एडवर्ड राइस साहब भी लिखते हैं It is told of him that in early life he नहा ह परन्तु उनक नामादिका अमा तक का पता (Samantabhadra) performed severe penance, नहीं चला, और इस लिये अभी हमें इन दो प्रधान and on account of a depressing disease was शिष्यों के नामों पर ही संतोष करना होगा। about to make the vow of Sallekhana, or starvation; but was dissuaded by his guru, who foresaw that he would be a great pillar समन्तभद्रके शरीरमें 'भस्मक' व्य धिकी उत्पत्ति of the Jain faith. किस समय अथवा उनकी किस अवस्थामें हुई, यह अथोत-समन्तभद्रकी बाबत यह कहा गया है जाननेका यद्यपि कोई यथेष्ट साधन नहीं है, फिर भी कि उन्होंन अपन जीवन (मुनिजीवन) की प्रभावस्था में घोर तपश्चरण किया था, और एक अवपीडक या इतना परूर कहा जा सकता है कि वह समय, जब | अपकर्षक रोगके कारण वे सल्लेखनाव्रत धारण करने कि उनके गुरु भी मौजूद थे, उनकी युवावस्थाका ही हीको थे कि उनके गुरुने, यह देखकर कि वे जैनधर्म था । उनका बहुतसा उत्कर्ष, उनके द्वारा लोकहितका के एक बहुत बड़े स्तम्भ होने वाले हैं, उन्हें वैसा बहुत कुछ साधन, स्याद्वादतीर्थ के प्रभावका विस्तार और करनेसे रोक दिया। जैनशासनका अद्वितीय प्रचार, यह सब उसके बाद ही इस प्रकार यह स्वामी समन्तभद्रकी भस्मक व्याधि और उसकी प्रतिक्रिया एवं शान्ति आदिकी हुआ जान पड़ता है । 'राजावलिकथे' में तपके प्रभाव घटनाका परिशिष्ठरूपमें कुछ समर्थन और विवेचन है। से उन्हें 'चारणऋद्धि' की प्राप्ति होना, और उनके * 'श्रा भावि तीर्थकरन् अप्प समन्तभद्रस्वामिगलु पुनःक्षेद्वारा रत्नकरंडक' आ.द ग्रंथोंका रचा जाना भी गोण्डु तपस्सामर्थ्यदि चतुरंगुल-चारणत्वमं पडेदु रत्नकरपुनर्दीक्षाके बाद ही लिखा है । साथ ही, इसी अवसर ण्डकादिजिनागमपुराणमं पेलि स्याद्वाद-वादिनल अागि पर उनका खास तौर पर 'स्याद्बाद-वादी'-स्याद्वाद- समाधिय् अोडेदरु ।' " वह बड़ा सुखी है जिसे न तो गत कल पर बेकली है और न ागत कल पर मनचली है।" "विचार करने पर यही अनुभव होता है कि मनुष्यकी गति सुख ( भोग) की ओर नहीं, किन्तु ज्ञानकी ओर है।" ___"अपने कार्य में जाग्रत रहने और यथाशक्ति उद्यम करते रहनेसे मनुष्य सन्तोष पा सकता है।" "जो कुछ बाह्यजगतमें रहनेके लिये अत्यावश्यक है, उसीकी लपेटमें पड़े रहना मानव-जीवनका धर्म नहीं है।" " मनुष्यको अपने प्रति बज्रसे भी कठोर होना चाहिये परन्तु औरोंके प्रति नहीं।" " भूल चूक, हानि, कष्ट श्रादिके बीच होकर मनुष्य पूर्णताके मार्गमें आगे बढ़ता है।" ." उन्नतिका अर्थ यह है कि जो प्रावश्यक है, उसीका ग्रहण किया जाय और अनावश्यकका त्याग।" ___“नियमपूर्वक काम करो, परन्तु नियम विवेकपूर्वक बनायो । अन्यथा, परिणाम यह होगा कि तुम नियमके लिये बन जानोगे।" -विचारपुष्पोद्यान , Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ किन्तु पुण्य, स्वातंत्र-सौख्यका-- करता है अनुभव, आलिंगन !! पुण्य-पाप एक शब्दमें-पुण्य विजय है,-...----- ... और पाप है, घोर-पराजय -- पुण्य-पापका यह है परिचय ! ... पुण्य-पापका यह है परिचय ! पाप, सदा कॉपा करता है और पुण्य, रहता है निर्भय !! पुण्य-पापका यह है परिचय !! ___ xxx पाप, दीन-दुःखित-मलीन-सा रहता है, ले मौनालम्बन ! पुण्य, तेज-मय हँसते-हँसते-- - करता है सुख-जीवन-यापन !! किन्तु सगे भाई हैं दोनों-- ३. दोनोंका अभिन्न है श्रालय ! पुण्य-पापका यह है परिचय !! पाप, ठोकरें खाता फिरता, रोता है, होकर अपमानित ! पुण्य, दुलार-प्यारकी गोदी में पलकर होता है विकसित !! पाप, निराशाकी रजनी है. पुण्य, सफल प्राशाका अभिनय !! यह है पुण्य-पापका परिचय !! श्री भगवत्' जैन पाप, गुलामीकी कटुताका करता रहता है प्रास्वादन ! - - हल्दी घाटी माँ तपस्विनी! हल्दीघाटी! क्यों उदास हो मन में? श्रांक चुकीं क्या महा-समरका-- रक्त - चित्र जीवनमें ? भंग करो अपनी नीरवता, अनुभव कुछ बतलाओ! वीरोचित कर्तव्य सुझाकर, हमें स-शक्त बनायो !! देख चुकी हो तुम वीरोंकेउष्ण . रक्तकी धारें ! सन्मुख ही तो नहा रहीं थींशोणितसे तलवारे !! तुमने देखा है स्वदेश परअपने प्राण चढ़ाते ! जीवन - मरण - समस्याका तात्त्विक स्वरूप समझाते !! तुम्हें याद है बलिवेदी परप्राण चढ़ा प्रण पाला ! इसी शून्यमें कभी जली थीआज़ादी की ज्वाला !! तीर्थरूप हो वीर - नरोंकोजागृति - दीप संजोए ! यहां अखण्ड समाधि लगाकर, देश भक्त हैं सोए !! . श्री 'भगवत जैन Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह कब किया जाय ? ( लेखिका - श्रीललिताकुमारी पाटणी 'विदुषी, प्रभाकर ) विश वाह कब किया जाय यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका एक व्यक्ति के लिए एक-सा उत्तर नहीं हो सकता। कारण कौन व्यक्ति किस समय विवाहके उत्तरदायित्वको झेलने की सामर्थ्य रख सकता है, यह उसकी अपनी परिस्थितिके ऊपर निर्भर है। कुछ विद्वान् विवाहके बारेमें वयसम्बन्धी समस्याका समाधान करनेके लिये बी और पुरुष दोनोंकी एक उम्र निश्चित करते हैं जो उनके लिये विवाहका उपयुक्त समय कहा जाता है किन्तु उस उम्रकी अवधि भी गरम और ठण्डे जलवायु तथा सामाजिक वातावरणकी विभि स्थान व समाज भेदके अनुसार फर्क हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि जो देश शीतप्रधान हैं उनमें रहने वाले स्त्रीपुरुषों की अपेक्षा उष्ण देशोंमें रहने वाले स्त्री-पुरुषों को विवाह वय यानी युवावस्था समय से कुछ पहले ही प्राप्त हो जाती है। फिर भी समाज विज्ञानके विज्ञान वर्तमान समय में सामान्य तौरपर सीके लिये विवाह काल १४-१६ और पुरुष के लिए २०-२५ वर्षकी अवस्था मानते हैं । विवाहका यह समय निर्धारित करनेमें केवल स्वास्थ्य और शारीरिक सङ्गठनको महत्व दिया गया है। इसमें स्त्री और पुरुषोंकी वैयक्तिक परिस्थितियों और विशेष अवस्थाओंकी ओर विचार नहीं किया गया। कारण व्यक्तिगत परिस्थिति हरएक व्यक्तिकी भिन्न-भिन्न होती है और उसके अनुसार उनके लिये विवाहकी अवस्था भी भिन्न ही होना चाहिये। कहने का मतलब यह है कि १४ और २० वर्षकी अवस्था प्राप्त होनेपर स्त्री-पुरुष येन केन प्रकारेण अपना विवाह रचा ही डालें इस मतसे यह आज्ञा नहीं मिल जाती है । हमें हमारी कुछ और परिस्थितियों, योग्यताओं और श्रवस्थाओं पर भी विचार करना पड़ेगा । mw यदि हम उनकी उपेक्षा कर बैरेंगे तो कदाचित विवाहका फल भी हमें कटु ही मिलेगा, मधुर नहीं । इस लिये विवाहके लिये श्रवस्था क्रम सम्बन्धी मतसे यही अर्थ ग्रहण करना चाहिये कि १४ वर्षसे पहले स्त्रियोंको और २० वर्षसे पहले पुरुषोंको भूलकर भी विवाह क्षेत्रमें कदम नहीं उठाना चाहिये । वरना वे अपने सुन्दर भविष्य जीवनको जान-बूझकर बरबाद कर देंगे और इस अलभ्य मनुष्य पर्यायको अनायास ही खो बैठेंगे। देखना चाहिये कि विवाहके अवस्थाक्रम सम्बन्धी इस मतका हमारे समाजमें कहां तक श्रादर है ? यह तो प्रसताकी बात है कि "अष्टवर्षा भवेदगौरी नववर्षा रोहिणी" ऐसी मान्यताएँ समाजके समझदार और बुद्धिमान लोगोंकी में बहे समझी जाने लगी हैं और ऐसी मान्यताओंके विरुद्ध समाज-हित-चिन्तक लोग आन्दोलन भी खूब कर रहे हैं तथा उन आन्दोलनोंमें थोड़ी-बहुत सफलता भी मिली है उन चाग्दोलनोंके कारण ही बाल-विवाह की बढ़ती हुई बादकी ओर ब्रिटिश गवर्नमेंट का भी ध्यान आकर्षित हुश्रा और उसको रोकनेकी आवश्यकता सरकारने महसूस की। फलस्वरूप शारदा एक्ट पास किया गया और उसके अनुसार अंग्रेजी हलकों में १४ वर्षसे पहले किसी भी बालिका और १८ वर्षसे पहले किसी भी बालकका विवाह नहीं किया जा सकता। किन्तु खेद है कि उन आन्दोलनोंका देशी राज्यों और खासकर हमारे राजपूताने में अभी तक यथेष्ट फल नहीं हुआ। कारण यही है कि अभी तक इधर हमारे समाज अशिक्षा और अज्ञानका विस्तार खूब है और वह उन्हें पुरानी रूढ़ियों और कुरीतियोंके जरा भी खिलाफ जानेसे रोकता है । फलस्वरूप हर साल हजारों ही बाल-विवाहके उदाहरण हमारे प्रान्त और समाजमें दृष्टिगोचर हो रहे हैं। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ शहरों में और विशेषकर शिक्षित जातियों में तो फिर भी इनका लोगोंको बाल-विवाहसे होने वाली हानियोंको समझाने और प्रचार कम हो रहा है। किन्तु गांवों में और अशिक्षित वर्गमें उनके जमे हुए संस्कारोंको दूर करे। अभी तक बाल-विवाहका दौरदौरा ज्योंका त्यों है। उसमें मैं उन माता-पितानोंकी अक्लमन्दी और होशियारीकी अभी तक कोई कमी नहीं दिखलाई देती। कहीं-कहीं तो कितनी अधिक तारीफ़ (?) करूँ, जो अपनी अबोध बालिकाका बाल-विवाहके अत्यन्त हृदयद्रावक और आश्चर्य पैदा करने छुटपनमें ही व्याह कर आप अपनी जिम्मेवारीसे बरी हो जाते बाले दृश्य देखनेको मिलते हैं। पाठक पढ़कर हैरान होंगे कि हैं और उस गरीब कन्याको विवाहकी भयंकर उलझममें हमारे देशमें लाखों विधवायें तो ऐसी हैं जिनकी उम्र दस पटक देते हैं तथा अपने बालू रेतमें खेलने वाले सरल हृदय वर्षसे भी कम है। सैंकड़ों विधवायें ऐसी हैं जिनकी उम्र पांच पुत्रके लिये अपने घरके आंगन में स्वछन्द वृत्तिसे खेलने-कूदने वर्षसे भी कम है। कुछ जातियां और वर्ग ऐसे भी हैं जिनमें वाली बालिकाको दुनिया भरकी लाज और शर्मके रूपमें ला एक एक वर्ष और दो-दो तीन-तीन वर्षके दुधमुहे बच्चे- छोड़ते हैं तथा जल्द ही दो सुकुमार-हृदयोंके विनाशक और बच्चियोंकी शादियां ( ? ) (अफसोस ! मुझे तो ऐसी शादियों- बेढंगे प्रतिबन्धके फलस्वरूप पौत्रका मुंह देखनेकी विषभरी को शादी कहते हुए भी लज्जा मालूम होती है) करदी जाती प्राशा लगाये रहते हैं। मैं नहीं सोच सकती कि जो बालकहैं। इन्हें हम देशको व समाजको गहरे कुएमें धक्का देकर बालिकाएँ विवाहके अर्थको कतई नहीं समझते और विवाहढकेल देने वाली कुप्रथाओं के अतिरिक्त और कुछ कहनेका की जुम्मेवारीको संभालनेके लिये रंचमात्र भी सामर्थ्य नहीं साहस करेंगे तो वह हमारा दुस्साहस ही होगा। और तो रख सकते. उनके गलेमें विवाहका डरावना ढोल डालकर और हमारे समाजमें ऐसे उदाहरण भी आप देखते और उनके माता-पिता उनसे किस पूर्व जन्मकी दुश्मनी निकालते सुनते होंगे कि बाज दो माताओंके बिल्कुल नवजात शिशुओं हैं। याद रखिये. ऐसे माता-पिता दरअसल अपने मातृत्वके का गोद ही गोदमें बड़ी धूमधामके साथ विवाह हो गया कर्तव्यपर कठोर कुठाराघात करते हैं और उनको अपने इस और उसमें बड़ी शानदार बरात सजकर पाई । ऐसा मालूम कर्तव्यघातका अवश्य ही कभी न कभी जवाब देना पड़ेगा। होता था कि एक सशस्त्र सैना सौकड़ों बांके सिपाहियोंकी उनको समझ लेना चाहिये कि अपनी सन्तानको बचपन में ही संख्यामें किसी देशकी राज्यलक्ष्मीको लूटने आई हो। (शायद विवाहका घुन लगाकर वे उसका घुला-धुलाकर सर्वनाश वह दो अबोध-हृदय बालक-बालिकाओं के स्वर्णमय जीवन- करना चाहते हैं। बाल-विवाह समाजके लिये एक प्राणलक्ष्मीको लूटने चली थी) विवाहमें बड़े ठाठकी जीमणवार नाशक जहर है इसमें सोचने और तर्क करनेकी कोई गुजाहुई और जुलूसोंमें आतिशबाजीकी खूब ही धूम रही। इश नहीं है । जो इसमें भी तक करनेका दुस्साहस करे तो ऐसी अवस्थामें यह मानना ही पड़ेगा कि समाजमें समझिये वह परले दरजेका या तो हठी है या मूर्ख है। बेहद बालविवाहका दौरदौरा अभी बहुत अधिक है और उसे नष्ट अफसोस और दुःखका विषय है कि शीघ्रबोध जैसे कुछ करनेके लिये जितना अधिक प्रयत्न किया जाय थोड़ा है। प्राचीन ग्रंथोंकी शरण लेकर कुछ सामयिक विद्वान् पण्डित इन विवाहोंकी तादादको कम करने और धीरे-धीरे समूल भी बालविवाहकी हिमायत कर अपने देश व हमाजको रसानष्ट करनेके लिये ऐसी सभा-समितियोंकी बहुत अधिक तलमें पहुँचानेसे नहीं हिचकते । महज़ वे कुछ अज्ञानी और श्रावश्यकता है जो गांव-गांव और मुहरुले-मुहल्लेमें घूमकर हठी सेठ साहूकारों की झूठी खुशामदके वशमें आकर ही Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] विवाह कब किया जाय १६७ अपनी विद्वत्ताका दुरुपयोग कर बैठते हैं। प्रार्थिक बुद्र नेकनामीके ऊँचे प्रासमानकी ओर ले जायंगे ? नेकनामी और स्वार्थों के लिए समाजमें अहितकर और निन्य सिद्धान्तोंका बदनामीका सम्बन्ध विवाह कर देने या न कर देनेसे कतई प्रचार करना वास्तवमें विद्वान् पुरुषोंको शोभा नहीं देता है। नहीं है बल्कि हमारे अच्छे और बुरे पाचरणसे है। बचपनमें देशके सुधारक विद्वानोंको चाहिए कि वे बालक-बालिकाओंके ब्याहे हुए कोमल हृदय बालक-बालिकाओंसे संयम और जीवनको बरबाद करने वाले ऐसे हिद्धान्तोंका प्रचार न होने सदाचारकी प्राशा रखना सांपसे अमृत उगलनेकी भाशा दें और समाजको पतनके मार्गमें जानेसे बचावें । बालविवाह रखना है। हम फोड़ेके मवादको दबानेकी कोशिश क्यों करते समाजके लिये अहितकर नहीं है यह किसी भी युक्ति और हैं. उसको निकालनेकी चेष्टा क्यों नहीं करें ? जब तक मवाद तक से साबित नहीं हो सकता। जिन बालक-बालिकाओंके सर . | सच्चाई और सदाजीवनकी कली खिलती भी नहीं है कि वह विवाह रूपी तेज़ चारकी स्थितिके लिए हम हमारे घरोंका और समाजका शताछुरीसे काट दी जाती है। जो बुद्धिहीन लोग अनाज आया वरण शुद्ध और साफ रक्खें, सदाचारकी शिक्षाका प्रचार करें, भी नहीं, और खेतको काट लेनेकी मन्शा रखते हैं, फल पका बालक-बालिकाओंको असंयमकी कुशिक्षासे बचावे और सदाभी नहीं, और उसे दरख्तसे तोड़ लेना चाहते हैं, मंजरी चारकी ओर अग्रसर होनेका उपदेश दें। गलतियाँको विवाह पानेसे पहिले ही फूल सौरभकी अाशा रखते हैं, मकान खड़ा की प्राइमें छिपाकर रखने और बढ़ानेमें कौनसी बुद्धिमानी है ? होनेके पहले ही, उसमें रहनेका सुख-स्वप्न देखते हैं, वे ही बुद्धिमानी इसमें है कि गलती हो ही नहीं और यदि होगई अपने सच्चोंका बचपनमें ब्याहकर एक स्वर्गीय-सुख लूटना है तो भविष्यमें सचेत रहा जाय । एक गलतीको छिपानेके चाहते हैं। समझमें नहीं पाता कि जीवनकी शुरुवात होनेके लिए गलतियोंके समुद्र में क्यों कूद पड़ें? इसलिए कि आज़ाद पहले ही उनके ऊपर विवाहका भारी बोम रखकर उनके होकर गलतियोंसे अठखेलियां करते रहें? चोरी तो करें जीवनको वे क्यों नहीं फलने-फूलने देना चाहते ! क्यों वे लेकिन अन्धेरेमें करें. उजालेमें नहीं ? अफसोस! उनके दर्लभ और श्रानन्दमय विद्यार्थी जीवनको कुचल देना और फिर एककी बदनामीका फल समाजके सब स्तम्भों चाहते हैं और क्यों उन स्वछन्द विहारी मुरारिके समवयस्क को क्यों मिले ? एक बदनामीसे बचनेके लिये हज़ारों बालकबालक-बालिकाओंको विवाहकी अंधेरी कोठरीमें लोहेके मि लाहक बालिकानोंका अमूल्य जीवन क्यों बरबाद किया जाय? मिलान किवाड़ोंसे बन्द कर देना चाहते हैं, और ऐसा कर कौनसा अगर घरके किसी एक कौनेमें पागकी चिनगारी सुलग गई पौकिक सुख देखना पसन्द करते हैं। है तो उसको बढ़नेसे रोकना चाहिए न कि घरभरमें आगकी ___बहुतसे लोग कहते हैं कि जन्द विवाह न करनेके कारण लपटें लगादी लाएँ । जिन बालक-बालिकाओंका समयसे अाजकलके लड़के-लड़की बिगड़ जाते हैं और समाजमें बद- पहले ही ब्रह्मचर्य भंग हो जाता है, चाहे वह विवाहकी नामी होनेका डर रहता है इसलिये समाज और हमारे घरोंकी विडम्बनाके प्राइमें हुआ हो या विवाह के पहले हुआ हो, लाज रखनेके लिए लड़कियोंका तो विवाह दस-ग्यारह वर्षकी दुराचार ही है। भले ही उन दोनों में समाजके कानूनकी दृष्टि अवस्था तक कर ही देना चाहिए। ऐसा कहने वालोंको से एक पाप न हो और एक पाप हो किन्तु ईश्वर और न्याय विचारना चाहिए कि लड़कियोंका जल्द विवाह करके वे की दृष्टिमें वे दोनों ही एकसे पाप हैं और उसी पापके फलसे समाजको और इन चूने मिट्टीके घरोंको किस प्रशंसा और आज हमारा समाजरूपी शरीर गलित कोदकी गधिसे Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अनेकान्त [ वर्ष ४ - व्यथित और दुःखित मनुष्यकी तरह जर्जरित हो रहा है। बल-हीन सन्ताने पैदा होने लगती हैं, कारण बाल-दम्पतियों इसलिए बालक-बालिकाओंका असमयमें विवाह कर समाज- के जो सन्तानें होंगी वे निर्बल और अयोग्य ही होंगी । को बदनाम होनेसे बचानेकी भावना रखना महान् मूर्खता समाजका भविष्य उत्तम सन्ततिपर ही है। जब वही ठीक है। चाहे हम किसी भी रष्टिसे विचार करें, बाल-विवाह हर न होगी तो उसका पतन अवश्यम्भावी है और सच देखिये समय और हर हालतमें अनुचित ही है। तो वही आज कल हो रहा है। अगर हम अपने ज्ञान नेत्रको चारों ओर फैलाकर देखेंगे अतः छोटी अवस्थामें विवाह करना व्यक्ति और समाज तो मालूम होगा कि असमयमें किए गए विवाहका परिणाम दोनों ही के लिये अहितकर है और तदनुसार कमसे कम व्यक्ति और समाज दोनों ही के लिए भयंकर होता है। सर्व- १४ वर्षके पहले बालिकाओंका और २० वर्षके पहले प्रथम बालक-बालिकाओंके स्वास्थ्य और शरीरपर इसका बालकोंका विवाह भूलकर भी नहीं करना चाहिए। घातक प्रभाव होता है। शरीर बीमारियोंका घर हो जाता इस अवस्था क्रमके सिद्धान्तके उपरान्त भी हर एक है। मुख उदास और फीका दिखलाई पड़ता है। किसी भी ___ व्यक्ति यह देखे कि पाया वह विवाहकी जुम्मेवारीको संभाकामके करनेमें तबियत नहीं लमती है। चारों ओर निराशा लनेके लिये पूर्णतः समर्थ हो सकेगा या नहीं। मान लीजिये और अंधकार ही अन्धकार दिखलाई देता है। जहां यौवनकी एक पुरुष किसी संक्रामक रोगसे बीमार है तो उसे भूलकर उमंग और स्फूर्ति होनी चाहिए वहां उदासी और बालस्य भी एक बालिकाका जीवन खतरेमें नहीं डालना चाहिए । का काजा हो जाता है। सारी शक्ति निचोड़कर निकाल ली इसी तरह यदि कोई स्त्री भी ऐसी ही बीमारीमें फंसी हो तो जाती है और उसकी जगह निर्बलता और नाताकतीका उसे किसीके गृहस्थ जीवनको दुःखित नहीं करना चाहिए । साम्राज्य छाया रहता है। बेचारी बोकी हालत तो और जो स्त्री विवाह करे उसे यह मी देखना चाहिये कि गृहस्थाश्रम भी दयनीय हो जाती है। १५-१६ वर्षकी अवस्था तक तो हम के उत्तरदायित्वको झेलनेके लिये वह कहां तक समर्थ है ? उनके सामने दो-दो तीन-तीन बच्चे खेलने लगते हैं। जिस पुरुषों को यह देखना चाहिये कि वे गृहस्थीके खर्चका भार अवस्थामें उनको अपने शरीरकी भी सुध नहीं होती है. उठानेमें कहां तक समर्थ हो सकेंगे? ऐसा देखा गया है कि उसमें बच्चोंके बोझसे वे ऐसी दब जाती हैं कि फिर जन्म कर जन्म जिन लोगोंके पास अपनी आजीविकाका कुछ भी साधन नहीं र भाबी ही रहती हैं। इसके अतिरिक्त तपेदिक, प्रदर आदि है उन्होंने विवाह करके अपने और अपनी स्त्री दोनों ही का भयानक बीमारियों की शिकार हो जाती हैं। इसी तरह जिन जीवन नष्ट कर दिया है। कभी-कभी तो ऐसे असफल सपनों शादी हो जाती है उनकी शिक्षाका क्रम भंग हो दम्पतियोंके जहर खाकर मर जाने तकके समाचार सुनने में जाता है और वे उच्च शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकते। यहां पर आते हैं। विवाह कोई इतनी ज़रूरी चीज नहीं है जो अपनी कोई जी तक कि परुष-विद्यार्थी अपनी श्राजीविका चलाने योग्य शिक्षा व्यक्तिगत परिस्थितियोंके उपरान्त भी किया ही जाये। से भी बंचित कर दिये जाते हैं और छात्राएँ अपनी गृहस्थी हमारे समाजमें एक बात यह भी देखी जाती है कि को सुचारुरूपसे चलानेकी शिक्षा भी प्राप्त किए बिना रह परषोंके लिये तो फिर भी बिना ब्याहे रह जाना लोगोंकी जाती हैं। दृष्टिमें खटकता नहीं है किन्तु अविवाहित बहनें अथवा , सामाजिक दृष्टिले विचार करें तो समाजमें अयोग्य और विलम्बसे विवाह करने वाली बहनें उनकी नज़रों में बहुत Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] विवाह कब किया जाय १६६ अधिक खटकती हैं। वे जब ऐसी किसी भी बहनको देखते प्रादिनाथ पुराणको पढ़ने वाले जानते हैं कि भगवान् श्रादिहैं तो बड़ा आश्चर्य प्रकट करते हैं और उसकी बड़ी-बड़ी नाथकी सुपुत्रियोंने अविवाहित जीवन ही पसन्द किया और टीका टिप्पणियां होने लग जाती हैं। मैंने बहुत-सी बहनोंको वे विवाहके बन्धनमें नहीं फँसी । यह ठीक है कि एक लम्बे देखा है जो जन्मभर अविवाहित रह कर समाज व देशकी समयसे समाजमें लड़कियोंके अविवाहित रहनेकी चाल नहीं सेवा करना चाहती हैं, लेकिन समाजके लोग उसकी तरफ रही है, लेकिन यदि कोई बहन वर्तमान समयमें भी जन्मभर अंगुली उठाकर उसे जबरदस्ती ब्याहके अनावश्यक फन्देमें अविवाहित रहना चाहे तो समाजको इसमें कोई उज्र नहीं फांस देते हैं और जो अपने किसी उद्देश्यकी सिद्धिके लिये होना चाहिये बल्कि उसको प्रोत्साहन देकर ऐसा प्रादर्श देरसे विवाह करना चाहें. उनको जल्दी ही विवाह के बंधन जारी रखनेके लिये अन्य बहनोंके हृदयमें भी उत्साह पैदा में बांध देते हैं। और तो और ऐसी बहनोंके सम्बन्धमें नाना करना चाहिए। महिलाओंके अविवाहित रह कर श्रादर्श तरहके वाहियात शब्द कहे जाते हैं जो वास्तवमें समाज और जीवन व्यतीत करनेका कोई भी शास्त्र, स्मृति या सूत्र विरोध उसमें रहने वाले लोगोंके क्षुद्र और कुत्सित हृदयका प्रति- नहीं करता है। ऐसी हालतमें यदि महिलाएँ भी अविवाहित बिम्ब हैं। कहते हैं अविवाहित रहकर श्रादर्श जीवन व्यतीत जीवन व्यतीत करें तो कोई बेजा नहीं है। हम देखते हैं कि करना प्राचीन प्राचार्यों ने मनुष्यजीवनकी सफलता बतलाई हमारे समाजमें और देशमें कोई विरला ही युगल ऐसा होगा है तो फिर ऐसी सफलता पुरुष ही प्राप्त कर सकत ह स्त्रिया जो सचमुच विवाहका मधुर और वास्तविक फल प्राप्त करता क्यों नहीं कर सकती ? पुरुषोंके सम्बन्धमें भी यह देखनमे हो वरना हर जगह उसकी कटुताएँ ही नज़र आती हैं। पाया है कि जो पुरुष विवाहित नहीं होते हैं वे समाजकी इसका एक मात्र कारण यही है कि किसी भी युगलका विवाह नज़रोंमें कुछ हलके दर्जेके समझे जाते हैं। अगर कोई २०, होते समय इस बातको क़तई भुला दिया जाता है कि प्राया २५ वर्षका युवक किसीके साथ बातचीतके सम्पर्क में आता उसे विवाहकी आवश्यकता भी है या नहीं अथवा वह इसकी है तो उससे साधारण नाम गांव आदि पूछनेके बाद यह योग्यता भी रखता है या नहीं। ऐसी हालतमें समाजको सवाल होता है कि आपका विवाह कहां हुआ ? यदि इस चाहिये कि अविवाहित रहने अथवा विलम्बसे विवाह करने सवालका जवाब पूछने वालेको इन्कारीके रूपमें मिलता है की स्त्री-पुरुषों की स्वतन्त्र इच्छामें कोई प्रतिबन्ध न लगाए तो तत्क्षण ही विपक्षी पुरुषके हृदयमें उसके प्रति कुछ कम और उनको अनावश्यक तथा उनकी परिस्थितियोंसे मेल नहीं ज़ोर ख्यालात पैदा हो जाते हैं। यह वातावरण हमारे ही खाने वाले विवाहके सम्बन्धमें पड़नेके लिये कभी विवश न देशमें है वरना और विलायतोंमें हज़ारों ही स्त्री-पुरुष अपनी करे। और हर एक व्यक्तिको भी चाहिये कि वह स्वयं भी परिस्थितियों के अनुसार जन्मभर अविवाहित रहकर आदर्श अपने लिये विवाहकी पूर्ण आवश्यकता महसूस कर तथा जीवन व्यतीत करते हैं और हज़ारों ही स्त्री-पुरुष बड़ीसे बड़ी अपने चारों तरफ़की परिस्थितियोंका खूब अवलोकनकर विवाह अवस्थामें, जब वे अपने लिए वास्तवमें विवाहकी आवश्यकता के लिये कदम उठावे । विवाह कब किया जाय, इसका एकमहसूस करते हैं, विवाह करते हैं । यही क्यों ? पुराणों में तो आप ऐसे हज़ारों स्त्री-पुरुषोंके उदाहरण देखेंगे जिन्होंने मात्र उत्तर यही संगत होसकता है और ऐसी स्थितिमें किया जन्मभर अविवाहित रहकर आदर्श जीवन व्यतीत किया। हुआ विवाह ही मधुर और उत्तम फल प्रदान कर सकता है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मुनिसुव्रतकाव्य' के कुछ मनोहर पद्य ( लेखक - पं० सुमेरचंद्र जैन दिवाकर, न्यायतीर्थ, शास्त्री, B. A. LL.B. ) 8888333 संस्कृत साहित्योद्यानकी शोभा निराली है, उसके रमणीय पुष्पोंकी सुन्दरता, और लोकोत्तर सौरभ की छटा कभी भी कम न होकर अविनाशी-सी प्रतीत होती है । आज जो विशाल संस्कृत-साहित्य प्रकाशमें आया है, उसको देखकर विश्वके विद्वान् संस्कृत भाषाको बहुत महत्वपूर्ण समझने लगे हैं। आज अधिक मात्रा में जैन लोगों के निमित्तसे जैनेतर रचनाएँ प्रकाशित होकर पठनपाठन आलोचनकी सामग्री बनी हैं, इस कारण बहुत लोगों की यह भ्रान्त धारणा-सी बन गई है कि संस्कृत अमरकोष में जैन आचार्योंका कोई भाग नहीं है । भारतीय अनेक विद्वान वास्तविकता से परिचय रखते हुए भी अपने सम्प्रदाय के प्रति अनुचित स्नेहवश सत्यको प्रकाशमें लाने से हिचकते थे । स्वयं संस्कृत भाषा के केन्द्र काशी में कुछ वर्ष पूर्व जैन ग्रंथोंको पढ़ाने या छूने में पाप समझने वाले प्रकाण्ड ब्राह्मण पंडितों का बोलबाला था । ऐसी स्थिति और पक्षपात के वातावरण में लोग जैनाचार्योंकी सरस एवं प्रारणपूर्ण रचनाओंके आस्वादसे अब तक जगत्को वंचित रहना पड़ा। इस अन्धकार में प्रकाशकी किरण हमें पश्चिममें मिली । जर्मनी आदि के उदाराशय संस्कृतज्ञ विदेशी विद्वानोंकी कृपासे जैनसाहित्यकी भी विद्व न्मण्डलके समक्ष चर्चा होने लगी और उस ओर अध्ययन-प्रेमियोंका ध्यान जाने लगा। फिर भी अभी * अमरकोष नामका कोषग्रन्थ जैन विद्वान्‌की कृति है, इसे अनेक उदार विद्वान् मानने लगे हैं । बहुत थोड़ा जैन साहित्य लोगोंके दृष्टिगोचर हुआ है । उद्घ रचनाएँ तो अभी अप्रकाशित दशा में हैं । महाकवि वादीभसिंहके शब्दों में 'अमृत की एक घूट भी पूर्ण आनंद देती है । इसी भांति उपलब्ध और प्रकाशमें आए अल्प जैन साहित्य को देखकर भी अनेक विश्रुत विद्वान् आश्चर्य में हैं । उदारचेता डा० हर्टल तो यह लिखते हैं "Now what would Sanskrit poetry be without this large Sanskrit literature of Jains. The more I learn to know it the more my admiration rises." 'मैं अब नहीं कह सकता कि जैनियोंके इस विशाल संस्कृत-साहित्य के अभाव में संस्कृत काव्य-साहि त्यकी क्या दशा होगी। इस जैन साहित्य के विषय में मेरा जितना जितना ज्ञन बढ़ता जाता है, उतना उतना ही मेरा इस ओर प्रशंसनका भाव बढ़ता जाता है।" जैन ग्रंथरत्नों के अध्ययन करने वाले डा० हर्टल के कथनका अक्षरशः समर्थन करते हैं और करेंगे । जिन्होंने भगवज्जिन सेन, सोमदेव, हरिचंद्र, वीरनं द आदिकी अमर रचनाओं का पारायण किया है, वे तो जैन साहित्यको विश्वस हित्यका प्राण कहे विना न रहेंगे। जैन साहित्यकी एक खास बात यह भी है कि उसमें रसिकों की तृप्ति के साथ में उनके र्ज वनको उज्वल और उन्नत बनानेकी विपुल सामग्री और शिक्षा पाई जाती है । जैन रचनाओंका मनन करनेवाले विद्वान् + पीयूषं नहि निःशेषं पिबन्नेव सुखायते ।' Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] मुनिसुव्रतके कुछ मनोहर पद्य १७१ उनकी महत्ताको कभी भी नहीं भुला सकते हैं । एक मालूम पड़ती है । वीर भगवानको क्षीरसागरकी उदाहरण लीजिये : उपमा दी, वाणीको सुधाकी, सुबुद्धिको कलशियोंकी 'महावीराष्टक स्तोत्र' एक छोटीसी अष्टश्लोकमयी तथा विबुध-विद्वानोंके अधिप-स्वामी गणधर देवादि शिखरिणी छंदकी रचना है। उसे हिन्दविश्वविद्यालय को देवोन्द्रोंकी उपमा दी है । वास्तवमें छद्मस्थोंके के पूर्व उपकुलपति तथा संस्कृत विभागके अध्यक्ष सामयिशमिक ज्ञानमें छोटी कलशियोंकी कल्पना बहुत सुंदर है। प्रिंसिपल ए० बी० ध्रव एम० ए० सुनकर बहुत आनं कवि प्रसिद्ध जैनाचार्यों के नामोल्लेग्वके साथ दित हुए और उन्होंने अपने भाषणमें जैनसाहित्य अपना मंगलात्मक भाव कैसा बढ़िया निकालते हैं की खूब ही महिमा बताई। उस देखिए____ आज बहुत सी रचनाएँ प्रकाशमें आगई हैं, उन महाकलकाद् गुणभद्रसूरेः का अध्ययन करनेवालों को रस स्वादनके साथ स.थ समंतभद्रादपि पूज्यपादात् । वचोऽकलकं गुणभद्रमस्तु यथार्थ शांति ल भका सौभाग्य मिलेगा। समन्तभद्रं मम पूज्यपादम् ॥ १०॥ ___ यहां हम तेरहवीं सदीक कविकुलचूड़ामणि 'यह रचना अकलंकदेवके प्रसादसे अकलंक, अर्हद्दास महाकविके मुनिसुव्रतन थ भगवानके गुणभद्राचार्यकी कृपासे गुण-भद्र गुणोंसे रमणीय) (जो २० वें तीर्थकर हैं ) चरित्रको वर्णन करनेवाले स्वामी समंतभद्र के प्रसादसे समन्त भद्र (सब ओरसे 'मुनिव्रतकाव्य' की कुछ मार्मिक पदावलियोंका दिग्द- मंगलरूप) एवं पूज्यपाद स्वामीकी दयासे पूज्य पाद र्शन कराएँगे। इस दससर्गात्मक ग्रंथमें कुल ३८८ (सत्पुरुषों के द्वारा उपादेय ) होवे ।' पद्य हैं, किन्तु वे सब भाव, रस और चमत्कारसे कविवर सरस्वती को वंदनीय समझते हैं और परिपूर्ण हैं। वे इस बात के विरुद्ध हैं कि वाग्देवीका जगह जगह अपने ग्रंथ-निर्माणका कार्य मंगलमय हो, इस वानरीके समान नर्तन कराया जाय । वे चाहते हैं कि शुभ भावनासे कविवर कितना मनोहर पद्य कहते हैं- वाणीके द्वारा जिनेन्द्र गुणगान करना उचित और वीरादिवः क्षीरनिधे प्रवृत्ता श्रेयस्कर है । तुच्छ पुरुषोंका गुण-गान करना भारती सुधेव वाणी सुधिया कलश्या । ___ का अपमान करना है । देखिये वे क्या कहते हैंविधृत्य नीता विबुधाधिपैर्मे सरस्वतीकल्पलतां स को वा संवर्धयिष्यन् जिनपारिजातम् । निषेविता नित्यसुखाय भूयात् ॥ १-६॥ विमुच्य कांजीरतरूपमेषु व्यारोपयेव्याकृतनायकेषु ॥१०॥ क्षीरसागररूप महावीर भगवानसे निकली हुई -'ऐसा कौन विज्ञ व्यक्ति होगा, जो सरस्वतीसुबुद्धिरूपी कलशियों-द्वारा गणधरादिरूप देवेन्द्रों रूप कल्प-लतिकाको वृद्धिंगत करनेके लिए जिनेन्द्ररूप द्वारा सेवित अमृतरूपी जिनेन्द्रवाणी मेरे अविनाशी कल्पवृक्षको छोड़कर विषवृक्षके समान अधमजनोंका अवलंबन करायगा? आनंदकी उत्पादिका होवे । वास्तविक बात यह है कि वीतरागका वर्णन ___ यहां क्षीरसमुद्रसे कलशों द्वारा देव-देवेन्द्रों द्वारा करनेसे पाप की वृद्धि होती है। पुण्यहीन प्राणियोंका लाए गए जलमें जिनवाणीकी कल्पना बड़ी भली कीर्तन करनेसे पापकी प्रकर्षतावश ज्ञानमें मंदता होगी, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ अनेकान्त [वर्ष ४ ऐसी स्थिति में 'सरस्वती-कल्पलता' सूख जायगी। नीम कटु और इक्षु मधुर रहते हैं उसी प्रकार सत्पुरुष ____ अर्हदास महाकवि कहते हैं कि हमारी रचनाका और दुर्जन भी हैं। इनकी निन्दा तथा स्तुतिसे मेरा ध्येय अन्य जनोंका अनुरंजन करना नहीं है; उनको कोई भी विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। आनंद प्राप्त हो, यह बात जुदी है । सन्मानकी कविका भाव यह है कि सत्पुरुष अपने स्वभावके आकांक्षा भी इसका लक्ष्य नहीं है, यहां ध्येय अपने अनुसार कृपा करेंगे और दुर्जन अपनी विलक्षण अंतःकरणको आनंदित करना है । कविके शब्दोंमें ही प्रकृतिवश दोष निकालनेस मुख नहीं मोड़ेंगे। जैसे उनका भाव सुनिये कोई नीमकी निंदा या स्तुति करो, उसका कटु स्वभाव मनः परं क्रीडयितु ममैतत्काव्यं करिष्ये खलु बाल एषः। सदा रहेगा ही। न लाभपूजादिरतः परेषां, न लालनेच्छाः कलभा रमन्ते ॥१४॥ भगवान मुनिसुव्रतनाथके जन्मसे पुनीत होने -'अल्पबुद्धिधारी मैं लाभ-पूजादिकी आकांक्षा वाले राजगृह नगरके उन्नत प्रासादोंका वर्णन करते हुए से इस काव्यको नहीं बनाता हूँ किन्तु अपने अंतः अपह्नति अलंकारका कितना सुन्दर उदाहरण पेश करणको आनंदित करनेके लिए ही मैं यह कार्य करते हैं, यह सहृदय लोग जान सकते हैं। करता हूँ । गज-शिशु अपने आपको आनं.दत करनेके उनका कथन हैलिए क्रीड़ा करते हैं, दूसरोंको प्रसन्न करनेकी भ वना नैतानि ताराणि नभः सरस्याः से नहीं।' सूनानि तान्यादधते सुकेश्यः । ___यहाँ 'न लालनेच्छाः कलभा रमन्ते' की उक्ति बड़ी यदुच्चसौधाग्रजुषो मृषा चेत् । प्रगे प्रगे कुत्र निलीनमेभिः ॥ ४ ॥ ही मनोहारिणी है। 'ये ताराएँ नहीं हैं किन्तु आकाश रूपी सरोवरके नम्रतावश महाकवि कहते हैं, यद्यपि मेरी कृति पुष्प हैं, जिन्हें वहांके उच्च महलोंके अग्रभागमें पुराण-पारीण पुरातन कवि-सम्राटोंके समान नहीं है; स्थित स्त्रियां धारण करती हैं। यदि ऐसा न हो तो फिर भी यह हास्यपात्र नहीं है * । कारण, महत्वहीन क्यों प्रत्येक प्रभातमें वे विलीन होजाते हैं ?' शुक्तिके गर्भसे भी बहुमूल्य मुक्ताफलका लाभ होता है। ___ कविका भाव यह है कि आकाशके तारा आकाश जैन काव्योंकी विशेष परिपाटीके अनुसार सज्जन रूपी सरोक्रके पुष्प हैं । गजगृहीकी रमणियां अपने दुर्जनका स्मरण करते हुए कविवर उपेक्षापूर्ण भाव केशोंको सुसज्जित करने के लिये उन्हें तोड़ लिया धारण करते हुए लिखते हैं करती हैं, इसीसे प्रत्येक प्रभातमें उनका अभाव देखा तिक्तोस्ति निम्बो मधुरोस्ति चेतुः स्वं निंदतोपि स्तुवतोपि तहत । जाता है। दुष्टोप्यदुष्टोपि ततोऽनयोर्मे ___ताराओंका रात्रिमें दर्शन होना और प्रभातमें लोप __ निन्दास्तवाभ्यामधिकं न साध्यम् ॥१॥ होना एक प्राकृतिक घटना है, किन्तु कविने अपनी 'जिस प्रकार अपने प्रशंसक और निंदकके लिए कल्पना द्वारा इसमें नवीन जीवन पैदा कर दिया। * काव्यं करोत्येष किल प्रबन्धं पौरस्त्यवन्नेति हसन्तु सन्तः। दूसरे सर्गमें भगवानके पिता महाराज सुमित्रका किं शुक्तयोऽद्यापि महापराये मुक्ताफलं नो सुवते विमुग्धाः१५ वर्णन करते हुए बताया है कि वे सज्जनोंका प्रतिपा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] मुनिसुव्रतकाव्यके कुछ मनोहर पद्य १७३ लन करते थे, किंतु दुर्जनोंका निग्रह करनेमें भी तत्पर वर्णन आता है, इसी बातको कवि अपनी कल्पनाके थे। इससे प्रतीत होता है कि जैन नरेशोंकी नीतिमें द्वारा किस तरह सजाता हैदुर्जनों की पूजाका स्थान नहीं है । उन्हें तो दण्डनीय पुष्पाः पतंतो नभसः सुधांशोरेणस्य सिंहध्वनिजातभीतः । बताया है, जिससे इतर प्रजाको कष्ट न होवे- पदप्रहारैः पततामुडूनां शंकां तदा विद्वतो वितेनुः ॥४-३७॥ अथाभवत्तस्य पुरस्य राजा सुमित्र इत्यन्वितनामधेयः। आकाशसे गिरते हुए पुष्प ऐसी शंका उत्पन्न क्रियार्थयोः क्षेपण-पालनार्थद्वयात् असत्सत् विषयात्सुपूर्वात्॥२.१ करते थे मानो सिंहध्वनिसे भीत होकर भागते हुए चंद्र भगवान मुनिसुव्रत जब म ता पद्मावतीके गर्भमे मृगके चरणप्रहारसे गिरते हुए नक्षत्रोंकी राशि ही हो। पधारे तबकी शोभाका वर्णन करते हुए कवि भ्रान्तिमान अलंकारके उदाहरणद्वारा जो हास्यलिखते हैं रसकी सामग्री उपस्थित की गई है, वह काव्य मर्मज्ञों सा गर्भिणी सिंहकिशोरगर्भा गुहेव मेरोरमृतांशुगर्भा। के लिए श्रानंदजनक हैवेलेव सिंधोः स्मृतिरत्नगर्भा रेजे तरां हेमकरंडिकेव ॥४-२॥ मुग्धाप्सराः कापि चकार सर्वानुत्फुल्लवक्त्रान्किल धूपचूर्णम् । _ 'गर्भावस्थापन्न महारानी पद्मावती इस प्रकार रथाप्रवासिन्यरुणे क्षिपंति हसंतिकांगारचयस्य बुध्या ॥५-३१ शोभायमान होती थी जैसे सिंहके बच्चे को धारण करने 'रथाग्रभागमें स्थित अरुण नामक सूर्यसारथि वाली गुहा, चंद्रमाको अपने गर्भ धारण करनेवाली को अंगारका पुंज समझ एक भोली अप्सराने उसपर समुद्रकी वेला अथवा चिंतामणि रत्नको धारण करने धूपका चूर्ण फेंक दिया; इससे सबका चेहरा हंसीसे वाली सुवर्णकी मंजूषा शोभायमान होती है। खिल उठा।' ___ भगवानके जन्मसमय सुगंधित जलवृष्टिसे पृथ्वी ऐसे भ्रमपर किसे हंसी नहीं आएगी, जिसमें की धलि शांत हो गई थी, इस विषय में बड़ी संदर व्यक्तिको अग्नि पिंड समझकर उसपर कोई धूप इस कल्पना की गई है- . लिए क्षेपण करे कि उसकी समझके अनुसार उससे रजांसि धर्मामृतवर्षणेन जिनांषुवाहः शमयिष्यतीति । धूम्रराशि उदित होने लगेगी ? न्यवेदयनम्बुधरा नितांत रजोहरैगंधजलाभिवः ॥४-३०॥ भगवानके जन्माभिषेकके निमित्त जल लानेको 'जिनभगवानरूपी मेघ धर्मामृतकी वर्षा द्वारा देवता लोग क्षीरसागर पहुँचे, उस समयके पापभ वनाओंको शांत करेंगे, इसी बात को सूचित सागरका कितना सुंदर वर्णन किया गया है करने के लिए ही मानो मेघोंने सुगन्धितजलकी वृष्टिसे यह कविजन देखें। यह तो कविसमय-प्रसिद्ध बात है धूलिराशिको शांत कर दिया था। ------ कि देवता समुद्रका मंथन कर लक्ष्मी आदि रत्न - यह स्प्रेक्षा ऐसी सुंदर है कि आगामी यह अक्ष निकाल कर लेगए थे; उसी कल्पनाको ध्यानमें रखकर स्शः सत्य होती है; अतः कल्पनाका रूप धारण करने कवि वर्णन करता है निपीड्य लक्ष्मीमपहृत्य चक्रिरे ठकाः स्वक जीवनमात्रशेषक। वाली यह भविष्यवाणीके रूपमें प्रतीत होती है। अपीदमायांत्यपहमित्यगादपांनिधिर्वेपथुमूर्मिभिर्न तु ॥६-१४॥ भगवोनके जन्मसमय देवोंद्वारा श्रानंदाभि- अरे पहले इन ठग देवताओंने हमें पीडित कर व्यक्तिके रूपमें आकाशसे पुष्पोंकी वृष्टिका ग्रंथोंमें हमसे लक्ष्मी छीन लो और हमारे पास केवल जीवन Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ अनेकान्त (जल) भर बाकी रहा; आज ये उसे भी अपहरण करने को गए हैं इसीलिए भय से क्षीरसागर कंपित हो उठा, न कि तरंगों से कंपित हुआ । भगवान के अभिषेक जलको लोग बड़े आदर के साथ ग्रहण करतेहैं, वहां भगवान मुनिसुव्रतनाथका मेरुपर महाभिषेक हुआ, 'उसके सुगंधित गंधोदक में देवताओंने खूब स्नान किया ।' इंद्र भगवानका जातकर्म किया, पश्चात् नाम करण संस्कार किया, यहां नामकी अन्वर्थता बड़े सुंदर शब्दों में बताई गई है— करिष्यते मुनिमखिल' च सुत्रतं, भविष्यति स्वयमपि सुव्रतो मुनिः । विवेचनादिति विभुरभ्यधाय्यसौ, विडौजसा किल मुनिसुव्रताक्षरैः ॥६-४३॥ स्वयं समीचीन व्रत संपन्न मुनि ( सुव्रत - मुनि) हो कर संपूर्ण मुनियोंको व्रतसंपन्न ( मुनि सुव्रत ) करेंगे यह सोचकर इंद्रने मुनिसुव्रत शब्दों में उनका नाम - करण किया । शास्त्रोंमें वर्णन है कि भगवान के अंगुष्ठ में इंद्र महाराजने मृत लिप्त कर दिया था, अतएव उसके द्वारा अपनी अभिलाषा शांत होनेपर उन्होंने माताके दुग्धपानमें अपनी बुद्धि नहीं की । इस प्रसंग में कवि कहता हैजिनार्भ कस्येन्द्रिय-तृप्तिहेतुः करे बभूवामृतमित्यचित्रम् । चित्रं पुनः स्वार्थसुखैकहेतुः तच्चामृतं तस्य करे यदासीत् ॥ ७-३।। जिन - शिशुकी इंद्रिय-तृप्ति के लिए हेतुभूत अमृत हाथमें था, यह आश्वर्यकी बात नहीं है; आश्चर्य तो इसमें है कि उनके हाथमें अपने सुखका एक मात्र कारण अमृत-मोक्ष भी था । कोई यह सोचता होगा कि निसर्गज अवधिज्ञान समन्वित होने के कारण बाल्यकाल में भगवानमें बाल सुलभ क्रीड़ाओंका अभाव होगा, ऐसी कल्पनाका [ वर्ष ४ निराकरण करते हुए महाकवि कहते हैंस जानुचारी मणिमेदिनीषु स्वपाणिभिः स्वप्रतिबिम्बितानि । पुरः प्रधावत्सुरसूनुबुध्या प्रताडयन्नाटयति स्म बाल्यं ॥७-७ 'मणिकी भूमिपर अपने घुटनोंके बलपर चलते हुए जिनेन्द्र शिशु अपने प्रतिबिम्बोंको दौड़ते हुए देवशिशु समझकर ताड़ित करते हुए बाल्यभवका अभिनय करते थे । वह दृश्य कितना आनंदप्रद नहीं होता होगा, जब त्रिज्ञानधारी भगवान की ऐसी बालसुलभ क्रीड़ाश्रोंका दर्शन होता था । उस शैशवका यह वर्णन भी कितना मनोहर है— शनैः समुत्थाय गृहांगणेषु सुरांगनादत्तकरः कुमारः । पदानि कुर्वन्किल पंचषाणि पपात तद्वीक्षणदीन चतुः ॥७-८॥ 'धीरेसे उठकर देवबालाओं की करांगुलि पकड़ वह कुमार गृहांगण में पांच, छह डग चलकर देवांगना के रूपदर्शन से खिन्नदृष्टि हो गिर पड़े ।' जन्मसे अतुल बलसे भूषित जिनेन्द्रकुमार की उपर्युक्त स्थिति वास्तवमें इस बातकी द्योतक है कि बाल्य अवस्थावश होने वाली बातोंके अपवादरूप भगवान नहीं थे । जिनेन्द्र भगवान मुनिसुव्रतने जब साम्राज्यपद ग्रहण किया, तब उनके दर्शनों को आने वाले नरेशों का महान समुदाय हो जाता था। इसी बात को कहाकवि बताते हैं भक्तु ं जिनेन्द्रं व्रजतां नृपाणां चमूपदोद्ध तपरागपाल्या । विहाय चेतांसि पलायमान कपोतलेश्याकृतिरन्वकारि ॥७-२६ 'जिनेन्द्रकी आराधना करनेके लिए जानेवाले नरेशोंकी सेना के पदाघात से उड़ती हुई धूलिराशि ऐसी मालूम पड़ती थी, मानों अंतः करण छोड़ कर जाती हुई कपोत लेश्या ही हो ।' भगवान मुनिसुव्रत राज्य में किसे कष्ट हो सकता है, ? सचेतन वस्तुकी अनुकूलताकी बाततो क्या, श्रचे Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] मुनिसुव्रतकाव्यके कुछ मनोहर पद्य १७५ तन पदार्थ तक जहां अनुकूल वृत्ति धारण करते थे। इस प्रसंगपर एक शंका यह उत्पन्न होती है, कि इस विषयमें देखिए कवि श्री अहहास जी क्या आहारके अनंतर भगवान मुनिसुव्रतनाथने कैसे कहते हैं मधुरवाणीस यथायोग्य पार्शर्वाद दिया ? क्यों कि जिनेऽवनी रक्षति सागरान्तां नय-प्रताप-द्वय-दीर्घ-नेत्रे। यह प्रसिद्ध है कि दीक्षा लेनेके अनंतर जिनेन्द्र 'वाचं कस्यापि नासीदपमृत्युरीतिः पीड़ा च नाल्पापि बभूव लोके ॥२८-७ यम.' होते हैं, इसीसे उनका स्तवन 'महामौनी' _ 'नय और प्रताप रूप दो विशाल नेत्रधारी जिनेन्द्र शब्दसे किया जाता है। जो हो यह विषय ध्यान देने के द्वारा सागरपर्धन्त विस्तृत पृथ्वीके शासन करनेपर योग्य है अवश्य । यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य जगत्में किसीका न तो अकाल मरण होता था, न है कि भगवान तपोवनमें 'गजेन्द्रगति' से गए । आज ईति (अतिवृष्टियादिका उपद्रव) और न किसीको थोड़ा कोई लोग साधुओंके गमनमें मंदगतिके स्थान में सा कष्ट ही होने पाता था। उनकी द्रुतगति (Quick March ) को उचित वास्तवमें सशोसनके लिए यदि नीति और बताते हैं, उन्हें इस प्रकरणको ध्यानमें लाना चाहिये । प्रतापका सामंजस्य है, तब सर्वत्र शांति एवं समृद्धि प्रसंगवश वर्षाका वर्णन करते हुए महाकवि विचरण करती हुई नज़र आयगी। मनोहर कल्पनाको इन शब्दोंमें बताते हैं नीरंध्रमभ्रपटलं पिहिताखिलद्य . बहुत समय तक नीतिपूर्ण शासन करनेके अनंतर भेजेतरां विधृतदीर्घतरां बुधारम् । एक बार एक गजराजको धर्मधारणमें तत्पर देखकर देव्याः क्षितरुपरि लंबितदीर्घमुक्ताभगवानके चित्तमें वैराग्यकी ज्योति जाग उठी। उस मालं विशालमिव धातृकृतं वितानम् ॥ १.१६॥ समय उन्होंने अपने माता-पिताको समझाकर अपने संपर्ण आकाशको ढांकने वाला निविड़ मेघमंडल, विजय नामक पुत्रके कंधेपर साम्राज्यका भार रखकर जिससे मोटी २ जलकी धारा निकल रही थी, ऐसा दीक्षा ली ('प्राज्यं नियोज्य तनये विजये स्वराज्य')। शोभायमान हो रहा था, मानो पृथ्वीदेवीके ऊपर दीक्षा लेनेके बाद भगवानने राजगृहके नरेश विधाताने विशाल चंदोवा तान दिया हो, जिसमें महाराज वृषभसेनके यहाँ आहार ग्रहण किया, उस लम्बी और बड़ी मुक्तामालाएँ टॅगी हुई हैं। प्रसंगमें महाकवि वर्णन करते हुए कहते हैं- कैसी विलक्षण कल्पना है ! आकाशको ढाँकने मुनिपरिवृढो निर्वत्यैवं तनुस्थितिमुत्तमा, वाले मेघमंडलको तो चंदोवा बनाया, और मोटी मृदुमधुरया वाचा शास्यं विधाय यथोचितं ।... धारवाली जलराशिको मुक्ताकी मालिकाएँ ! . मुनिसमुदयैरक्षिवातैश्च पौरनृणामनुव्रजितचरमः इसी वर्षाके विषय में आगे कवि कहता हैपुण्यारण्यं गजेन्द्रगतिययौ ॥८-२३॥ रेजुः प्रसृत्य जलधिं परितोप्यशेष मुनीन्द्रने उत्तम आहारको ग्रहण करके सुमधुर मेघा मुहुमुहुरभिप्रसृताभ्रभागाः । वाणीसे आशीर्वाद देकर मुनिसमुदाय एवं पुरवा आदानवर्षणमिषात् पयसां पयोधि सियोंके नेत्र समूह के द्वारा अनुगत गजेन्द्रके समान व्योमापि मान्त इव संशयिताशयेन ॥ १-१७ ॥ मंद गतिसे तपोवनमें प्रवेश किया। 'बार बार जल लानेके लिए जलधिकी भोर Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष । विस्तृत रूपसे गए हुए और वर्षणके बहानेसे पुनः इत्थं सुदुःसहतुषारतुषावपातैः पुनः संपूर्ण दिशाओंको व्याप्त करते हुए मेघ ऐस निर्दग्धनीरजकुले समयेऽपि तस्मिन् । मालूम होते थे, मानो शंकाकुल हो बार बार आकाश म्लानानि नैव कमलानि महानुभावो यस्याः स्थितः स भगवान् सरितः प्रतीरे ॥६-३४ और समुद्रको नापते थे' । मेघोंका समुद्रसे जल लाना और आकाशमें फैलकर वर्षा करना साधारण जगत्के इस प्रकार असह्य हिमके पतनसे नष्ट हुए कमलों से युक्त उस शीत कालमें जिस सरोवरके तटपर भगवान् लिए कोई भी चमत्कृतिपूर्ण बात नहीं मालूम पड़ती; किन्तु महाकवि अपनी अलौकिक दृष्टिमें मेघके द्वारा विराजमान थे वहां के कमल म्लान नहीं हुए थे । इससे समुद्र एवं भाकाशकी विशालताको नापता है, और यह भगवानकी लोकोत्तर तपश्चर्याका भाव विदित होता है। ____ जब भगवानकी अनुपम एवं निश्चल तपश्चर्या देखता है, इस नापमें बड़ा कौन और छोटा कौन है ? हो रही थी, तब उनके तेज एवं तपश्चर्याके प्रतापसे हिमऋतुके विषयमें कवि महोदय क्या ही अनूठी तपोवनके संपूर्ण वृक्ष पुष्प-फलादिसे सुशोभित होगए कल्पना करते हैं थे। इस विषयमें कविकल्पना करते हैं, कि अपनी सत्यं तुबारपटतैः शमिनो न रुद्धाः सिद्धः पुनः परिचयाय हिमतु लक्ष्म्या। शाखारूपी हाथों में पुष्प-फलादि प्रहणकर वृक्ष भगछन्ना दुकूलवसनैर्नु पटीरपंक - वानकी पूजा ही करते थे, ऐसा प्रतीत होता है के । र्लिप्ता नु मौक्तिकगुणैर्यदि भूषिता नु ॥ १-३३ ॥ जब भगवानको कैवल्यकी प्राप्ति हुई, तब उनकी 'यह बात ठीक है कि खङ्गासनसे विराजमान धर्मोपदेश देने की दिव्य सभा-समवशरणकी रचना मुनिगण हिमपटलसे आवृत नहीं हैं किन्तु कहीं हुई, उसके विषयमें कविवर कहते हैं :- . मोक्षलक्ष्मीसे परिचय प्राप्तिके निमित्त महीन वस्त्रोंसे __ स्त्रीबालवृद्धनिवहोपि सुखं सभां ताम् आच्छादित तो नहीं हैं ? अथवा कहीं श्रीचंदनसे अंतमुहूर्तसमयांतरतः प्रयाति । लिप्तदेह तो नहीं है ? अथवा मुक्तामालाओंके द्वारा निर्याति च प्रभुमहात्मतयाश्रितानां भूषत तो नहीं है ? निद्रा-मृति-प्रसव-शोक-रुजादयो न ॥ १०-४५ ___ यहाँ क व हिमाच्छादित मुनियोंके देहको मुक्ति- उस समवशरणमें स्त्री, बालक, वृद्धजनोंका समुलक्ष्मीसे सम्मेलनके लिए महीनवस्त्रसे आच्छादित दाय सानंद अंतर्मुहूर्तमें श्राता जाता था। जिनेन्द्रदेव या श्रीचंदनसे लिप्तपनेकी या मुक्ताओंसे सुशोभित- के माहात्म्यवश आश्रित व्यक्तियोंको निद्रा, मृत्यु, पनेकी कल्पना करते हैं। हिमऋतुमें शरीरका हिमसे प्रसव, शोक, रागादि नहीं होते थे आच्छादित होना बहिर्दृष्टि प्राणियोंकी अपेक्षा भीषण ग्रंथकारने यह भी बतलाया है कि तत्वोपदेशके है, किन्तु ब्रह्मदृष्टिवाले तपस्वियोंकी दृष्टिमें वह आनंद अनन्तर भगवानके विहारकी जब वेला आई तब एवं पवित्र भावोंको प्रोत्साहन प्रदान करनेवाली - *श्रीमन्तमेनमखिलाचिंतमात्मधाम सामग्री है। प्राप्तं स्वयं सपदि तद्वनभूजषण्डम् । ऐसी भीषण सर्दी में भी भगवान मुनिसुव्रत शाखाकरेषु धृतपुष्पफलप्रतानम् तपश्चर्यास विमुख नहीं थे श्रासीदिवार्चयितुमुद्यतमादरेण || १०-१ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] मुनिसुव्रतकाव्यके कुछ मनोहर पद्य १७७ पहलेसे ही इस बातको ज नकर इन्द्रके आदेशसे जिस जिस प्रदेशमें भगवानका विहार हुआ वहाँ प्रयाणसूचक भेरी नाद हुआ। इस सम्बन्धमें वे वहाँके जीवोंका चिरकालीन विरोध दूर हो गया, कहते हैं और उनमें मैत्री उत्पन्न हो गई। जिनेन्द्रकी सेवाके समवशरणमग्रे भव्यपुण्यैश्चचाल प्रसादसे लोग संपत्तिशाली होगए। छहों ऋतुओंने स्फुट-कनक-सरोजश्रेणिना लोकवंद्यः । आकर वहां आवास किया।' सुरपतिरपि सर्वान् जैनसेवानुरक्तान् कलितकनकदंडो योजयन् स्वस्वकृत्ये॥ १०-१०॥ इस प्रकार इस ग्रंथमें श्री अहंहासके महाकविल 'भव्य जीवोंके पुण्यस समवशरण नामकी धर्म- एवं चमत्कारिणी प्रतिभाके पद पदपर उदाहरण सभा आक.श मार्गसे चली । विकसित रत्नवाले विद्यमान हैं। केवल महाकविकी कृतिका कुछ रसाकमलोंके ऊपर त्रिभुवनवंदित मुनिसुव्रतनाथ चले। स्वाद हो जाय, इस उद्देश्यसे कुछ महत्वपूर्ण पद्य कनकदंडधारी इन्द्र भी जिनेन्द्रकी सेवामें अनुरक्त सभी प्रकाशमें लाए गए हैं। लोगोंको अपने अपने कार्य में लगाते हुए चले ।' साहित्य मर्मज्ञोंकी जिज्ञासाको जागृत करनामात्र ___ भगवान मुनिसुव्रतके योगजधर्मका प्रभाव कवि हमारा उद्देश्य था, अतः विशेष रसपानके लिए वे इस प्रकार बताता है। पूर्ण ग्रंथ * का अवगाहन करें। गलितचिरविरोधाः प्राप्तवंतश्च मैत्री मिथ इव जिनसेवालंपटासंपदिद्धाः *इस ग्रंथका मूल सुंदर संस्कृत टीका सहित एवं साधारण षडपि च ऋतवस्ते तत्रतत्रान्वगच्छन् हिन्दी टीका समन्वित जैनसिद्धान्त भवन अारासे २) में व्यवहरदयमीशो यत्र यत्रैव देशे ॥१०-५॥ प्राप्त हो सकता है। “यदि अधिककी प्राप्ति चाहते हो तो जो कुछ तुम्हारे पास है उसका उत्तमोत्तम उपयोग करो।" "प्रगति बाहरसे नहीं आती, अन्दरसे ही उत्पन्न होती है।" "अपनी बुराई सुनकर भड़क उठना उन्नतिमें बाधक है ।" "उन्नति एक ओर झुकनेमें नहीं, चारों ओर फैलने में होती है।" "हमारी प्रगतिमें बाधक होनेवाली सबसे बड़ी वस्तु है-असहिष्णुता।" "बिना श्रात्मविश्वासके सदज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती।" -विचारपुष्पोद्यान Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैतानकी गुफामें साधु (अनु०-डाक्टर भैयालाल जैन, साहित्यरत्न ) .. [ इस लेखके पात्र स्थूलभद्र पूर्वावस्थामें वेश्या-सेवी थे, पश्चात् एक महान् योगी होगये थे । उत्तरावस्थामें गुरु उन्हें वेश्यागृहमें ही चतुर्मास व्यतीत करनेकी अनुमति देते हैं और उससे अमूल्य तत्वज्ञान ( Philosophy ) प्रगट करते हैं ।] संभूतिविजय-भद्र ! निदान तुमने कौनसे हृदयका खटका, कोई खटका नहीं है, किन्तु वह किसी स्थानमें यह चतुर्मास व्यतीत करना निश्चित किया भव्य जीवके अपूर्व अदृष्ट विशेषके प्रकम्पकी प्रतिहै ? अन्य सब साधुओंमे अपने अपने स्थानका ध्वनि है । तान ! तुम्हें कौनसा खटका है ? निश्चय कर लिया है और वे हमारी सम्मतिकी कसौटी स्थूल-प्रभो ! जितना आप समझते हैं उतना पर चढ़कर सुनिश्चित भी हो चुके हैं। कल प्रातःकाल निःस्वार्थी मैं नहीं हूँ और मुझे जा खटकता है. वह हम सबको यहांसे प्रस्थान करना है। स्वार्थका काँटा ही है। जिस ओर हृदयका खिंचाव स्थूलभद्र-दयासागर ! मैं भी बहुत समयसे इसी होता है क्या वहाँ स्वार्थकी दुर्गन्ध होना सम्भव चिन्तामें हूँ; परन्तु मेरे हृदयका जिस दिशाकी ओर नहीं है ? झुकाव है, वहां निवास करनेमें मुझे एक भारी खटका संभूति०-भद्र ! स्वार्थ तथा पगर्थकी प्राकृत प्रतीत होता है और उस कांटेको हृदयसे निकाल व्याख्यारूपी तुम्हारी प्रात्माकी यह भूमिका अब बाहर करने के प्रयत्नमें मैं सर्वदा निष्फल होता हूं। बदल डालना उचित है। ये पुरानी वस्तुएँ अब फैंक ठक रीतिसे कुछ भी निश्चित नहीं कर सकता। दो । चित्तके जिस अंशमेंसे स्वार्थ उत्पन्न होता है संभूतिः -तात ! तुम अपने विशुद्ध हृदयमें एक उसीमेंसे परार्थ भी होता है। दोनों एक ही घरके भी आत्मप्रतिबन्धक भाव होने की शंका मत करो। मैं निवासी हैं। तुम्हारा आत्मनिदान बहुत सम्हालपूर्वक करता आ - स्थूल०-जो बातें पहिले आपके मुग्वसे कभी रहा हूँ। तुम्हारे हृदयमें कटीले वृक्षोंका उगना बहुत श्रवण नहीं की, वे आज सुनकर जान पड़ता है कि समयसे बन्द हो चुका है। वहाँ अब कल्पवृक्षोंका सर्वदाकी अपेक्षा आज आप कुछ विपरीत ही वह रमणीय उपवन शोभा दे रहा है। तिसपर भी यदि रहे हैं । स्वार्थ तथा परार्थ चित्तकं एक ही भागसे तुम्हारे हृदय को किसी प्रकारकी शंकाका अनुभव हो जन्मते हैं, यह बात तो आज नवीन ही मालूम हुई । रहा हो तो उससे किसी महाभाग्य आत्माके अपूर्व संभूति०-अधिक रके बदलावके कारण, वस्तुकी हितका संकेत ही संभवित होता है। अत्मत्यागी व्याख्यामें भी फेरफार होता जाता है। आत्माके जिस Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] शैतानकी गुफामें साधु १७६ अधिकारमें स्वार्थ तथा पगर्थको परस्पर में शत्रुके तो अब क्षय हो चुकी है, परन्तु किसी समय जो समान गिनना चाहिए, वह अधिकारतो तुम कभीक मुझे इन्द्रियजन्य आनन्द देती थी तथा विषय सुखकी पार कर चुके हो। अब दोनों ही तुम्हारे लिए अर्थ- परिसीमाका अनुभव कराती थी, उसी अज्ञान बालाहीन हैं। वे अब तुम्हाग स्पर्श तक नहीं कर सकते। को, उसके प्रेमका बदला देने के लिए, मैं उत्सुक हूँ। __ स्थूल०-यह द्वन्द कहाँ तक सम्भव है ? यह बात सही है कि मैं वहां याचना करनेको नहीं संभूरि-जहां तक आत्मा याचना करता रहता किन्तु अर्पण व रनेको जाता हूँ, तथापि वह अपेण है, वहाँ तक । ज्योंही य चना करना बन्द हुआ- पूर्वकी स्थूल प्रीतिक उत्तर रूप होनेस, वहाँ भी मुझे सबके लिए देता ही रहे, अपने लिए कुछ न रखे- स्वार्थकी ही दुर्गन्ध आती है। संसार कोशाके समान जिसे जो चाहिए उसके पाससे ले-और दान करनेक स्त्रियोंसे भरा पड़ा है, उन सबपर अनुग्रह करनेके अभिमानको त्यागकर, देता ही जाय, त्योंही स्वार्थ लिए यह चित्त आकर्षित न होकर, केवल कोशा ही तथा परार्थकी बालकों-नादानों के लिए बाँधी गई की ओर खिंचता है, क्या इससे मेरे श्रात्मत्यागकी मर्यादाएँ टूट जाती हैं और आत्म त्यागके अनन्त अल्प मर्यादा सूचित नहीं होती ? आकाशमें आत्मा रमण करने लगता है । भद्र ! तुम संभूति०-भद्र ! वीर्यवान् आत्माएँ, जिस स्थान भी उसी प्रदेशके विहारी हो । पर, एक बार पराजित हो जाती हैं, विषयके पङ्कमें स्थूल०-नाथ ! हृदयका खिंचाव स्वार्थ बिना धंस जाती हैं, उसी स्थलपर वे विजय प्राप्त करनेके किस प्रकार सम्भव है ? यही बात मुझे खटकती है। लिए, आकांक्षायुक्त होती हैं और जहाँ तक वे याचना जिस प्रकार उस आकर्षणको मैं रोक नहीं सकता, की प्रत्येक अभिलाषाका पराभव करने योग्य पराक्रम उसी प्रकार वहाँ जानेमें भी कल्याणका कोई निमित्त प्राप्त करके, याचनाके, भारीस भारी खिंचावके स्थानदेखने में नहीं आता। पुगने शत्रु मुझे पुकारते हुए पर भी, अर्पण करनेके लिए तत्पर न हो जायँ तहाँ मालूम पड़ते हैं। तक वे आत्माएँ निर्बल तथा सत्वहीन गिनने योग्य ___ संभूति–तात ! तुम्हारी सब बातें मैं समझ हैं। कोशाके यहाँ चतुर्मास करनेके तुम्हारे खिंचावपर गया; परन्तु तुम्हारा मन वहां कुछ याचना करनेको स्वार्थकी संज्ञा घटित नहीं होती । तुम्हारी आत्मा तो जाता ही नहीं है, जाता है तो केवल अर्पण करने याचनाके उत्कृष्ट आकर्षणके स्थलपर, अर्पण करनेको को । क्या ऐसा तुम्हें प्रतीत नहीं होता?__ कसौटीपर कसे जानेके लिए उद्यत हुई है, इसी स्थूल०-प्रभो ! जिस समय मैं नवीन रुधिरका लिए उसे यह तलमलाहट हो रही है। तुम्हें अब शिकारी था, बालाओंके यौवन-ग्सको तरसता था, किसी प्रकारका भय खाना उचित नहीं है। याचना और विषयके घंटको प्रेमामृत जानकर पीता था, उस करनेका तुम्हारा स्वभाव अब एक पुराना इतिहास समय मुझपर स्थूल परन्तु अचलरूपसे जो आसक्त हो चुका है। थी, उसी कोशाके घरमें, यह चतुर्मास व्यतीत करनेको स्थूल-पर क्या साधुओंको वेश्या-गृहमें चतुमेरा मन चाहता है। पुराने समयकी सौन्दर्यलिप्सा सि करना उचित है ? Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० अनेकान्त [वर्ष ४ संभूति०-जो साधु याचनाका पात्र है, उसे वैराग्यसे श्रृंगार, गतिका क्रम एकाएक कभी नहीं उसके खिंचावसे भागते फिरनेकी आवश्यकता है होता । एक स्थितिसे दूसरी स्थितिमें गमन करनेका और इसी कारण तुम्हारे सहयोगी साधुओंको ऐसे नियम क्रमिक (Evolutionary) होता है । एकास्थानमें भेजा है, जहाँ उस प्रकारके खिंचावका लेश- एक और तुरन्त कुछ भी नहीं बनता। यदि बन भी मात्र भी सम्भव न हो। परन्तु जिसे देना ही है और जाय तो वह क्षणिक और अस्थायी होता है । त्याग लेना कुछ भी नहीं है-अपने लिए कुछ भी नहीं किये हुए विषयकी शक्ति अनूकूल नियमके प्रसङ्गपर रखना है-उस तो याचनाके खिंचाव वाले प्रदेशमें, सहस्रगुणे अधिक बलसे सताती है, और अन्तमें विजय प्राप्त करके, जगतपर त्यागका सिक्का जमानेकी आत्माको मूलस्थितिमें घसीट ले जाती है। किसी आवश्यकता है। तात ! तुम सरीखोंके पास तो जो भी विषयके प्रति अनासक्तिका उद्भव उसकी अतिकुछ है, उसे बस्ती में खुले हाथों बाँटते फिरनेकी तृप्तिमेंसे नहीं होता; तृप्तिमात्र तो उस विषयका पोषण ज़रूरत है । संसारको तुम्हारे समान व्यक्तियों से बहुत ही करती है । भद्र ! तू भंगारमें पला हुआ है । एक कुछ सीखना और प्राप्त करना है। जब आत्मा पूर्ण समय तू श्रृंगारका कीड़ा था और एक ही क्षणमें रूपसे भर जाता है, उसे कुछ इच्छा नहीं रहती, तूने श्रृंगारमेंसे वैराग्यमें प्रवेश किया था, यह धक्का तब उसका आत्म-भण्डार अमूल्य रत्नोंसे उछलने प्रकृति कैसे सहन कर सकती है ? पृथ्वीपर तो धीरे लगता है। और इन रत्नोंको संसार खुले हाथों लूटता ही चलनेमें कल्याण है; शीघ्र चलनेसे फिसल पड़ते है-जिसको जितना चाहिए, वह उतना ले-उसके हैं, और छलांग मारनेसे तो पैर ही टूट जाते हैं। लिए उसको जगतके आकर्षणके केन्द्रमें शिखरपर तूने तो पैर ही तोड़-बैठनेके समान साहस किया था, खड़े रहनेकी आवश्यकता है। कुछ आत्माएँ बलिष्ठ परन्तु तेरा पुरुषार्थ तथा पूर्वकर्म अद्वितीय था, इसी होनेपर भी याचना वाले स्थानपर ठहर सकनेके लिए से तू बच गया। तुम्हारे स्थानमें यदि कोई दूसरा नितान्त अनुपयुक्त होती हैं। उन्हींके लिए शास्त्रकारों सामान्य मनुष्य होता तो वह फिरसे पूर्व विषयके ने याचनाके स्थानसे अलग जाकर, गुफाओंमें अमलकी ओर कभीका खिंच जाता। परन्तु तुम कल्याण-साधन करनेकी आवश्यकता बतलाई है। कितने ही पुरुषार्थी और सवीर्य हो तो भी अन्तमें उन विधानोंका निर्माण तुम्हारे सरीखे वीर्यवान् प्रकृति तुमसे छोटेसे छोटा भी बदला लिए बिना न पुरुषोंके लिए नहीं हुआ है। छोड़ेगी। जब तक तुम कोशाका दर्शन न करोगे, स्थूल०--प्रभो ! परन्तु मैं समझता हूं कि मात्र अपने पूर्वके विलास-स्थलकी और दृष्टि न फेरोगे, दृष्टान्त ही खड़ा करनेके लिए साधुओंके आचारकी तब तक तुम्हारे आत्माको शान्ति न मिलेगी; क्योंकि शिष्ट प्रणालीका लोप करना उचित नहीं है। अभी इन संस्कारोंको तुम बिलकुल कुचलकर नहीं संभूति०-- तात ! अपना पूर्वका इतिहास स्मरण आये हो। विगग उत्पन्न होनेके पश्चात्, वहाँ अल्पकरो । प्रकृति किसी भी आकस्मिक झटकेको, सहन काल रहकर-प्रबल निमित्तोंकी कसौटीपर चढ़ ही नहीं कर सकती। शृगारमेंसे वैराग्यमें, तथा कर-और पिछले संकारोंको कुचलकर, यदि तुम Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] शैतानकी गुफामें साधु १८१ यहाँ श्राये होते तो यह खिंचाव कदापि न होता। अपना हित साधन भले ही कर सके, परन्तु उनके परंतु तुम तो एकदम भाग निकले थे। तुम्हारा वर्तमान अज्ञान बन्धुओंको तो उनके चरित्रसे किञ्चिन्मात्र आत्मप्रभाव तो तुमने इस आश्रममें ही पाकर प्राप्त ही लाभ पहुंच सकता है। जगत उनके चारित्रको किया है। अतएव काशाकी आरके खिंचावका निवृत देखनेके लिए वनमें नहीं जाता और जो कंदाचित् होना असम्भव है । परन्तु पूर्वके स्नेह-स्थानोंके वे ही जगत्में आवें तो उनके संसारी बन जानेका खिंचावमें भी श्रात्मत्याग पूर्वक योग देनेका अवसर भय रहता है अर्थात् संसारपर उनका उपकार केवल कोई विरले ही भाग्यशाली पुरुषों को प्राप्त होता है। परोक्ष और अल्प होता है। परन्तु जो व्यक्ति जगतके साधुके शिष्टाचारके ध्वंस हो जानेका भय न करके, मध्यमें रहते हुए, संसारी नहीं बनते तथा जगतसे तुम तुरन्त उस ओर विहार करनेका प्रबन्ध करो। कुछ न मांगकर उल्टा उसीको अपने पासकी उत्तमसे ___ स्थूल०-परन्तु यदि मैं अधिक पुरुषार्थको उत्तम सामग्री अर्पण कर देते हैं, वेही संसारका स्फुरित करके, साधुके शिष्टाचारमें जकड़े रहनेका वास्तविक कल्याण कर सकते हैं। जिसने आत्मप्रयत्न करूँ तो उसमें क्या अयोग्य होगा ? त्यागके महान यज्ञमें अपनी वासनाओंको होम दिया ___ संभूति --भद्र ! मेरा कथिताशय तुम अभी तक है, संसार उसका जितना भी आभार माने, सब थोड़ा नहीं समझ हो । शिष्टाचारमें जकड़े रहनेकी आवश्य. है। सांसारिक प्रभावका चहुँओरसे आकर्षित करता कता तभी तक है, जब तक कि आत्मा अर्पण करनेको हुआ दबाव जिनकी स्थितिकी दृढ़ता को धक्का नहीं तैयार नहीं है । जो अर्पण-त्याग करनेकी जगह उल्टे पहुँचा सकता, काजलकी कोठरीमें रहते हुए भी जिनलूटनेको तैयार हो जाते हैं; जो गंगामें पाप धोनेको की सफेदीपर दाग नहीं लग सकता, वे ही लोग जाकर, वहां मछली मारनेको बैठ जाते हैं, ऐसे लोगों- जगतके स्वागत और सम्मानके पात्र होते हैं। तात ! के लिए ही आचार-पद्धतिका विधान है। जो उस तुमने जो कार्य हाथमें लिया है, उसे तुम्हारा हृदयस्थितिको पार कर गये हैं, उन्हें तो संसारके जोखिम बल पूर्णताके शिखरपर पहुँचानेके योग्य है । निःशंक वाले स्थानपर जाकर, अपने बन्धुओंको आत्मत्यागका हो, अपने पूर्व स्नेहियोंसे जल्दी जाकर मिलो। दर्शन कगना है। अन्य साधुओंको जो उन स्थानोंपर स्थूल-प्रभो ! एक नवीन ही प्रकाश आज मेरी जानकी मनाईकी गई है, उसमें यही हेतु है कि उनमें आत्मा में प्रवेश कर रहा है। आपके वचनामृतसे याचनाकी पात्रता छुपी हुई है, वे अनुकूल प्रसंग अभी भी तृप्ति नहीं हो रही है अभी और वचनामृत आनेपर, भिखारी बनकर हाथ बढ़ाते हैं और मौका की वृष्टि कीजिए। पाकर लूटनेमें भी नहीं चूकते। जो लोग याचनाके संभूति-सिंहकी गुफामें जाकर उसका पराजय आकर्षणयुक्त स्थानमें याचना न करके उल्टा अर्पण करना अद्वितीय आत्माओंसे ही बन सकता है और करते हैं, वे जंगल तथा उपवनयुक्त प्रदेशोंमें विचरने तात ! तेरा निर्माण भी उसी विशेषताको सफलता तथा विहार करनेवाले याचकों से कई गुणा बढ़कर प्रदान करनेके हेतु हुश्रा है । जगतको ऐसे अद्वितीय है । वनमें विहार करने वाले याचक साधु कदाचित् व्यक्तिओंकी अत्यन्त आवश्यकता है। जिस समय Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अनेकान्त [वर्ष ४ संसारके मुंहसे धर्म तकका नाम निकलना बन्द हो इस बहुमूल्य प्राप्तिसे इस आश्रमके कोशको भर दो । जायगा, उस समय भी तेरे अपवादरूप चरित्रका स्थल-परन्तु प्रभो, यदि मैं पराजित होजाऊँ लोग हर्षसे गायन करेंगे । भद्र ! इससे अधिक प्रकाश तो आप मेरी सहायता करनेको तत्पर रहिए । में मैं तुम्हें नहीं पहुंचा सकता; अधिक प्रकाश तो तुम्हें कोशाह के गृहमें प्राप्त होगा । वहाँसे प्रकाश - संभूति--तात ! मैं सर्वदा ही तुम्हारे साथ हूं। लाकर, गुरुके आश्रमको उज्ज्वल करना। वन और पराजयका भय त्याग दो, भय ही आधी पराजय है। गुफाओं में शैतान पर विजय प्राप्त करनेसे जो फल जहाँ तक याचकता है, वहाँ तक ही भय है । मिलता है, उसकी अपेक्षा शैतानके घरमें जाकर ही स्थूल-तो नाथ ! अब मैं आज्ञा मांगता हूँ उस पर विजय प्राप्त करनेसे अधिक बहुमूल्य सम्पत्ति और एक बार फिर प्रार्थना करता हूँ कि यदि गिरूँ हाथ लगती है। वहाँ शैतान अपने गुप्त भंडार विजेता तो उठानेकी कृपा करेंगे । के समक्ष खोल देता है । उसमेंसे विजेता चाहे जितना * स्वर्गीय श्ची० वाडीलाल मोतीलाल जी शाह द्वारा सम्पादित ले सकता है और संसारको भी दे सकता है। तात! गुजराती "जैन हितेच्छु" से अनुवादित । संयमीका दिन और रात (लेखक-श्री विद्यार्थी') " या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि,सा निशा पश्यतोमुनेः ॥” सब प्राणियोंकी रात है उसमें संयमी शुद्ध चैतम्यस्वरूप तथा शरीरसे बिल्कुल पृथक है, जो शरीरके - मनुष्य जागता है-वह उसका दिन है- संसर्गसे-पुद्गल परमाणुओंके समावेशसे-अपने असली रूपसे और जिसमें प्राणी जागते हैं-जो संसारी हटकर प्रकट होता है। वस्तुत: आत्मामें सदैव । प्राणियोंका दिन है वह उस द्रष्टा मुनि उसके स्वाभाविक गुण-अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त -~~x की रात है-इस वाक्यमें अनेकान्तियों वीर्य श्रादि-विद्यमान रहते हैं, जो कार्मिक वर्गणाअोंके __ को तो कोई आश्चर्यकी बातही नहीं; आच्छादनसे पूर्णरूपमें दृष्टिगोचर नहीं होते । परन्तु वे कभी क्योंकि उनके लिये तो यह केवल दृष्टिकोणका भेद है, जिस आत्मासे पृथक् नहीं होते और न हो ही सकते हैं । जिस से दिनको रात्रि तथा रात्रिको दिन भी समझा जा सकता है। प्रकार सूर्य सदैव तेजोमय है किन्तु जलद-पटल के कारण किन्तु यह वाक्य तो एकान्तवादियोंके एक प्रतिष्ठित एवं विकृत रूपमें दिखाई देता है। जैसे जैसे घनावरण हटता प्रमाणित ग्रन्थका उद्धरण है जिसमें रात्रिका दिवस तथा जाता है वैसे ही वैसे उसकी प्राकृतिक प्रभा भी प्रादुर्भूत दिवसकी रात्रि की गई है । अस्तु, इसका समाधान भी वही होती जाती है, उसी प्रकार जैसे ही जैसे कार्मिक वर्गणाओं है-केवल अपेक्षावाद ! का श्रावरण, जो आत्माको श्राच्छादित किये हुए है, हटता - इसके लिखनेकी आवश्यकता नहीं कि श्रात्मा नितान्त जाता है वैसे ही वैसे अात्मा अपने शुद्ध स्वाभाविक स्वरूप Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] संयमीका दिन और रात १८३ सत . में विकसित होता चला जाता है। इस दृष्टिसे सभी आत्माएँ पूर्णरूपेण विकसित होते हुए देखनेकी श्रोर है। बराबर हैं-कोई किसीसे बड़ी छोटी अथवा ऊँची नीची इस कारण वे या तो किसी निर्जन वनमें, जहां कि नहीं है। किन्तु हम देखते हैं कि एक उद्भट विद्वान् है तो दिनरातमें कोई अन्तर नहीं, चले जाते हैं और या अपना दूसरा निरक्षर भट्टाचार्य, एक सर्वमान्य है तो दूसरा सर्वतो- कार्य अधिक उपयोग लगाकर उस समय करते हैं जबकि बहिष्कृत, एक अत्यन्त सुखी है तो दूसरा नितान्त दुःखी संसार अपने कोलाहलसे स्तब्ध हो जाता है और संसारी आदि, जिससे यह धारणा होती है कि सब आत्माएँ समान प्राणी दिनभर अथक परिश्रम करके सो जाते हैं । इस प्रकार नहीं हैं वरन् भिन्न भिन्न हैं अथवा ऊँचे-नीचे भिन्न भिन्न उन संयमी पुरुषोंका कार्य उस समय प्रारम्भ होता है जब स्थलों पर स्थित हैं। यदि वास्तवमें देखा जाय तो यह कि सब लोग निद्रा देवीकी गोद में चले जाते हैं और उस विषमता केवल उसी घनरूपी कर्मावरणके स्थूल तथा सूक्ष्म समय तक सुचारु रूपसे सम्पन्न होता है जब तक कि संसारी होने पर निर्भर है, जिस समय यह श्रावरण बिल्कुल हट जीव पुनः अपने कार्य में प्रविष्ट नहीं होते। जावेगा उस समय सूर्यरूपी अात्मा अपने स्वाभाविक शुद्ध यह तो हा संयमी पुरुषोंका दिन–जबकि वे अपना रूपमें देदीप्यमान होगा और इस बाह्य विषमताका कही कार्य करते हैं। अब प्रश्न यह रह जाता है कि जो हम सब पता तक नहीं लगेगा। का दिन है वह उनके लिए रात कैसे ? इसका उत्तर यह है लेकिन हमारी आत्माओं पर आवरण इतना अधिक कि जिस प्रकार रात्रिमें हम पर्यङ्क पर लेटे लेटे, विना हाथ स्थूल तथा कठोर है कि उसने उनकी तनिक भी श्राभाका पैर हिलाए, नाना प्रकारके कार्य कर लेते हैं, कोसों दूर हो अवलोकन हमको नहीं होने दिया है। इसका परिणाम यह आते हैं, विना पेट भरे अनेक प्रकारके भोजन पा लेते हैं. हुआ कि हम इस शरीरको ही सब कुछ मानने लगे और विना दूसरेसे अपनी बात कहे हुए अथवा उसकी सुने हुए दिनरात इसकी ही परिचर्या एवं चाकरीमें संलग्न रहने लगे वार्तालाप कर लेते हैं, विना किसीको दिये हुए अथवा है । प्रातःकालसे लेकर सन्ध्या पर्यन्त हम इसी उधेड़-बुनमें किसीसे लिये हुए बहुत-सी वस्तुएँ दे ले लेते हैं, इत्यादि लगे रहते हैं कि इस शरीरका पालन कैसे करें। इसके परे अनेक कार्य कर लेते हैं और अांख खुलनेपर वह कुछ नहीं अावरणसे आच्छादित जो असली वस्तु हे उसका कुछ भी रहता--बहधा बहुत विचार करने पर भी उस सबका कोई ध्यान नहीं-उसके निमित्त एक क्षण भी नहीं ! वैसे अनंत स्मरण नहीं होता, ठीक उसी प्रकार उक्त परिणति वाले सुखकी प्राप्तिके लिए वांछनीय तो यह है कि हम अहोरात्र मुनि लोग दिनमें जो खाना पीना, उठना बैठना, चलना उसी असली वस्तुके कार्य में संलग्न रहें, इस शरीरके लिए फिरना. बातचीत करना, देना लेना, आदि कार्य करते हैं, एक क्षण भी न दें। किन्तु यह अत्यन्त दुष्कर है, इसलिए वह सब स्वप्नवत् होता है-उससे उन्हें कोई अनुराग नहीं वे धन्यात्मा, जिनको अात्मानुभवके रसास्वादन करनेका होता । और जिस तरह अाँख खुलने पर हम स्वप्नकी बातें सौभाग्य प्राम हो चुका है-चाहे उनको 'संयमी कहिए भूल जाते हैं, उसी तरह रात्रिमें-जो उनका दिन हैया 'मुनि'- यथाशक्ति अपना अमूल्य समय असली कार्यमें ध्यानावस्थित होने पर, हृदयकी अांख खुलने पर, वह उन ही लगाते हैं-शरीरसम्बन्धी उपयुक्त कामोंमें उसका सब कार्योंको जो उन्होंने हमारे दिनमें अर्थात् अपनी रानमें दुरुपयोग नहीं करते । फिर भी हम लोग जो बाह्य इन्द्रियों किये हैं भूल जाते हैं और उनसे कोई लगाव नहीं रखते । की तृप्तिके लिए सुबहसे शाम तक चहल पहल करते रहते इस प्रकार उक्त वाक्य कि, जो हमारी रात है उसमें हैं उससे उन महात्माअोंको बाधा पहुँचती है जिनकी इच्छा संयमी जागता है और जिसमें हम जागते हैं वह उस द्रष्टा तथा प्रवृत्ति उक्त प्रावरणको छेदन करके अपनी आत्माको मुनिकी रात है, 3 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १८४ अनेकान्त [वर्ष ४ ******** ** ********************** अशोकारिष्ठ सुपारीपाक माता और बहनों के लिये अत्यन्त हितकर वस्तु स्त्रियों के श्वेत-रक्त प्रदर एवं प्रसूत की अनुपम नये और पुराने सभी प्रकार के श्वेत और रक्त महौषध है। बंध्या स्त्रियों का वंध्यत्व भी इस महौषध प्रदर को समूल दूर करने में गजब का फायदा के सेवन से नष्ट होकर सुन्दर सन्तान की माता पहुंचाता है। मासिकधर्म की पीड़ा अनियमितता आदि बनने का सौभाग्य प्राप्त होता है। मासिकधर्मकी सभी गोरोको निश्चय ही आराम करेगा। मूल्य १ पावका १) * शिकायतें दूर होजाती हैं। मू० प्रति बोतल २) अष्टवर्गयुक्त और मधु रहित पच्यनप्राश-महारसायनर __ (सुमधुर और सुगन्धित ) आयुर्धेद की इस अनुपम औषध का निर्माण प्रायः सभी वैद्य एवं कोई-कोई डाक्टर तक कर रहे हैं। किन्तु हर एक स्थल पर इसके सुन्दर साधनों की सुविधा एवं स्वच्छताका सर्वथा अभाव है। हमने इस महारसायन * का निर्माण ताजा और परिपक्व बनस्पतियों के पूर्ण योगसे अत्यन्त शुद्धता पूर्वक किया है, जो किसी भी सम्प्रदाय * विशेष के धर्म-भाव पर श्राघात नहीं पहुंचाता । औषध निहायत जायकेदार है, क्षयरोग की खांसी एवं हृदय के सभी रोगों पर रामबाण है। दिल और दिमाग़ एवं शक्ति संचयके लिये संसारकी निहायत बेहतरीन दवा है। मूल्य--१ पाव के डब्बे का १) रु. डाक खर्च पृथक नोट--जिन सजनों को मधु सेवन से आपत्तिन हो वह स्पष्ट लिख कर मधु युक्र मंगाले परिवार-सहायक-बक्स गृहस्थ में अचानक उत्पन्न हो जाने वाले दिन* रात के साधारण सभी रोगों के लिये इस बक्स में * ११ दवाइयां हैं सम्पन्न और सहृदय महानुभावों को परोपकारार्थ अवश्य परिवार में रखना चाहिये । मूल्य प्रति बक्स २॥) FAC अंगूरासव ताजा अंगूरों के रस से इस अमूल्य और स्वादिष्ट योग का निर्माण वैज्ञानिक विधि से हुआ है। मस्तिष्क और शरीर की निर्बलता पर रामबाण है। दिमागी काम करने वाले वकील, विद्यार्थी और मास्टर आदिको नित्य सेवन करना चाहिये। मू०२) बोतल कौशलप्रसाद जैन, मैनेजिङ्ग डायरेक्टरभारत आयुर्वेदिक केमिकल्स लिमिटेड, सहारनपुर। ********** ******** ************ *** Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तके सहायक जिन सज्जनोंने अनेकान्तकी टोस सेवाओंके प्रति अपनी अनुकरणीय प्रसन्नता व्यक्त करते हुए, उसे घाटेकी चिन्तासे मुक्त रहकर 'अनेकान्तकी सहायताके चार भागों में से दूसरे मार्गका निराकुलतापूर्वक अपने कार्य में प्रगति करने और अधिकाधिक अवलम्बन लेकर निम्नलिखित सज्जनोंने, अन संस्थाओं रूपसे समाजसेवाओं में अग्रसर होने के लिये सहायताका वचन तथा विद्यार्थियोंको, एक साल तक 'अनेकान्त' फ्री तथा अर्ध दिया है और इस प्रकार अनेकान्तकी सहायकश्रेणीमें अपना मूल्यमें भिजवाने के लिये, निम्नलिखित सहायता प्रदान करके जो अनुकरणीय कार्य किया है। उसके लिये वे धन्यवादके नाम लिखाकर अनेकान्तके संचालकोंको प्रोत्साहित किया है पात्र हैं। श्राशा है अनेकान्त प्रेमी अन्य सज्जन भी आपका उनके शुभ नाम सहायताकी रकम-सहित इस प्रकार हैं:- अनुकरण करेंगे: १५) बा० मिट्टनलालजी जैन तीतरों निवासी, श्रोवरसियर १२५) बा० छोटेलालजी जैन रईस, कलकत्ता सरगथल, पुविवाहकी खुशीमें, (१२ विद्यार्थियोंको एक १०१) बा० अजितप्रसादजी जैन, एडवोकेट, लखनऊ । वर्ष तक अनेकान्त अर्धमूत्यमें देनेके लिये)। १००) साहू श्रेयांसप्रसादजी जैग, लाहौर । १०) ला० फेरूमल चतरौनजी जैन, वीर सदेशी भण्डार. १००) साहू शान्तिप्रसादजी जैन, डालमियानगर । सरधना ज़िला मेरठ, (= विद्यार्थियोंको एक वर्ष तक १००) ला० तनसुखरायजी जैन, न्यू देहली। 'अनेकान्त' अर्धमूल्य में देनेके लिये)। १०) ला. उदयराम जिनेश्वरदासजी जैन बज़ाज़, सहारनपुर १००) बा० लालचन्दजी जैन, एडवोकेट, रोहतक । (४ संस्थानोंको एक वर्ष तक 'अनेकान्त' फ्री भिजवाने १००) बा. जयभगवानजी वकील आदि जैन पंचान पानीपत। के लिये)। ५०) ला० दलीपसिंह काजी और उनकी मार्फत, देहली। १०) ला० रतनलालजी जैन, नईसड़क, देहली (चार संस्थाओं पुस्तकालयों श्रादि-को एक वर्ष तक 'अनेकान्त' फ्री २५) पं० नाथूरामजी प्रेमी, बम्बई। भिजवाने के लिये)। २५) ला० रूड़ामलजी जैन, शामियाने वाले, सहारनपुर । २५) बा० रघुवरदयालजी जैन, एम.ए., करोलबा!, देहली। २० विद्यार्थियोंको अनेकान्त अर्धमूल्यमें प्राप्त हुई सहायताके आधार पर २० विद्यार्थियोंको २५) सेठ गुलाबचन्दजी जैन टोंग्या, इन्दौर। 'अनेकान्त' एक वर्ष तक अर्धमत्यमें दिया जाएगा, जिन्हें आशा है अनेकान्तके प्रेमी दूसो सज्जन भी आपका आवश्यकता हो उन्हें शीघ्र ही ॥) रु० मनीआर्डरसे भेजकर अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही सहायक स्कीमको सफल ग्राहक होजाना चाहिये। जो विद्यार्थी उपहारकी पुस्तके बनाने में अपना पूरा सहयोग प्रदान करके यशके भागी बनेंगे। समाधितंत्र सटीक और सिद्धिसोपान भी चाहते हों उन्हें पोष्टेजके लिये चार आने अधिक भेजने चाहिये। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' व्यवस्थापक 'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) प्रचारकोंकी ज़रूरत-'अनेकान्त' के लिये प्रकारकोंकी जरूरत है । जो व्यक्ति इस कार्यको करना चाहें वे 'अनेकान्त' कार्यालय वीरसेवामन्दिर सरसावासे शीघ्र पत्र व्यवहार करें। मुद्रक और प्रकाशक पं० परमानन्द शास्त्री वीर सेवामन्दिर, सरसावाके लिये श्यामसुन्दरलाल श्रीवास्तव के प्रबन्धसे श्रीवास्तव प्रिंटिंग प्रेस, सहारनपुरमें मुद्रित । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registered No. A-731 अपूव ग्रथ छपकर तैयार है! महात्मा गांधीजी लिखित महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना और संस्मरण सहित महान ग्रंथ * श्रीमद राजचन्द्र गुजरात के सुप्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता शतावधानी कविवर रायचन्द्रजी के गुजराती ग्रंथ का हिंदी अनुवाद अनुवादक -प्रोफेसर पं० जगदीशचन्द्र शास्त्री, एम० ए० महात्माजी ने इसकी प्रस्तावना में लिखा है "मेरे जीवन पर मुख्यता से कवि रायचन्द्र भाई की छाप पड़ी है। टॉल्स्टाय और रस्किन की अपेक्षा भी रायचन्द्र भाई ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला है / रायचन्द्र जी एक अद्भुत महापुरुष हुए हैं, वे अपने समय के महान तत्त्वज्ञानी और विचारक थे। महात्माओं को जन्म देने वाली पुण्यभूमि काठियावाड़ में जन्म लेकर उन्होंने तमाम धर्मो का गहराई से अध्ययन किया था और उनके सारभूत तत्त्वों पर अपने विचार बनाये थे / उनकी स्मरणशक्ति राजब की थी, किसी भी ग्रन्थ को एक बार पढ़ के वे हृदयस्थ (याद) कर लेते थे, शतावधानी तो थे ही अर्थात् सौ बातों में एक साथ उपयोग लगा सकते थे। इसमें उनके लिख हुए जगत कल्याणकारी, जीवन में सुख और शान्ति देने वाले, जीवनोपयोगी, सर्वधर्मसमभाव, अहिंसा, सत्य आदि तत्त्वों का विशद विवेचन है। श्रीमद् की बनाई हुई मोक्ष माला, भावनाबोध, आत्मसिद्धि आदि छोटे मोटे ग्रंथों का संग्रह तो है ही, सब से महत्व की चीज है उनके 874 पत्र, जो उन्होंने समय समय पर अपने परिचित मुमुक्षु जनों को लिखे थे, उनका इसमें संग्रह है। दक्षिण अफ्रीका से किया हुआ महात्मा गाँधी जी का पत्रव्यवहार भी इसमें है। अध्यात्म और तत्त्वज्ञान का तो खजाना हो है। रायचन्द्र जी की मूल गुजराती कविताएँ हिंदी अर्थ सहित दी हैं। प्रत्येक विचारशील विद्वान और देश-भक्त को इस ग्रंथ का स्वाध्याय करके लाभ उठाना चाहिये / पत्र-सम्पादकों और नामी नामी विद्वानों ने मुक्तकण्ठ से इसकी प्रशंसा की है। ऐसे ग्रंथ शताब्दियों में विरले ही निकलते हैं। गुजराती में इस ग्रंथ के सात एडीशन होचुके हैं। हिंदी में यह पहली बार महात्मा गाँधी जी के आग्रह से प्रकाशित हुआ है बड़े आकार के एक हजार पृष्ठ हैं, छः सुन्दर चित्र है, ऊपर कपड़े की सुंदर मजबूत जिल्द बंधी हुई है। स्वदेशी काग़ज पर कलापूर्ण सुंदर छपाई हुई है। मूल्य 6) छः रुपया है, जो कि ला गतमात्र है / मूल गुजराती ग्रंथ का मूल्य 5) पांच रुपया है। जो महोदय गुजराती भाषा सीखना चाहें उनके लिये यह अच्छा साधन है। खास रियायत--जो भाई रायचन्द्र ज न शास्त्रमाला के एक साथ 10) के ग्रंथ मंगाएँगे, उन्हें उमास्वातिकृत 'सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' भाषाटीका सहित 3) का ग्रन्थ भेंट देंगे। मिलने का पता:परमश्रुत-प्रभाव कमंडल, (रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला) खारा कुवा, जौहरी बाजार, बम्बई नं०२ MEEVISVASMIRMIRVasNarWasMissVASNAVasWARVaMaslaxMaVaslasNasMaxMIGNIVEMasVsNOTVIVAXVacVaVasalaxMaxMARNAMAVAVVAKNOVAGVATV2KVVVX 1 DO