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________________ किरण २ ] मुनिसुव्रतके कुछ मनोहर पद्य १७१ उनकी महत्ताको कभी भी नहीं भुला सकते हैं । एक मालूम पड़ती है । वीर भगवानको क्षीरसागरकी उदाहरण लीजिये : उपमा दी, वाणीको सुधाकी, सुबुद्धिको कलशियोंकी 'महावीराष्टक स्तोत्र' एक छोटीसी अष्टश्लोकमयी तथा विबुध-विद्वानोंके अधिप-स्वामी गणधर देवादि शिखरिणी छंदकी रचना है। उसे हिन्दविश्वविद्यालय को देवोन्द्रोंकी उपमा दी है । वास्तवमें छद्मस्थोंके के पूर्व उपकुलपति तथा संस्कृत विभागके अध्यक्ष सामयिशमिक ज्ञानमें छोटी कलशियोंकी कल्पना बहुत सुंदर है। प्रिंसिपल ए० बी० ध्रव एम० ए० सुनकर बहुत आनं कवि प्रसिद्ध जैनाचार्यों के नामोल्लेग्वके साथ दित हुए और उन्होंने अपने भाषणमें जैनसाहित्य अपना मंगलात्मक भाव कैसा बढ़िया निकालते हैं की खूब ही महिमा बताई। उस देखिए____ आज बहुत सी रचनाएँ प्रकाशमें आगई हैं, उन महाकलकाद् गुणभद्रसूरेः का अध्ययन करनेवालों को रस स्वादनके साथ स.थ समंतभद्रादपि पूज्यपादात् । वचोऽकलकं गुणभद्रमस्तु यथार्थ शांति ल भका सौभाग्य मिलेगा। समन्तभद्रं मम पूज्यपादम् ॥ १०॥ ___ यहां हम तेरहवीं सदीक कविकुलचूड़ामणि 'यह रचना अकलंकदेवके प्रसादसे अकलंक, अर्हद्दास महाकविके मुनिसुव्रतन थ भगवानके गुणभद्राचार्यकी कृपासे गुण-भद्र गुणोंसे रमणीय) (जो २० वें तीर्थकर हैं ) चरित्रको वर्णन करनेवाले स्वामी समंतभद्र के प्रसादसे समन्त भद्र (सब ओरसे 'मुनिव्रतकाव्य' की कुछ मार्मिक पदावलियोंका दिग्द- मंगलरूप) एवं पूज्यपाद स्वामीकी दयासे पूज्य पाद र्शन कराएँगे। इस दससर्गात्मक ग्रंथमें कुल ३८८ (सत्पुरुषों के द्वारा उपादेय ) होवे ।' पद्य हैं, किन्तु वे सब भाव, रस और चमत्कारसे कविवर सरस्वती को वंदनीय समझते हैं और परिपूर्ण हैं। वे इस बात के विरुद्ध हैं कि वाग्देवीका जगह जगह अपने ग्रंथ-निर्माणका कार्य मंगलमय हो, इस वानरीके समान नर्तन कराया जाय । वे चाहते हैं कि शुभ भावनासे कविवर कितना मनोहर पद्य कहते हैं- वाणीके द्वारा जिनेन्द्र गुणगान करना उचित और वीरादिवः क्षीरनिधे प्रवृत्ता श्रेयस्कर है । तुच्छ पुरुषोंका गुण-गान करना भारती सुधेव वाणी सुधिया कलश्या । ___ का अपमान करना है । देखिये वे क्या कहते हैंविधृत्य नीता विबुधाधिपैर्मे सरस्वतीकल्पलतां स को वा संवर्धयिष्यन् जिनपारिजातम् । निषेविता नित्यसुखाय भूयात् ॥ १-६॥ विमुच्य कांजीरतरूपमेषु व्यारोपयेव्याकृतनायकेषु ॥१०॥ क्षीरसागररूप महावीर भगवानसे निकली हुई -'ऐसा कौन विज्ञ व्यक्ति होगा, जो सरस्वतीसुबुद्धिरूपी कलशियों-द्वारा गणधरादिरूप देवेन्द्रों रूप कल्प-लतिकाको वृद्धिंगत करनेके लिए जिनेन्द्ररूप द्वारा सेवित अमृतरूपी जिनेन्द्रवाणी मेरे अविनाशी कल्पवृक्षको छोड़कर विषवृक्षके समान अधमजनोंका अवलंबन करायगा? आनंदकी उत्पादिका होवे । वास्तविक बात यह है कि वीतरागका वर्णन ___ यहां क्षीरसमुद्रसे कलशों द्वारा देव-देवेन्द्रों द्वारा करनेसे पाप की वृद्धि होती है। पुण्यहीन प्राणियोंका लाए गए जलमें जिनवाणीकी कल्पना बड़ी भली कीर्तन करनेसे पापकी प्रकर्षतावश ज्ञानमें मंदता होगी,
SR No.527171
Book TitleAnekant 1941 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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