SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'मुनिसुव्रतकाव्य' के कुछ मनोहर पद्य ( लेखक - पं० सुमेरचंद्र जैन दिवाकर, न्यायतीर्थ, शास्त्री, B. A. LL.B. ) 8888333 संस्कृत साहित्योद्यानकी शोभा निराली है, उसके रमणीय पुष्पोंकी सुन्दरता, और लोकोत्तर सौरभ की छटा कभी भी कम न होकर अविनाशी-सी प्रतीत होती है । आज जो विशाल संस्कृत-साहित्य प्रकाशमें आया है, उसको देखकर विश्वके विद्वान् संस्कृत भाषाको बहुत महत्वपूर्ण समझने लगे हैं। आज अधिक मात्रा में जैन लोगों के निमित्तसे जैनेतर रचनाएँ प्रकाशित होकर पठनपाठन आलोचनकी सामग्री बनी हैं, इस कारण बहुत लोगों की यह भ्रान्त धारणा-सी बन गई है कि संस्कृत अमरकोष में जैन आचार्योंका कोई भाग नहीं है । भारतीय अनेक विद्वान वास्तविकता से परिचय रखते हुए भी अपने सम्प्रदाय के प्रति अनुचित स्नेहवश सत्यको प्रकाशमें लाने से हिचकते थे । स्वयं संस्कृत भाषा के केन्द्र काशी में कुछ वर्ष पूर्व जैन ग्रंथोंको पढ़ाने या छूने में पाप समझने वाले प्रकाण्ड ब्राह्मण पंडितों का बोलबाला था । ऐसी स्थिति और पक्षपात के वातावरण में लोग जैनाचार्योंकी सरस एवं प्रारणपूर्ण रचनाओंके आस्वादसे अब तक जगत्को वंचित रहना पड़ा। इस अन्धकार में प्रकाशकी किरण हमें पश्चिममें मिली । जर्मनी आदि के उदाराशय संस्कृतज्ञ विदेशी विद्वानोंकी कृपासे जैनसाहित्यकी भी विद्व न्मण्डलके समक्ष चर्चा होने लगी और उस ओर अध्ययन-प्रेमियोंका ध्यान जाने लगा। फिर भी अभी * अमरकोष नामका कोषग्रन्थ जैन विद्वान्‌की कृति है, इसे अनेक उदार विद्वान् मानने लगे हैं । बहुत थोड़ा जैन साहित्य लोगोंके दृष्टिगोचर हुआ है । उद्घ रचनाएँ तो अभी अप्रकाशित दशा में हैं । महाकवि वादीभसिंहके शब्दों में 'अमृत की एक घूट भी पूर्ण आनंद देती है । इसी भांति उपलब्ध और प्रकाशमें आए अल्प जैन साहित्य को देखकर भी अनेक विश्रुत विद्वान् आश्चर्य में हैं । उदारचेता डा० हर्टल तो यह लिखते हैं "Now what would Sanskrit poetry be without this large Sanskrit literature of Jains. The more I learn to know it the more my admiration rises." 'मैं अब नहीं कह सकता कि जैनियोंके इस विशाल संस्कृत-साहित्य के अभाव में संस्कृत काव्य-साहि त्यकी क्या दशा होगी। इस जैन साहित्य के विषय में मेरा जितना जितना ज्ञन बढ़ता जाता है, उतना उतना ही मेरा इस ओर प्रशंसनका भाव बढ़ता जाता है।" जैन ग्रंथरत्नों के अध्ययन करने वाले डा० हर्टल के कथनका अक्षरशः समर्थन करते हैं और करेंगे । जिन्होंने भगवज्जिन सेन, सोमदेव, हरिचंद्र, वीरनं द आदिकी अमर रचनाओं का पारायण किया है, वे तो जैन साहित्यको विश्वस हित्यका प्राण कहे विना न रहेंगे। जैन साहित्यकी एक खास बात यह भी है कि उसमें रसिकों की तृप्ति के साथ में उनके र्ज वनको उज्वल और उन्नत बनानेकी विपुल सामग्री और शिक्षा पाई जाती है । जैन रचनाओंका मनन करनेवाले विद्वान् + पीयूषं नहि निःशेषं पिबन्नेव सुखायते ।'
SR No.527171
Book TitleAnekant 1941 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy