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________________ किरण २] संयमीका दिन और रात १८३ सत . में विकसित होता चला जाता है। इस दृष्टिसे सभी आत्माएँ पूर्णरूपेण विकसित होते हुए देखनेकी श्रोर है। बराबर हैं-कोई किसीसे बड़ी छोटी अथवा ऊँची नीची इस कारण वे या तो किसी निर्जन वनमें, जहां कि नहीं है। किन्तु हम देखते हैं कि एक उद्भट विद्वान् है तो दिनरातमें कोई अन्तर नहीं, चले जाते हैं और या अपना दूसरा निरक्षर भट्टाचार्य, एक सर्वमान्य है तो दूसरा सर्वतो- कार्य अधिक उपयोग लगाकर उस समय करते हैं जबकि बहिष्कृत, एक अत्यन्त सुखी है तो दूसरा नितान्त दुःखी संसार अपने कोलाहलसे स्तब्ध हो जाता है और संसारी आदि, जिससे यह धारणा होती है कि सब आत्माएँ समान प्राणी दिनभर अथक परिश्रम करके सो जाते हैं । इस प्रकार नहीं हैं वरन् भिन्न भिन्न हैं अथवा ऊँचे-नीचे भिन्न भिन्न उन संयमी पुरुषोंका कार्य उस समय प्रारम्भ होता है जब स्थलों पर स्थित हैं। यदि वास्तवमें देखा जाय तो यह कि सब लोग निद्रा देवीकी गोद में चले जाते हैं और उस विषमता केवल उसी घनरूपी कर्मावरणके स्थूल तथा सूक्ष्म समय तक सुचारु रूपसे सम्पन्न होता है जब तक कि संसारी होने पर निर्भर है, जिस समय यह श्रावरण बिल्कुल हट जीव पुनः अपने कार्य में प्रविष्ट नहीं होते। जावेगा उस समय सूर्यरूपी अात्मा अपने स्वाभाविक शुद्ध यह तो हा संयमी पुरुषोंका दिन–जबकि वे अपना रूपमें देदीप्यमान होगा और इस बाह्य विषमताका कही कार्य करते हैं। अब प्रश्न यह रह जाता है कि जो हम सब पता तक नहीं लगेगा। का दिन है वह उनके लिए रात कैसे ? इसका उत्तर यह है लेकिन हमारी आत्माओं पर आवरण इतना अधिक कि जिस प्रकार रात्रिमें हम पर्यङ्क पर लेटे लेटे, विना हाथ स्थूल तथा कठोर है कि उसने उनकी तनिक भी श्राभाका पैर हिलाए, नाना प्रकारके कार्य कर लेते हैं, कोसों दूर हो अवलोकन हमको नहीं होने दिया है। इसका परिणाम यह आते हैं, विना पेट भरे अनेक प्रकारके भोजन पा लेते हैं. हुआ कि हम इस शरीरको ही सब कुछ मानने लगे और विना दूसरेसे अपनी बात कहे हुए अथवा उसकी सुने हुए दिनरात इसकी ही परिचर्या एवं चाकरीमें संलग्न रहने लगे वार्तालाप कर लेते हैं, विना किसीको दिये हुए अथवा है । प्रातःकालसे लेकर सन्ध्या पर्यन्त हम इसी उधेड़-बुनमें किसीसे लिये हुए बहुत-सी वस्तुएँ दे ले लेते हैं, इत्यादि लगे रहते हैं कि इस शरीरका पालन कैसे करें। इसके परे अनेक कार्य कर लेते हैं और अांख खुलनेपर वह कुछ नहीं अावरणसे आच्छादित जो असली वस्तु हे उसका कुछ भी रहता--बहधा बहुत विचार करने पर भी उस सबका कोई ध्यान नहीं-उसके निमित्त एक क्षण भी नहीं ! वैसे अनंत स्मरण नहीं होता, ठीक उसी प्रकार उक्त परिणति वाले सुखकी प्राप्तिके लिए वांछनीय तो यह है कि हम अहोरात्र मुनि लोग दिनमें जो खाना पीना, उठना बैठना, चलना उसी असली वस्तुके कार्य में संलग्न रहें, इस शरीरके लिए फिरना. बातचीत करना, देना लेना, आदि कार्य करते हैं, एक क्षण भी न दें। किन्तु यह अत्यन्त दुष्कर है, इसलिए वह सब स्वप्नवत् होता है-उससे उन्हें कोई अनुराग नहीं वे धन्यात्मा, जिनको अात्मानुभवके रसास्वादन करनेका होता । और जिस तरह अाँख खुलने पर हम स्वप्नकी बातें सौभाग्य प्राम हो चुका है-चाहे उनको 'संयमी कहिए भूल जाते हैं, उसी तरह रात्रिमें-जो उनका दिन हैया 'मुनि'- यथाशक्ति अपना अमूल्य समय असली कार्यमें ध्यानावस्थित होने पर, हृदयकी अांख खुलने पर, वह उन ही लगाते हैं-शरीरसम्बन्धी उपयुक्त कामोंमें उसका सब कार्योंको जो उन्होंने हमारे दिनमें अर्थात् अपनी रानमें दुरुपयोग नहीं करते । फिर भी हम लोग जो बाह्य इन्द्रियों किये हैं भूल जाते हैं और उनसे कोई लगाव नहीं रखते । की तृप्तिके लिए सुबहसे शाम तक चहल पहल करते रहते इस प्रकार उक्त वाक्य कि, जो हमारी रात है उसमें हैं उससे उन महात्माअोंको बाधा पहुँचती है जिनकी इच्छा संयमी जागता है और जिसमें हम जागते हैं वह उस द्रष्टा तथा प्रवृत्ति उक्त प्रावरणको छेदन करके अपनी आत्माको मुनिकी रात है, 3
SR No.527171
Book TitleAnekant 1941 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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