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________________ १७४ अनेकान्त (जल) भर बाकी रहा; आज ये उसे भी अपहरण करने को गए हैं इसीलिए भय से क्षीरसागर कंपित हो उठा, न कि तरंगों से कंपित हुआ । भगवान के अभिषेक जलको लोग बड़े आदर के साथ ग्रहण करतेहैं, वहां भगवान मुनिसुव्रतनाथका मेरुपर महाभिषेक हुआ, 'उसके सुगंधित गंधोदक में देवताओंने खूब स्नान किया ।' इंद्र भगवानका जातकर्म किया, पश्चात् नाम करण संस्कार किया, यहां नामकी अन्वर्थता बड़े सुंदर शब्दों में बताई गई है— करिष्यते मुनिमखिल' च सुत्रतं, भविष्यति स्वयमपि सुव्रतो मुनिः । विवेचनादिति विभुरभ्यधाय्यसौ, विडौजसा किल मुनिसुव्रताक्षरैः ॥६-४३॥ स्वयं समीचीन व्रत संपन्न मुनि ( सुव्रत - मुनि) हो कर संपूर्ण मुनियोंको व्रतसंपन्न ( मुनि सुव्रत ) करेंगे यह सोचकर इंद्रने मुनिसुव्रत शब्दों में उनका नाम - करण किया । शास्त्रोंमें वर्णन है कि भगवान के अंगुष्ठ में इंद्र महाराजने मृत लिप्त कर दिया था, अतएव उसके द्वारा अपनी अभिलाषा शांत होनेपर उन्होंने माताके दुग्धपानमें अपनी बुद्धि नहीं की । इस प्रसंग में कवि कहता हैजिनार्भ कस्येन्द्रिय-तृप्तिहेतुः करे बभूवामृतमित्यचित्रम् । चित्रं पुनः स्वार्थसुखैकहेतुः तच्चामृतं तस्य करे यदासीत् ॥ ७-३।। जिन - शिशुकी इंद्रिय-तृप्ति के लिए हेतुभूत अमृत हाथमें था, यह आश्वर्यकी बात नहीं है; आश्चर्य तो इसमें है कि उनके हाथमें अपने सुखका एक मात्र कारण अमृत-मोक्ष भी था । कोई यह सोचता होगा कि निसर्गज अवधिज्ञान समन्वित होने के कारण बाल्यकाल में भगवानमें बाल सुलभ क्रीड़ाओंका अभाव होगा, ऐसी कल्पनाका [ वर्ष ४ निराकरण करते हुए महाकवि कहते हैंस जानुचारी मणिमेदिनीषु स्वपाणिभिः स्वप्रतिबिम्बितानि । पुरः प्रधावत्सुरसूनुबुध्या प्रताडयन्नाटयति स्म बाल्यं ॥७-७ 'मणिकी भूमिपर अपने घुटनोंके बलपर चलते हुए जिनेन्द्र शिशु अपने प्रतिबिम्बोंको दौड़ते हुए देवशिशु समझकर ताड़ित करते हुए बाल्यभवका अभिनय करते थे । वह दृश्य कितना आनंदप्रद नहीं होता होगा, जब त्रिज्ञानधारी भगवान की ऐसी बालसुलभ क्रीड़ाश्रोंका दर्शन होता था । उस शैशवका यह वर्णन भी कितना मनोहर है— शनैः समुत्थाय गृहांगणेषु सुरांगनादत्तकरः कुमारः । पदानि कुर्वन्किल पंचषाणि पपात तद्वीक्षणदीन चतुः ॥७-८॥ 'धीरेसे उठकर देवबालाओं की करांगुलि पकड़ वह कुमार गृहांगण में पांच, छह डग चलकर देवांगना के रूपदर्शन से खिन्नदृष्टि हो गिर पड़े ।' जन्मसे अतुल बलसे भूषित जिनेन्द्रकुमार की उपर्युक्त स्थिति वास्तवमें इस बातकी द्योतक है कि बाल्य अवस्थावश होने वाली बातोंके अपवादरूप भगवान नहीं थे । जिनेन्द्र भगवान मुनिसुव्रतने जब साम्राज्यपद ग्रहण किया, तब उनके दर्शनों को आने वाले नरेशों का महान समुदाय हो जाता था। इसी बात को कहाकवि बताते हैं भक्तु ं जिनेन्द्रं व्रजतां नृपाणां चमूपदोद्ध तपरागपाल्या । विहाय चेतांसि पलायमान कपोतलेश्याकृतिरन्वकारि ॥७-२६ 'जिनेन्द्रकी आराधना करनेके लिए जानेवाले नरेशोंकी सेना के पदाघात से उड़ती हुई धूलिराशि ऐसी मालूम पड़ती थी, मानों अंतः करण छोड़ कर जाती हुई कपोत लेश्या ही हो ।' भगवान मुनिसुव्रत राज्य में किसे कष्ट हो सकता है, ? सचेतन वस्तुकी अनुकूलताकी बाततो क्या, श्रचे
SR No.527171
Book TitleAnekant 1941 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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