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________________ किरण २] समंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल १५७ ठीक प्रतीत नहीं होता । ब्रह्म नेमिदत्तकी कथा और प्रकारके सुन्दर श्रेष्ठ भोजनोंके समूहको देखकर आपभी कई बातें ऐसी हैं जो ठीक नहीं जंचती । इस ने सोचा कि यहाँ मेरी दुर्व्याधि जरूर शान्त हो कथामें लिखा है कि जायगी। इसके बाद जब पूजा हो चुकी और वह __“कांचीमें उस वक्त भस्मक व्याधिको नाश करने दिव्य आहार-ढेरका ढेर नैवेद्य-बाहर निक्षेपित के लिये समर्थ (स्निग्धादि ) भोजनोंकी सम्प्राप्तिका किया गया तब आपने एक युक्तिके द्वारा लोगों तथा अभाव था, इसलिये समन्तभद्र कांचीको छोड़कर राजाको आश्चर्यमें डालकर शिवको भोजन करानेका उत्तरकी ओर चल दिये । चलते चलते वे 'पुण्डेन्दु- काम अपने हाथमें लिया। इस पर राजाने घी, दूध, नगर में पहुंचे, वहाँ बौद्धोंकी महती दानशालाको दही और मिठाई ( इक्षुरस) आदिसे मिश्रित नाना देखकर उन्होंने बौद्ध भिक्षुकका रूप धारण किया, प्रकारका दिव्य भोजन प्रचुर परिमाणमें (पूर्णैः कुंभपरन्तु जब वहाँ भी महाव्याधिकी शान्तिके योग्य शतैर्युक्तं = भरे हुए सौ घड़ों जितना) तय्यार कराया पाहार का अभाव देखा तो आप वहाँ से निकल गये और उसे शिवभोजनके लिये योगिगजके सुपुर्द और क्षुधासे पीडित अनेक नगरोंमें घूमते हुए 'दश- किया। समंतभद्र ने वह भोजन स्वयं खाकर जब पुर' नामके नगरमें पहुंचे । इस नगर में भागवतों मंदिर के कपाट खोले और खाली बरतनोंको बाहर (वैष्णवों) का उन्नत मठ देखकर और यह देखकर उठा ले जाने के लिये कहा, तब राजादिकको बड़ा कि यहॉपर भागवन लिङ्गधारी साधुओंको भक्त जनों आश्चर्य हुआ । यही समझा गया कि योगिराजने द्वारा प्रचुर परिमाणमें सदा विशिष्ट आहार भेंट अपने योगबलसे साक्षात शिवको अवतारित करके किया जाता है, आपने बौद्ध वेषका परित्याग किया यह भोजन उन्हें ही कराया है। इससे गजाकी भक्ति और भागवत वेष धारण कर लया, परन्तु यहाँका बढ़ी और वह नित्य ही उत्तमोत्तम नैवैद्यका समूह विशिष्टाहार भी आपकी भस्मक व्याधिको शान्त तैयार करा कर भेजने लगा । इस तरह, प्रचुर करनेमें समर्थ न हो सका और इस लिये आप यहाँ परिमाणमें उत्कृष्ट आहारका सेवन करते हुए, जब से भी चल दिये । इसके बाद नानादिग्देशादिकोंमें परे छह महीने बीत गये तब आपकी व्याधि एकदम घूमते हुए श्राप अन्तको ‘वाराणसी' नगरी पहुंचे शांत होगई और आहारकी मात्रा प्राकृतिक हो जाने और वहाँ अपने योगिलिङ्ग धारण करके शिवकाटि के कारण वह सब नैवेद्य प्रायः ज्योंका त्यों बचने राजाके शिवालयमें प्रवेश किया । इस शिवालयमें लगा । इसके बाद राजाको जब यह खबर लगी कि शिवजीके भोगके लिये तय्यार किये हुए अठारह योगी स्वयं ही वह भोजन करता रहा है और 'शिव' + 'पुण्ड' नाम उत्तर बंगालका है जिसे 'पौण्ड्रवर्धन' भी को प्रणाम तक भी नहीं करता तब उसने कुपित कहते हैं । 'पुण्डे न्दु नगरसे उत्तर बंगाल के इन्दुपुर, होकर योगीसे प्रणाम न करनेका कारण पूछा। चन्द्रपुर अथवा चन्द्रनगर आदि किसी खास शहरका उत्तरमें योगिराजने यह कह दिया कि 'तुम्हारा यह अभिप्राय जान पड़ता है। छपेहुए 'अाराधनाकथाकोश' (श्लोक ११) में ऐसा ही पाठ दिया है। संभव है कि वह रागी द्वषी देव मेरे नमस्कारको सहन नहीं कर कुछ अशुद्ध हो। सकता । मेरे नमस्कारको सहन करनेके लिये वे जिन
SR No.527171
Book TitleAnekant 1941 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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