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________________ १५८ अनेकान्त [वर्ष ४ सूर्य ही समर्थ हैं जो अठारह दोषोंसे रहित हैं और दिकको बड़ा आश्चर्य हुआ और राजाने उसी समय केवलज्ञानरूपी सत्तेजसे लोकालोक के प्रकाशक हैं। समन्तभद्रसे पूछा-हे योगीन्द्र, आप महासामर्थ्ययदि मैंने नमस्कार किया तो तुम्हारा यह देव (शिव- वान् अव्यक्तलिंगी कौन हैं ? इसके उत्तरमें सम तभद्रलिङ्ग) विदीर्ण हो जायगा-खंड खंड हो जायगा- ने नीचे लिखे दो काव्य कहेइसीसे मैं नमस्कार नहीं करता हूं'। इस पर राजाका कांच्यां नग्राटकोऽहं कौतुक बढ़ गया और उसने नमस्कार के लिये आग्रह मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिंडः करते हुए, कहा- यदि यह देव खंड खंड हो जायगा पुण्डोएडेन शाक्यभिक्षः तो हो जाने दीजिये, मुझे तुम्हारे नमस्कार के सामर्थ्य ___ दशपुरनगरे मृष्टभोजी परिबाट । को जरूर देखना है । समंतभद्रने इसे स्वीकार किया वाराणस्यामभूवं और अगले दिन अपने सामर्थ्यको दिखलानेका वादा शशिधरधवल:* पाण्डुगंगस्तपस्वी, किया । राजाने ' एवमस्तु' कह कर उन्हें मन्दिरमें गजन् यस्यास्ति शक्तिः, रक्खा और बाहरसे चौकी पहरेका पूरा इन्तजाम कर स वदतु + पुरतो जैननिग्रंथवादी ॥ दिया। दो पहर रात बीतने पर समंतभद्रको अपने . पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भैरी मया ताडिता, वचन-निर्वाहकी चिन्ता हुई, उससे अम्बिकादेवीका पश्चा-मालवसिन्धुटक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे आसन डोल गया । वह दौड़ी हुई आई, श्राकर उस .. ने समंतभद्रको आश्वासन दिया और यह कह कर " प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं संकटं, चली गई कि तुम 'स्वयंभवाभत हितेन भातले वादाथा विचराग्यहं नरपत शालविक्रीडितं इसके बाद समन्तभद्रने कुलिंगिवेष छोड़कर जैनइस पदसे प्रारंभ करके चतुर्विंशति तीर्थकरोंकी उन्नत निग्रंथ लिंग धारण किया और संपूर्ण एकान्तवादियों स्तुति रचो, उसके प्रभावसे सब काम शीघ्र होजायगा . को कादमें जीतकर जैनशासनकी प्रभावना की। यह और यह कुलिंग टूट जायगा । समन्तभद्रको इस ___ सब देखकर राजाको जैनधर्ममें श्रद्धा होगई, वैगग्य दिव्यदर्शनसे प्रसन्नता हुई और वे निर्दिष्ट स्तुतिको हो आया और राज्य छोड़कर उसने जिनदीक्षा रचकर सुखसे स्थित हो गये । सवेरे (प्रभात समय) धारण कम्ली +" राजा आया और उसने वही नमस्कारद्वारा सामर्थ्य + संभव है कि यह 'पुण्डोड' पाठ हो, जिससे 'पुण्ड्र'दिखलानेकी बात कही। इस पर समन्तभद्र ने अपनी उत्तर बंगाल-और 'उड'-उड़ीसा-दोनोंका अभिप्राय उस महास्तुतिको पढ़ना प्रारंभ किया । जिस वक्त जान पड़ता है। 'चंद्रप्रभ' भगवानकी स्तुति करते हुए 'तमस्तमो- * कहींपर 'शशधरधवलः' भी पाठ है जिसका अर्थ चंद्रमा रेरिव रश्मिभिन्नं' यह वाक्य पढ़ा गया उसी वक्त के समान उज्वल होता है। 'प्रवदतु' भी पाठ कहीं कहीं पर पाया जाता है। वह शिवलिंग' खंड खंड होगया और उस स्थानस +ब्रह्म नेमिदत्तके कथनानुसार उनका कथाकोश भट्टारक 'चंद्रप्रभ' भगवानकी चतुर्मुखी प्रतिमा महान् प्रभाचन्द्र के उस कथाकोशके अाधारपर बना हुआ है जो जयकोलाहलके साथ प्रकट हुई । यह देखकर राजा- गद्यात्मक है और जिसको पूरी तरह देखनेका मुझे अभी
SR No.527171
Book TitleAnekant 1941 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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