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किरण २]
मुनिसुव्रतकाव्यके कुछ मनोहर पद्य
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पहलेसे ही इस बातको ज नकर इन्द्रके आदेशसे जिस जिस प्रदेशमें भगवानका विहार हुआ वहाँ प्रयाणसूचक भेरी नाद हुआ। इस सम्बन्धमें वे वहाँके जीवोंका चिरकालीन विरोध दूर हो गया, कहते हैं
और उनमें मैत्री उत्पन्न हो गई। जिनेन्द्रकी सेवाके समवशरणमग्रे भव्यपुण्यैश्चचाल प्रसादसे लोग संपत्तिशाली होगए। छहों ऋतुओंने स्फुट-कनक-सरोजश्रेणिना लोकवंद्यः ।
आकर वहां आवास किया।' सुरपतिरपि सर्वान् जैनसेवानुरक्तान्
कलितकनकदंडो योजयन् स्वस्वकृत्ये॥ १०-१०॥ इस प्रकार इस ग्रंथमें श्री अहंहासके महाकविल 'भव्य जीवोंके पुण्यस समवशरण नामकी धर्म- एवं चमत्कारिणी प्रतिभाके पद पदपर उदाहरण सभा आक.श मार्गसे चली । विकसित रत्नवाले विद्यमान हैं। केवल महाकविकी कृतिका कुछ रसाकमलोंके ऊपर त्रिभुवनवंदित मुनिसुव्रतनाथ चले। स्वाद हो जाय, इस उद्देश्यसे कुछ महत्वपूर्ण पद्य कनकदंडधारी इन्द्र भी जिनेन्द्रकी सेवामें अनुरक्त सभी प्रकाशमें लाए गए हैं। लोगोंको अपने अपने कार्य में लगाते हुए चले ।' साहित्य मर्मज्ञोंकी जिज्ञासाको जागृत करनामात्र ___ भगवान मुनिसुव्रतके योगजधर्मका प्रभाव कवि हमारा उद्देश्य था, अतः विशेष रसपानके लिए वे इस प्रकार बताता है।
पूर्ण ग्रंथ * का अवगाहन करें। गलितचिरविरोधाः प्राप्तवंतश्च मैत्री मिथ इव जिनसेवालंपटासंपदिद्धाः
*इस ग्रंथका मूल सुंदर संस्कृत टीका सहित एवं साधारण षडपि च ऋतवस्ते तत्रतत्रान्वगच्छन् हिन्दी टीका समन्वित जैनसिद्धान्त भवन अारासे २) में व्यवहरदयमीशो यत्र यत्रैव देशे ॥१०-५॥ प्राप्त हो सकता है।
“यदि अधिककी प्राप्ति चाहते हो तो जो कुछ तुम्हारे पास है उसका उत्तमोत्तम उपयोग
करो।"
"प्रगति बाहरसे नहीं आती, अन्दरसे ही उत्पन्न होती है।" "अपनी बुराई सुनकर भड़क उठना उन्नतिमें बाधक है ।" "उन्नति एक ओर झुकनेमें नहीं, चारों ओर फैलने में होती है।" "हमारी प्रगतिमें बाधक होनेवाली सबसे बड़ी वस्तु है-असहिष्णुता।" "बिना श्रात्मविश्वासके सदज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती।"
-विचारपुष्पोद्यान